महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-058
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द्यूते पुष्करजितेन नलेन दमयन्त्या सह वनप्रवेशः ।। 1 ।।
अन्तरिक्षे पक्षिरूपेण समुत्पतद्भिरक्षैरात्मजिघृक्षोर्नलस्य अन्तरीयवस्त्रापकर्षणेन पलायनम् ।। 2 ।।
बृहदश्व उवाच। | 3-58-1x |
ततस्तु याते वार्ष्णेये पुण्यश्लोकस्य दीव्यतः। पुष्करेण हृतं राज्यं यच्चापि वसु किंचन ।। | 3-58-1a 3-58-1b |
हृतराज्यं नलं राजन्प्रहसन्पुष्करोऽब्रवीत्। द्यूतं प्रवर्ततां भूयः प्रतिपाणोऽस्ति कस्तव ।। | 3-58-2a 3-58-2b |
शिष्टा ते दमयन्त्येका सर्वमन्यद्धृतं मया। दमयन्त्याः पणः साधु वर्ततां यदि मन्यसे ।। | 3-58-3a 3-58-3b |
पुष्रेणैवमुक्तस्य पुण्यश्लोकस्य मन्युना। व्यदीर्यतेव हृदयं न चैनं किंचिदब्रवीत् ।। | 3-58-4a 3-58-4b |
ततः पुष्करमालोक्य नलः परममन्युमान्। `उवाच विद्यतेऽन्यच्च धनं मम नराधम ।। | 3-58-5a 3-58-5b |
षणरूपेण निक्षिप्य पुण्यश्लोकः सुदुर्मनाः। उत्तरीयं तथा वस्त्रं तस्याश्चाभरणानि च'। उन्सृज्य सर्वगात्रभ्यो भूषणानि सहायशाः ।। | 3-58-6a 3-58-6b 3-58-6c |
सुकवासा ह्यसंवीतः सुहृच्छोकविवर्धनः। निश्चक्राम ततोराजा त्यक्त्वा सुविपुलां श्रियम् ।। | 3-58-7a 3-58-7b |
दमयन्त्येकवस्त्राऽथ गच्छन्तं पृष्ठतोऽन्वगात्। स तया नगराभ्याशे त्रिरात्रं नैपधोऽवसत् ।। | 3-58-8a 3-58-8b |
पुष्करस्तु महाराज धोषयामास वै पुरे। नले यः सम्यगातिष्ठेत्स गच्छेद्वध्यतां मम ।। | 3-58-9a 3-58-9b |
पुष्करस्य तु वाक्येन तस्य विद्वेषणेन च। पौरा न तस्य सत्कारं कृतवन्तो युधिष्ठिर ।। | 3-58-10a 3-58-10b |
स तथा नगराभ्याशे सत्कारार्हो न सन्कृतः। त्रिरत्रमुषितो राजा जलमात्रेण वर्तयन् ।। | 3-58-11a 3-58-11b |
[पीड्यमानः क्षुधा तत्र फलमृलानि कर्पयन्। प्रातिष्ठत ततो राजा दमयन्ती तमन्वगात् ।।] | 3-58-12a 3-58-12b |
क्षुधया पीड्यमानम्तु नलो बहुतिथेऽहनि। अपश्यच्छकुनान्कांश्चिद्धिरण्यसदृशच्छदान् ।। | 3-58-13a 3-58-13b |
स चिन्तयामास तदा निषधाधिपतिर्बली। अस्ति भक्ष्यो ममाद्यापि वसु चेदं भविष्यति ।। | 3-58-14a 3-58-14b |
ततस्तानन्तरीयेण वाससा स समावृणोत्। तस्य तद्वस्त्रमादाय सर्वे जग्मुर्विहायसा ।। | 3-58-15a 3-58-15b |
उत्पतन्तः खगा वाक्यमेतदाहुस्ततो नलम्। दृष्ट्वा दिग्वाससं भूमौ स्थितं दीनमधोमुखम् ।। | 3-58-16a 3-58-16b |
वयमक्षाः सुदुर्बुद्धे तववासो जिहीर्षवः। आगता न हि नः प्रीतिः सवाससि गते त्वयि ।। | 3-58-17a 3-58-17b |
नान्समीक्ष्य गतानक्षानात्मानं च विवाससम्। पुण्यश्लोकस्तदा राजा दमयन्तीमथाब्रवीत् ।। | 3-58-18a 3-58-18b |
येषां प्रकोपादैश्वर्यान्प्रच्युतोऽहमनिन्दिते। प्राणयात्रां न विन्देयं दुःखितः क्षुधयाऽन्वितः ।। | 3-58-19a 3-58-19b |
