महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-206
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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बृहदश्वेनोदङ्कंप्रति स्वपुत्रेण कुवलाश्वेन धुन्धुवधस्य भावित्वकथनपूर्वकं वनंप्रति गमनम् ।। 1 ।। धुन्धूत्पत्तिं पृष्टेन मार्कण्डेयेन युधिष्ठिरंप्रति तदुपोद्धाततया मधुकैटभवृत्तान्तकथनम् ।। 2 ।।
मार्कण्डेय उवाच। | 3-206-1x |
स एवमुक्तो राजर्षिरुदङ्केनापराजितः। उदङ्कं कौरवश्रेष्ठ कृताञ्जलिथाब्रवीत् ।। | 3-206-1a 3-206-1b |
न हि मे गमनं ब्रह्मन्मोघमेतद्भविष्यति। पुत्रो ममायं भगवन्कुवलाश्व इति स्मृतः ।। | 3-206-2a 3-206-2b |
धृतिमान्क्षिप्रकारी च वीर्येणाप्रतिमो भुवि। प्रियं च ते सर्वमेतत्करिष्यति न संशयः ।। | 3-206-3a 3-206-3b |
पुत्रैः परिवृतः सर्वैः शूरैः परिघबाहुभिः। `हनिष्यति महाबाहुस्तं वै धुन्धुं महाऽसुरम्'। विसर्जयस्व मां ब्रह्मन्न्यस्तशस्त्रोस्मि सांप्रतम् ।। | 3-206-4a 3-206-4b 3-206-4c |
तथाऽस्त्विति च तेनोक्तो मुनिनाऽमिततेजसा। स तमादिश्य तनयमुदङ्काय महात्मने। क्रियतामिति राजर्षिर्जगाम वनमुत्तमम् ।। | 3-206-5a 3-206-5b 3-206-5c |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-206-6x |
क एष भगवन्दैत्यो महावीर्यस्तपोधन। कस्य पुत्रोऽथ नप्ता वा एतदिच्छामि वेदितुम् ।। | 3-206-6a 3-206-6b |
एवं महाबलो दैत्यो न श्रुतो मे तपोधन। `यस्य निश्वासवातेन कम्पते भूः सपर्वता' ।। | 3-206-7a 3-206-7b |
एतदिच्छामि भगवन्याथातथ्येन वेदितुम्। सर्वमेव महाप्राज्ञ विस्तरेण तपोधन ।। | 3-206-8a 3-206-8b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-206-9x |
शृणु राजननिदं सर्वं यथावृत्तं नराधिप। कथ्यमानं महाप्राज्ञ विस्तरेण यथातथम् ।। | 3-206-9a 3-206-9b |
एकार्णवे निरालोके नष्टे स्थावरजङ्गमे। प्रनष्टेषु च भूतेषु सर्वेषु भरतर्षभ ।। | 3-206-10a 3-206-10b |
प्रभवं लोककर्तारं विष्णुं शाश्वतमव्ययम्। यमाहुर्मुनयः सिद्धाः सर्वलोकमहेश्वरम्। `चतुर्भुजमुदाराङ्गं दृष्टवानस्मि भारत' ।। | 3-206-11a 3-206-11b 3-206-11c |
सुष्वाप भगवान्विष्णुरप्शय्यामेक एव हि। नागस् भोगे महति शेपस्यामिततेजसः ।। | 3-206-12a 3-206-12b |
लोककर्ता महाभाग भगवानच्युतो हरिः। नागभगेन महता परिरभ्य महीमिमाम् ।। | 3-206-13a 3-206-13b |
स्वपतस्तस्य देवस्य पद्मं सूर्यसमप्रभम्। नाभ्या विनिःसृतं दिव्यं तत्रोत्पन्नः पितामहः ।। | 3-206-14a 3-206-14b |
साक्षाल्लोकगुरुर्ब्रह्मा पद्मे सूर्यसमप्रभः। चतुर्वेदश्चतुर्मूर्तिश्चतुर्वर्गश्चतुर्मुखः ।। | 3-206-15a 3-206-15b |
स्वप्रभावाद्दुराधर्षो महाबलपराक्रमः। कस्यचित्त्वथ कालस्य दानवौ वीर्यवत्तमौ ।। | 3-206-16a 3-206-16b |
