महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-041
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यमवरुणकुबेरैरर्जुनायास्त्रदानम् ।। 1 ।।
अर्जुनंप्रति शक्रेण स्वर्गागमनचोदना ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-41-1x |
तस्य संपश्यतस्त्वेव पिनाकी गोवृषध्वजः। जगामादर्शनं भानुर्लोकस्येवास्तमीयिवान् ।। | 3-41-1a 3-41-1b |
ततोऽर्जुनः परं चक्रे विस्मयं परवीरहा। मया साक्षान्महादेवो दृष्ट इत्येव भारत ।। | 3-41-2a 3-41-2b |
धन्योस्म्यनुगृहीतोस्मि यन्मया त्र्यम्बको हरः। पिनाकी वरदो रूपी दृष्टः स्पृष्टश्ट पाणिना ।। | 3-41-3a 3-41-3b |
कृतार्थं चावगच्छामि परमात्मानमात्मना। शत्रूंश्च विजितान्सर्वान्निर्वृत्तं च प्रयोजनम् ।। | 3-41-4a 3-41-4b |
इत्येवं चिन्तयानस्य पार्थस्यामिततेजसः। ततो वैडूर्यवर्णाभो भासयन्सर्वतो दिशः। यादोगणवृतः श्रीमानाजगाम जलेश्वरः ।। | 3-41-5a 3-41-5b 3-41-5c |
नागैर्नदैर्नदीभिश्च दैत्यैः साध्यैर्मरुद्गणैः। वरुणो यादसांभर्ता वशी तं देशमागमत् ।। | 3-41-6a 3-41-6b |
अथ जाम्बूनदवपुर्विमानेन महार्चिषा। कुबेरः समनुप्राप्तो यक्षैरनुगतः प्रभुः ।। | 3-41-7a 3-41-7b |
विद्योतयन्निवाकाशमद्भुतोपमदर्शनः। धनानामधिपः श्रीमानर्जुनं द्रष्टुमागतः ।। | 3-41-8a 3-41-8b |
तथा लोकान्तकः श्रीमान्यमः साक्षात्प्रतापवान्। मर्त्यमूर्तिधरैः सार्धं पितृभिर्लोकभावनैः ।। | 3-41-9a 3-41-9b |
दण्डपाणिरचिन्त्यात्मा सर्वभूतविनाशकृत्। वैवस्वतो धर्मराजो विमानेनावभासयन् ।। | 3-41-10a 3-41-10b |
त्रील्लोकान्गुह्यकांश्चैव गन्धर्वाश्चैव पन्नगान्। द्वितीय इव मार्ताण्डो युगान्ते समुपस्थिते ।। | 3-41-11a 3-41-11b |
भानुमन्ति विचित्राणि शिखराणि महागिरेः। समास्थायार्जुनं तत्रददृशुस्तपसान्वितम् ।। | 3-41-12a 3-41-12b |
ततो मुहूर्ताद्भगवानैरावतशिरोगतः। आजगाम सहेन्द्राण्या शक्रः सुरगणैर्वृतः ।। | 3-41-13a 3-41-13b |
पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि। शुशुभे नागराजस्थः सितमभ्रमिव स्थितः ।। | 3-41-14a 3-41-14b |
संस्तूयमानो गन्धर्वैर्ऋषिभिश्च तपोधनैः। शृङ्गं गिरेः समासाद्य तस्थौ सूर्य इवोदितः ।। | 3-41-15a 3-41-15b |
अथ मेघस्वनो धीमान्व्याजहार शुभां गिरम्। यमऋ परमधर्मज्ञो दक्षिणां दिशमास्थितः ।। | 3-41-16a 3-41-16b |
अर्जुनार्जुन पश्यास्माँल्लोकपालान्समागतान्। दृष्टिं ते वितरामोऽद्य भवानर्हति दर्शनम् ।। | 3-41-17a 3-41-17b |
