महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-229
दिखावट
← आरण्यकपर्व-228 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-229 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-230 → |
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
मार्कण्डेयेन युधिष्ठिरंप्रति स्कन्दचरित्रप्रतिपादनम् ।। 1 ।। इन्द्रेण स्कन्दस्य देवसैनापत्येऽभिषेचनम् ।। 2 ।। स्कन्देनेन्द्रप्रार्थनया देवसेनाया उद्वहनम् ।। 3 ।।
मार्कण्डेय उवाच। | 3-229-1x |
ततः प्रकल्प्य पुत्रत्वे स्कन्दं मातृगणोऽगमत्। काकी च हलिमा चैव माता चाथ हली तथा। आर्या बाला च धात्री च सप्तैता शिशुमातरः ।। | 3-229-1a 3-229-1b 3-229-1c |
एतासां वीर्यसंपन्नः शिशुर्नामातिदारुणः। स्कन्दप्रसादजः पुत्रो लोहिताक्षो भयंकरः ।। | 3-229-2a 3-229-2b |
एष वीरोऽष्टमः प्रोक्तः स्कन्दो मातृगणोद्भवः। छागवक्रेण सहितो नवमः परिकीर्त्यते ।। | 3-229-3a 3-229-3b |
षष्ठं छागमयं वक्रं स्कन्दस्यैवेति विद्धि तम्। षट्शिरोभ्यन्तरं राजन्नित्यं मातृगणार्चितम् ।। | 3-229-4a 3-229-4b |
षण्णां तु प्रवरं तस्य शीर्षाणामिह शब्द्यते। शक्तिं येनासृजद्दिव्यां भद्रशाख इति स्म ह ।। | 3-229-5a 3-229-5b |
इत्येतद्द्विविधाकारं वृत्तं शुक्लस्य पञ्चमीम्। तत्र युद्धं महाघोरं वृत्तं षष्ठ्यां जनाधिप ।। | 3-229-6a 3-229-6b |
उपविष्टं तु तं स्कन्दमामुक्तकवचस्रजम्। हिरण्यचूडमुकुटं हिरण्यांक्षं महाप्रभम् ।। | 3-229-7a 3-229-7b |
लोहिताम्बरसंवीतं तीक्ष्णदंष्ट्रं मनोरमम्। सर्वलक्षणसंपन्नं त्रैलोक्यस्यापि सुप्रियम् ।। | 3-229-8a 3-229-8b |
ततस्तं वरदं शूरं युवानं मृष्टकुण्डलम्। अभजत्पद्मरूपा श्रीः स्वयमेव शरीरिणी ।। | 3-229-9a 3-229-9b |
श्रिया जुष्टः पृथुयशाः स कुमारो वरस्तदा। निषण्णो दृश्यते भूतैः पौर्णमास्यां यथा शशी ।। | 3-229-10a 3-229-10b |
अपूजयन्महात्मानो ब्राह्मणास्तं महाबलम् ।। | 3-229-11a |
इदमाहुस्तदा चैव स्कन्दं तत्र महर्षयः ।। | 3-229-12a |
हिरण्यवर्ण भद्रं ते लोकानां शंकरो भव। त्वया षड्रात्रजातेन सर्वे लोका वशीकृताः ।। | 3-229-13a 3-229-13b |
अभयंच पुनर्दत्तं त्वयैवैषां सुरोत्तम। तस्मादिन्द्रो भवानस्तु त्रैलोक्यस्याभयंकरः ।। | 3-229-14a 3-229-14b |
स्कन्द उवाच। | 3-229-15x |
किमिन्द्रः सर्वलोकानां करोतीह तपोधनाः। कथं देवगणांश्चैव पाति नित्यं सुरेश्वरः ।। | 3-229-15a 3-229-15b |
ऋषय ऊचुः। | 3-229-16x |
इन्द्रो दधाति भूतानां बलं तेजः प्रजाः सुखम्। तुष्टः प्रयच्छति तथा सर्वान्कामान्सुरेश्वरः ।। | 3-229-16a 3-229-16b |
दुर्वृत्तानां संहरति व्रतस्थानां प्रयच्छति। अनुशास्ति च भूतानि कार्येषु बलसूदनः ।। | 3-229-17a 3-229-17b |
असूर्ये च भवेत्सूर्यस्तथाऽचनद्रे च चन्द्रमाः। भवत्यग्निश्च वायुश्च पृथिव्यापश्च स्वं तथा ।। | 3-229-18a 3-229-18b |
एतदिन्द्रेण कर्तव्यमिन्द्रे हि विपुलं बलम्। त्वं च वीर बली श्रेष्ठस्तस्मादिन्द्रो भवस्व न ।। | 3-229-19a 3-229-19b |
शक्र उवाच। | 3-229-20x |
