महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-248
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दुर्योधनेन मध्येमार्गं क्वचन रमणीये देशे सेनादिसंनिवेशनपूर्वकमवस्थानम् ।। 1 ।।
तत्रसमागतेन गन्धर्वकृते बन्धनमोचने अपरिजानता कर्णेन भ्रमात्तस्य गन्धर्वजेतृत्वेन रूपेण
जनमेजय उवाच। | 3-248-1x |
शत्रुभिर्जितबद्धस् पाण्डवैश्च महात्मभिः। मोक्षितस्य युधा पश्चान्मानिनः सुदुरात्मनः ।। | 3-248-1a 3-248-1b |
कत्थनस्यावलिप्तस्य गर्वितस् च नित्यशः। सदा च पौरुषौदार्यैः पाण्डवानवमन्यतः ।। | 3-248-2a 3-248-2b |
दुर्योधनस् पापस्य नित्याहंकारवादिनः। प्रवेशो हास्तिनपुरे दुष्करः प्रतिभाति मे ।। | 3-248-3a 3-248-3b |
तस्य लज्जानवितस्यैव शोकव्याकुलचेतसः। प्रवेशं विस्तरेण रत्वं वैशंपायन कीर्तय ।। | 3-248-4a 3-248-4b |
वैशंपायन उवाच। | 3-248-5x |
धर्मराजनिसृष्स्तु धार्तराष्ट्रः सुयोधनः। लज्जयाऽधोमुखः सीदन्नुपासर्पत्सुदुःखितः ।। | 3-248-5a 3-248-5b |
स्वपुरं प्रययौ राजा चतुरङ्गबलानुगः। शोकोदहतया बुद्ध्या चिन्तयानः पराभवम् ।। | 3-248-6a 3-248-6b |
विमुच्य पथि यानानि देशे सुयवसोदके। सन्निविष्टः शुभे रम्ये भूमिभागे यथेप्सितम्। हस्त्यश्वरथपादातं यथास्थानं न्यवेशयत् ।। | 3-248-7a 3-248-7b 3-248-7c |
अथोपविष्टं राजानं पर्यङ्के ज्वलनप्रभे। उपप्लुतं यथा सोमं राहुणा रात्रिसंक्षये। उपागम्याब्रवीत्कर्णो दुर्योधनमिदं तदा ।। | 3-248-8a 3-248-8b 3-248-8c |
दिष्ट्या जीवसि गान्धारे दिष्ठ्या नः संगमः पुनः। दिष्ट्या त्वया जिताश्चैव गन्धर्वाः कामरूपिणः ।। | 3-248-9a 3-248-9b |
दिष्ट्या समग्रान्पश्यामि भ्रातॄस्ते कुरुनन्दन। विजिगीषून्रणे युक्तान्निर्जितारीन्महारथान् ।। | 3-248-10a 3-248-10b |
अहं त्वभिद्रुतः सर्वैर्गन्धर्वैः पश्यतस्व। नाशक्नुवं स्थापयितुं दीर्यमाणां च वाहिनीम्। शरक्षताङ्गश्च भृशं व्यपयातोऽभिपीडितः ।। | 3-248-11a 3-248-11b 3-248-11c |
इदं त्वत्यद्भुतं मन्ये यद्युष्मानिह भारत। अरिष्टानक्षसांश्चापि सदारबलवाहनान्। विमुक्तान्संप्रपश्यामि युद्धात्तस्मादमानुषात् ।। | 3-248-12a 3-248-12b 3-248-12c |
नैतस्य कर्ता लोकेऽस्मिन्पुमान्विद्यति भारत। यत्कृतं ते महाराज सह भ्रातृभिराहवे ।। | 3-248-13a 3-248-13b |
एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा। उवाचावाक्शिरा राजन्बाष्पगद्गदया गिरा ।। राजानं मोचयामासुर्बद्धं निगडबन्धनैः ।। | 3-248-14a 3-248-14b 3-247-15b |
3-248-2 कत्थनस्यात्मस्तुतिपरस्य ।।
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