पूर्वर्षिरमितात्मा त्वं नरो नाम महाबलः। नियोगाद्ब्रह्मणस्तात मर्त्यतां समुपागतः ।। | 3-41-18a 3-41-18b |
त्वया च वसुसंभूतो महावीर्यः पितामहः। भीष्मः परमधर्मात्मा जेतव्यश्च रणेऽनघ ।। | 3-41-19a 3-41-19b |
क्षत्रं चाग्निसमस्पर्शं भारद्वाजेन रक्षितम्। निवातकवचाश्चैव संसाध्याः कुरुनन्दन ।। | 3-41-20a 3-41-20b |
पितुर्ममांशो देवस्य सर्वलोकप्रतापिनः। कर्णश्व सुमहावीर्यस्त्वया वध्यो धनंजय ।। | 3-41-21a 3-41-21b |
अंशाश्च क्षितिसंप्राप्ता देवगन्धर्वरक्षसाम्। त्वया निपातिता युद्धेस्वकर्मफलनिर्जिताम्। गतिं प्राप्स्यन्ति कौन्तेय यथास्वमरिकर्शन ।। | 3-41-22a 3-41-22b 3-41-22c |
अक्षया तव कीर्तिश्च लोके स्थासय्ति फल्गुन। त्वया साक्षान्महादेवस्तोषितो हि महामृधे ।। | 3-41-23a 3-41-23b |
लघ्वी वसुमती चापि कर्तव्या विष्णुना सह ।। | 3-41-24a |
गृहाणास्त्रं महाबाहो दण्डमप्रतिवारणम्। अनेनास्त्रेण सुमहत्त्वं हि कर्म करिष्यसि ।। | 3-41-25a 3-41-25b |
वैशंपायन उवाच। | 3-41-26x |
प्रतिजग्राह पार्थोपि विधिवत्कुरुनन्दनः। समन्त्रं सोपरोधं च समोक्षविनिवर्तनम् ।। | 3-41-26a 3-41-26b |
ततो जलधरश्यामो वरुणो यादसांपतिः। पश्चिमां दिशमास्थाय गिरमुच्चारयन्प्रभुः ।। | 3-41-27a 3-41-27b |
पार्थ क्षत्रियमुख्यस्त्वं क्षत्रधर्मे व्यवस्थितः। पश्य मां पृथुताम्राक्ष वरुणोस्मि जलेश्वरः ।। | 3-41-28a 3-41-28b |
मया समुद्यतान्पाशान्वारुणाननिवारितान्। प्रतिगृह्णीष्व कौन्तेय सहरहस्यनिवर्तनान् ।। | 3-41-29a 3-41-29b |
एभिस्तदा मया वीर संग्रामे तारकामये। दैतेयानां सहस्राणि संयतानि महात्मनाम् ।। | 3-41-30a 3-41-30b |
तस्मादिमान्महासत्व मत्प्रसादसमुत्थितान्। गृहाण न हि ते मुच्येदन्तकोप्याततायिनः ।। | 3-41-31a 3-41-31b |
अनेन त्वं यदाऽस्त्रेण संग्रामे विचरिष्यसि। तदा निःक्षत्रिया भूमिर्भविष्यति न संशयः ।। | 3-41-32a 3-41-32b |
`ततस्तान्वारुणानस्त्रान्दिव्यानस्त्रविदांवरः। प्रतिजग्राह विधिवद्वरुणाद्वासविस्तदा ।।' | 3-41-33a 3-41-33b |
ततः कैलासनिलयो धनाध्यक्षोऽभ्यभापत। दत्तेष्वस्त्रेषु दिव्येषु वरुणेन यमेन च ।। | 3-41-34a 3-41-34b |
प्रीतोऽहमपि ते प्राज्ञ पाण्डवेय महाहल। त्वया सह समागम्य अजितेन तथैव च ।। | 3-41-35a 3-41-35b |
सव्यसाचिन्महाबाहो पूर्वदेव सनातन। सहास्माभिर्भवाञ्श्रान्तः पुराकल्पेषु नित्यशः ।। | 3-41-36a 3-41-36b |