भवस्वेन्द्रो महाबाहो सर्वेषां नः सुखावहः। अभिषिच्यस्व चैवाद्य प्राप्तरूपोऽसि सत्तम ।। | 3-229-20a 3-229-20b |
स्कन्द उवाच। | 3-229-21x |
शाधि त्वमेव त्रैलोक्यमव्याग्रे निजये रतः। अहं ते किंकरः शक्र न ममेन्द्रत्वमीप्सितम् ।। | 3-229-21a 3-229-21b |
शक्र उवाच। | 3-229-22x |
बलंतवाद्भुतं वीर त्वं देवानामरीञ्जहि। अवज्ञास्यन्ति मां लोका वीर्यण तव विस्मिताः ।। | 3-229-22a 3-229-22b |
इन्द्रत्वे तु स्थितं वीर बलहीनं पराजितम्। `त्वत्तेजसाऽवमंस्यन्ति लोका मां सुरसत्तम' ।। | 3-229-23a 3-229-23b |
आवयोश्च मिथो भेदे प्रयतिष्यन्त्यतन्द्रिताः। भेदिते च त्वयि विभो लोको द्वैधमुपेष्यति ।। | 3-229-24a 3-229-24b |
द्विधाभूतेषु लोकेषु निश्चितेष्वावयोस्तथा। विग्रहः संप्रवर्तेत भूतभेदान्महाबल ।। | 3-229-25a 3-229-25b |
तत्र त्वं मां रणे तात यथाश्रद्धं विजेष्यसि। तस्मादिन्द्रो भवानेव भविता मा विचारय ।। | 3-229-26a 3-229-26b |
स्कन्द उवाच। | 3-229-27x |
त्वमेव राजा भद्रं ते त्रैलोक्यस्य ममैव च। करोमि किं च तेशक्र शासनात्तद्ब्रवीहि मे ।। | 3-229-27a 3-229-27b |
इन्द्र उवाच। | 3-229-28x |
अहमिन्द्रो भविष्यामि तव वाक्यान्महाबल। यदि सत्यमिदं वाक्यं निश्चयाद्भाषितं त्वया ।। | 3-229-28a 3-229-28b |
यदि वा शासनं स्कन्द कर्तुमिच्छसि मे शृणु। अभिषिच्यस्व देवानां सैनापत्ये महाबल ।। | 3-229-29a 3-229-29b |
स्कन्द उवाच। | 3-229-30x |
दानवानां विनाशाय देवानामर्थसिद्धये। गोब्राह्मणहितार्थाय सैनापत्येऽभिषिञ्च माम् ।। | 3-229-30a 3-229-30b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-229-31x |
सोऽभिषिक्तो मघवता सर्वैर्देवगणैः सह। अतीव शुशुभे तत्र पूज्यमानो महर्षिभिः ।। | 3-229-31a 3-229-31b |
तत्र तत्काञ्चनं छत्रं ध्रियमाणं व्यरोचत। तथैव सुसमिद्धस्य पावकस्यात्ममण्डलम् ।। | 3-229-32a 3-229-32b |
विश्वकर्मकृता चास्य दिव्या माला हिरण्मयी। आबद्धा त्रिपुरघ्नेन स्वयमेव यशस्विना ।। | 3-229-33a 3-229-33b |
आगम्य मनुजव्याघ्र सह देव्या परंतप। अर्चयामास सुप्रीतो भगवान्गोवृषध्वजः ।। | 3-229-34a 3-229-34b |
रुद्रमग्निं द्विजाः प्राहू रुद्रसूनुस्ततस्तु सः। `कीर्त्यते सुमहातेजाः कुमारोऽद्भुतदर्शनः' ।। | 3-229-35a 3-229-35b |
रुद्रेण शुक्रमुत्सृष्टं तच्छ्वेतः पर्वतोऽभवत्। पावकस्येनद्रियं श्वेते कृत्तिकाभिः कृतं नगे ।। | 3-229-36a 3-229-36b |
पूज्यमानं तु रुद्रेण दृष्ट्वा सर्वेदिवौकसः। रुद्रसूनुं ततः प्राहुर्गुहं गुणवतांवरम् ।। | 3-229-37a 3-229-37b |
अनुप्रविश्य रुद्रेण वह्निं जातो ह्ययं शिशुः। तत्र जातस्ततः स्कन्दो रुद्रसूनुस्ततोऽभवत् ।। | 3-229-38a 3-229-38b |
रुद्रस्य वह्नेः स्वाहायाः षण्णां स्त्रीणां च तेजसा। जातः स्कन्दः सुरश्रेष्ठो रुद्रसूनुस्ततोऽभवत् ।। | 3-229-39a 3-229-39b |
अरजे वाससी रक्ते वसानः पावकात्मजः। भाति दीप्तवपुः श्रमान्रक्ताभ्राभ्यामिवांशुमान् ।। | 3-229-40a 3-229-40b |