मधुश्च कैटभश्चैव दृष्टवन्तौ हरिं प्रभुम्। शयानं शयने दिव्ये नागभोगे महाद्युतिम् ।। | 3-206-17a 3-206-17b |
बहुयोजनविस्तीर्णे बहुयोजनमायते। किरीटकौस्तुभधरं पीतकौशेयवाससम् ।। | 3-206-18a 3-206-18b |
दीप्यमानं श्रिया राजंस्तेजसा वपुपा तथा। सहस्रसूर्यप्रतिममद्भुतोपमदर्शनम् ।। | 3-206-19a 3-206-19b |
विस्मय सुमहानासीन्मधुकैटभयोस्तदा ।। | 3-206-20a |
दृष्ट्वा पितामहं चापि पद्मे पद्मनिभेक्षणम्। वित्रासयेतामथ तौ ब्रह्माणममितौजसम् ।। | 3-206-21a 3-206-21b |
वित्रास्यमानो बहुधा ब्रह्मा ताभ्यां महायशाः। अकम्पयत्पद्मनालं ततोऽबुध्यत केशवः ।। | 3-206-22a 3-206-22b |
अथापश्त गोविन्दो दानवौ वीर्यवत्तरौ ।। | 3-206-23a |
दृष्ट्वा तावब्रवीद्देवः स्वागतं वां महाबलौ। ददामि वां वरं श्रेष्ठं रप्रीतिर्हि मम जायते ।। | 3-206-24a 3-206-24b |
तौ प्रहस्य हृषीकेशं महादर्पौ महाबलौ। प्रत्यब्रूतां महाराज सहितौ मधुसूदनम् ।। | 3-206-25a 3-206-25b |
आवां वरय देव त्वं वरदौ स्वः सुरोत्तम। दातारौ स्वो वरं तुभ्यं तद्ब्रवीह्यविचारयन् ।। | 3-206-26a 3-206-26b |
भगवानुवाच। | 3-206-27x |
प्रतिगृह्णे वरं वीरावीप्सितश्च वरो मम। युवां हि वीर्यसंपन्नौ न वामस्ति समः पुमान् ।। | 3-206-27a 3-206-27b |
वध्यत्वमुपगच्छेतां मम सत्यपराक्रमौ। एतदिच्छाम्यहं कामं प्राप्तुं लोकहिताय वै ।। | 3-206-28a 3-206-28b |
मधुकैटभावूचतुः। | 3-206-29x |
अनृतंनोक्तपूर्वं नौ स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा। सत्ये धर्मे च निरतौ विद्ध्यावां पुरुषोत्तम ।। | 3-206-29a 3-206-29b |
बले रूपे च शौर्ये च शमे न च समोस्ति नौ। धर्मे तपसि दाने च शीलसत्वदमेषु च ।। | 3-206-30a 3-206-30b |
उपप्लवो महानस्मानुपावर्तत केशव। उक्तं प्रतिकुरुष्व त्वं कालो हि दुरतिक्रमः ।। | 3-206-31a 3-206-31b |
आवामिच्छावहे देव कृतमेकं त्वया विभो। आनावृतेऽवकाशे त्वं जह्यावां सुरसत्तम ।। | 3-206-32a 3-206-32b |
पुत्रत्वमधिगच्छाव तव चापि सुलोचन। वर एष वृतोदेव तद्विद्धि सुरसत्तम ।। | 3-206-33a 3-206-33b |
अनृतं मा भवेद्देव यद्धि नौ संश्रुतं तदा ।। | 3-206-34a |
भगवानुवाच। | 3-206-35x |
बाढमेवं करिष्यामि सर्वमेतद्भविष्यति ।। | 3-206-35a |
सविचिन्त्याथ गोविन्दो नापश्यद्यदनावृतम्। अवकाशंपृथिव्यां वा दिवि वा मधुसूदनः ।। | 3-206-36a 3-206-36b |
स्वकावनावृतावूरू दृष्ट्वा देववरस्तदा। मधुकैटभयो राजञ्शिरसी मधुसूदनः। चक्रेण शितधारेण न्यकृन्तत महायशाः ।। | 3-206-37a 3-206-37b 3-206-37c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि षडधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 206 |
[सम्पाद्यताम्]
3-206-9 न तेऽभिगमनं इति झ. पाठः ।।
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