दर्शनं ते त्विदं दिव्यं प्रदिशामि नरर्षभ। अमानुषान्महाबाहो दुर्जयानपि जेष्यसि ।। | 3-41-37a 3-41-37b |
मत्तश्चैव भवानाशु गृह्णात्वस्त्रमनुत्तमम्। अनेन त्वमनीकानि धार्तराष्ट्रस्य धक्ष्यसि ।। | 3-41-38a 3-41-38b |
मत्तोऽपि त्वं गृहाणास्त्रमन्तर्धानं प्रियं भम। ओजस्तेजोद्युतिकरं प्रस्वापनमरातिनुत् ।। | 3-41-39a 3-41-39b |
महात्मना शंकरेण त्रिपुरं निहतं यादा। तदैतदस्त्रं निर्मुक्तं येन दग्धा महासुराः ।। | 3-41-40a 3-41-40b |
त्वदर्थमुद्यतं चेदं मया सत्यपराक्रम। त्वमर्हो धारणे चास्य मेरुप्रतिमगौरव। | 3-41-41a 3-41-41b |
ततोऽर्जुनो महाबाहुर्विधिवत्कुरुनन्दनः। कौबेरमधिजग्राह दिव्यमस्त्रं महाबलः ।। | 3-41-42a 3-41-42b |
ततोऽब्रवीद्देवराजः पार्थमक्लिष्टकारिणम्। सान्त्वयञ्श्लक्ष्णयावाचादिव्यदुन्दुभिनिःस्वनः ।। | 3-41-43a 3-41-43b |
कुन्तीमातर्महाबाहो त्वमीशानः पुरातनः। परां सिद्धिमनुप्राप्तः साक्षाद्देवगतिं गतः ।। | 3-41-44a 3-41-44b |
देवकार्यं तु सुमहत्त्वया कार्यमरिंदम। आरोढव्यस्त्वया स्वर्गः सज्जीभव महाद्युते ।। | 3-41-45a 3-41-45b |
रथो मातलिसंयुक्त आगतस्त्वत्कृते मम। तत्र तेऽहंप्रदास्यामि सर्वाण्यस्त्राणि कौरव ।। | 3-41-46a 3-41-46b |
तान्दृष्ट्वा लोकपालांस्तु समेतान्गिरिमूर्धनि। जगाम विस्मयं धीमान्कुन्तीपुत्रो धनंजयः ।। | 3-41-47a 3-41-47b |
ततोऽर्जुनो महातेजा लोकपालान्समागतान्। पूजयामास विधिवद्वाग्भिरद्भिः फलैरपि ।। | 3-41-48a 3-41-48b |
ततः प्रतिययुर्देवाः प्रतिपूज्य धनंजयम्। यथागतेन विबुधाः सर्वे कामं मनोजवाः ।। | 3-41-49a 3-41-49b |
ततो ऽर्जुनो मुदं लेभे लब्धास्त्रः पुरुषर्पभः। कृतार्थमथ चात्मानं स मेने पूर्णमानसम् ।। | 3-41-50a 3-41-50b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि कैरातपर्वणि एकचत्वारिंशोऽध्यायः ।। 40 ।। |
टिप्पणी
[सम्पाद्यताम्]3-41-4 निर्वृत्तं निष्पन्नम् ।। 3-41-5 यादांसि जलजन्तवस्तेषां गणः ।। 3-41-6 नागैः सर्पैः ।। 3-41-12 भानुमन्ति दीप्तिमन्ति ।। 3-41-17 वितरामो यच्छामः ।। 3-41-20 संसाध्याः जेतव्याः ।। 3-41-21 मम पितुः सूर्यस्य ।। 3-41-23 मृधेसंप्रामे ।। 3-41-24 लध्वी भारशून्या ।। 3-41-30 संयतानि बद्धानि ।। 3-41-35 अजितेन कृष्णेन यथा तथैव प्रीतोस्मि ।। 3-41-36 पूर्वदेव नर ।। 3-41-41 उद्यतमुपस्थितम् .। 3-41-44 देवगतिं देवानां परायणत्वम् ।। 3-41-45 आगन्ता इति झ. पाठः। आगन्ता आयास्यतीत्यर्थः ।।
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