कुक्कुटश्चाग्निना दत्तस्तस् केतुरलंकृतः। रथे समुच्छितो भाति कालाग्निरव लोहितः ।। | 3-229-41a 3-229-41b |
या चेष्टा सर्वभूतानां प्रभा शक्तिर्बलं तथा। अग्रतस्तस्य सा शक्तिर्देवानां जयवर्धनी ।। | 3-229-42a 3-229-42b |
विवेश कवचं चास्य शरीरं सहजं तथा। युध्यमानस्य देवस्य प्रादुर्भवति तत्सदा ।। | 3-229-43a 3-229-43b |
शक्तिर्धर्मो बलं तेजः कान्तत्वं सत्यमुन्नतिः। ब्रह्मण्यत्वमसंमोहो भक्तानां परिरक्षणम् ।। | 3-229-44a 3-229-44b |
निकृन्तनं च शत्रूणां लोकानां चाभिरक्षणम्। स्कन्देन सह जातानि सर्वाण्येव जनाधिप ।। | 3-229-45a 3-229-45b |
एवं देवगणैः सर्वैः सोऽभिषिक्तः स्वलंकृतः। बभौ प्रतीतः सुमनाः परिपूर्णेन्दुदर्शनः ।। | 3-229-46a 3-229-46b |
इष्टैः स्वाध्यायघोषैश्च देवतूर्यवरैरपि। देवगन्धर्वगीतैश्च सर्वैरप्सरसां गणैः ।। | 3-229-47a 3-229-47b |
एतैश्चान्यैश्च बहुभिस्तुष्टैर्हृष्टैः स्वलंकृतः। [सुसंवृतः पिशाचानां गणैर्देवगणैस्तथा।] क्रीडन्भाति तदा देवैरभिषिक्तश्च पावकिः ।। | 3-229-48a 3-229-48b 3-229-48c |
अभिषिक्तं महासेनमपश्यन्त दिवौकसः। विनिहत्य तमः सूर्यं यथैवाभ्युदितं तथा ।। | 3-229-49a 3-229-49b |
अथैनमभ्ययुः सर्वा देवसेनाः सहस्रशः। अस्माकं त्वं पतिरिति ब्रुवाणाः सर्वतो दिशः ।। | 3-229-50a 3-229-50b |
ताः समासाद्य भगवान्सर्वभूतगणैर्वृतः। अर्चितस्तु स्तुतश्चैव सान्त्वयामास ता अपि ।। | 3-229-51a 3-229-51b |
शतक्रतुश्चाभिषिच्य स्कन्दं सेनापतिं तदा। सस्मार तां देवसेनां या सा तेन विमोक्षिता ।। | 3-229-52a 3-229-52b |
अयं तस्याः पतिर्नूनं विहितो ब्रह्मणा स्वयम्। संचिन्त्य त्वानयामास देवसेनां ह्यलंकृताम् ।। | 3-229-53a 3-229-53b |
स्कन्दं प्रोवाच बलभिदियं कन्या सुरोत्तम। अजाते त्वयि निर्दिष्टा तव पत्नी स्वयंभुवा ।। | 3-229-54a 3-229-54b |
तस्मात्त्वमस्या विधिवत्पाणिं मन्त्रपुरस्कृतम्। गृहाण दक्षिणं देव्याः पाणिना पद्मवर्चसा ।। | 3-229-55a 3-229-55b |
एवमुक्तः स जग्राह तस्याः पाणिं यथाविधि। बृहस्पतिर्मन्त्रविद्धि जजाप च जुहाव च ।। | 3-229-56a 3-229-56b |
एवं स्कन्दस्य महिषीं देवसेनां विदुर्जनाः। षष्ठीं यां ब्राह्मणाः प्राहुर्लक्ष्मीमासां सुखप्रदाम् ।। | 3-229-57a 3-229-57b |
सिनीबालीं कुहूं चैव सद्वृत्तिमपराजिताम्। `इत्येवमादिभिर्देवी नामभिः परिकीर्त्यते' ।। | 3-229-58a 3-229-58b |
यदा स्कन्दः पतिर्लब्धः शाश्वतो देवसेनया। तदा तमाश्रयल्लक्ष्मीः स्वयं देवी शरीरिणी ।। | 3-229-59a 3-229-59b |
श्रीजुष्टः पञ्चमीस्कन्दस्तस्माच्छ्रीः पञ्चमी स्मृता। षष्ठ्यां कृतार्थोऽभूद्यस्थात्तस्मात्षष्ठी महातिधिः ।। | 3-229-60a 3-229-60b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि एकोनत्रिंशदधिद्विशततमोऽध्यायः ।। 229 ।। |
3-229-27 शसनं तद्द्रवीहि इति झ. पाठः ।। 3-229-35 रुद्रमग्निमिति। रुद्रो वा एष यदग्निरित श्रुतिविदो द्विजाः प्राहुः ।। 3-229-38 अनुप्रविश्य स्थितेनेति शेषः ।।
आरण्यकपर्व-228 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-230 |