येषां कृते न सत्कारमकुर्वन्मयि नैषधाः। इमे ते शकुना भूत्वा वासश्चाषहरन्ति मे ।। | 3-58-20a 3-58-20b |
वैषम्यं परमं प्राप्तो दुःखितो गतचेतनः। भर्ता तेऽहं निबोधेदं वचनं हितमात्मनः ।। | 3-58-21a 3-58-21b |
एते गच्छन्ति वहवः पन्थानो दिणापथम्। अवन्तीमृक्षवन्तं च समतिक्रम्य पर्वतम् ।। | 3-58-22a 3-58-22b |
एष विन्ध्यो महाशैलः पयोष्णी च समुद्रगा। आश्रमाश्च महर्षीणां बहुमूलफलान्विताः ।। | 3-58-23a 3-58-23b |
एष पन्था विदर्भाणामेष यास्यति कोसलान्। अतःपरं च देशोऽयं दक्षिणो दक्षिणापथः ।। | 3-58-24a 3-58-24b |
एतद्वाक्यं नलो राजा दमयन्तीं समाहितः। उवाचासकृदार्तो हि भैमीमुद्दिश्य भारत ।। | 3-58-25a 3-58-25b |
ततः सा वाष्पकलया वाचा दुःखेन कर्शिता। उवाच दमयन्ती तं नैषधं करुणं वचः ।। | 3-58-26a 3-58-26b |
उद्वेषते मे हृदयं सीदन्त्यङ्गानि सर्वशः। तव पार्थिव संकल्पं चिन्तयन्त्याः पुनः पुनः ।। | 3-58-27a 3-58-27b |
हृतराज्यं हृतद्रव्यं विवस्त्रं क्षुच्छ्रमान्वितम्। कथमुत्सृज्य गच्छेयमहं त्वां निर्जने वने ।। | 3-58-28a 3-58-28b |
श्रान्तस्य ते क्षुधार्तस्य चिन्तयानस्य तत्सुखम्। वने घोरे महाराज नाशयिष्याम्यहं क्लमम् ।। | 3-58-29a 3-58-29b |
न च भार्यासमं किंचिन्नरस्यार्तस्य भेषजम्। नित्यं हि सर्वदुःखेषु सत्यमेतद्व्रवीमि ते ।।* | 3-58-30a 3-58-30b |
नल उवाच। | 3-58-31x |
एवमेतद्यथाऽऽन्थ त्वं दमयन्ति सुमध्यमे। नास्ति बार्यासमं मित्रं नरस्यार्तस्य भेषजम् ।। | 3-58-31a 3-58-31b |
न चाहं त्यक्तुकामस्त्वां किमलं भीरु शङ्कसे। त्यजेयमहमात्मानं न चैव त्वामनिन्दिते ।। | 3-58-32a 3-58-32b |
दमयन्त्युवाच। | 3-58-33x |
यदि मां त्वं महाराज न विहातुमिहच्छसि। तत्किमर्थं विदर्भाणां पन्थाः समुपदिश्यते ।। | 3-58-33a 3-58-33b |
अवैमि चाहं नृपते न तु मां त्यक्तुमर्हसि। चेतसा त्वपकृष्टेन मां त्यजेथा महीपते ।। | 3-58-34a 3-58-34b |
पन्थानं हि ममाभीक्ष्णमाख्यासि च नरोत्तम। अतो निमित्तं शोकं मे वर्धयस्यमरोपम ।। | 3-58-35a 3-58-35b |
यदि चायमभिप्रायस्तव राजन्भविष्यति। सहितावेव गच्छावो विदर्भान्यदि मन्यसे ।। | 3-58-36a 3-58-36b |
विदर्भराजस्तत्र त्वां पूजयिष्यति मानद। तेन त्वं पूजितो राजन्सुखं वत्स्यसि नो गृहे ।। | 3-58-37a 3-58-37b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि अष्टपञ्चाशोऽध्यायः ।। 58 ।। |
3-58-2 प्रतिपाणः पणनीयं द्रव्यम् ।। 3-58- अपकृष्ठेन कलिकर्पितन ।।
3-58-30 न च भार्यासमं किंचिद् विद्यते भिषजां मतम्।
ओषधं सर्वदुःखेषु सत्यमेतद् ब्रवीमि ते।।३.६१.२९।।
आरण्यकपर्व-057 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-059 |