महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-158
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विप्रवेषेण पाण्डवनिकटचिरवासिना जटासुरेण भीमासंनिधाने द्रौपदीसहितान्युधिष्ठिरादीनपहृत्य पलायनम् ।। 1 ।। मध्येमार्गं यदृच्छासमागतेन भीमन तस्य मारणम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-158-1x |
ततस्तान्परिविश्वस्तान्वसतस्तत्र पाण्डवान्। [पर्वतेन्द्रे द्विजैः सार्धं पार्तागमनकाङ्क्षया ।।] | 3-158-1a 3-158-1b |
गतेषु तेषु रक्षःसु भीमसेनात्मजेऽपि च। रहितान्मीमसेनेन कदाचित्तान्यदृच्छया। जहार धर्मराजं वै यमौ कृष्णां च राक्षसः ।। | 3-158-2a 3-158-2b 3-158-2c |
`जनमेजय उवाच। | 3-158-3x |
ब्रह्मन्कथं धर्मराजं यमौ कृष्णां च राक्षसः। जहार चित्रं भीमश्च गतो राक्षसकण्टकः। वक्तुमर्हसि विप्राग्र्य व्यक्तमेतन्ममाऽनघ ।। | 3-158-3a 3-158-3b 3-158-3c |
वैशंपायन उवाच।' | 3-158-4x |
ब्राह्मणो मन्त्रकुशलः सर्वास्त्रेष्वस्त्रवित्तमः। इति ब्रुवन्पाण्डवेयान्पर्युपास्ते स्म नित्यदा । परीप्समानः पार्थानां कलापांश्च धनूंषि च ।। | 3-158-4a 3-158-4b 3-158-4c |
अन्तरं संपरिप्रेप्सुर्द्रौपद्या हरणं प्रति। दुष्टात्मा पापबुद्धिः स नाम्ना ख्यातो जटासुरः ।। | 3-158-5a 3-158-5b |
[पोषणं तस् राजेनद्र चक्रे पाण्डवनन्दनः। बुबुधे न च तं पापं भस्मच्छन्नमिवानलम् ।। | 3-158-6a 3-158-6b |
स भीमसेने निष्क्रान्ते मृगयार्थमरिंदमे। [घटोत्कचं सानुचरं दृष्ट्वा विप्रद्रुतं दिशः ।। | 3-158-7a 3-158-7b |
लोमशप्रभृतींस्तांस्तु महर्षीश्च समाहितान्। स्नातुं विनिर्गतान्दृष्ट्वा पुष्पार्थं च तपोधनान्] ।। | 3-158-8a 3-158-8b |
रूपमन्यत्समास्थाय विकृतं भैरवं महत्। गृहीत्वा सर्वशस्त्राणि द्रौपदीं परिगृह्य च। प्रातिष्ठत सुदुष्टात्मा त्रीन्गृहीत्वा च पाण्डवान् ।। | 3-158-9a 3-158-9b 3-158-9c |
[विक्रम्य कौशिकं खङ्गं मोक्षयित्वा ग्रहं रिपोः।] आक्रन्दद्भीमसेन वै येन यातो महाबलः ।। | 3-158-10a 3-158-10b |
तमब्रवीद्धर्मराजो ह्रियमाणो युधिष्ठिरः। धर्मस्ते हीयते मूढ न चैनं समवेक्षसे ।। | 3-158-11a 3-158-11b |
येऽन्ये क्वचिन्मनुष्येषु तिर्यग्योनिगताश्च ये। धर्मं ते समवेक्षन्ते रक्षांसि च विशेषतः ।। | 3-158-12a 3-158-12b |
धर्मस्यराक्षसा मूलं धर्मं ते विदुरुत्तमम्। एतत्परीक्ष्यसर्वं त्वं समीपे स्थातुमर्हसि ।। | 3-158-13a 3-158-13b |
देवाश्च ऋषयः सिद्धाः पितरश्चापि राक्षस। गन्धर्वोरगरक्षांसि वयांसि पशवस्तथा ।। | 3-158-14a 3-158-14b |
तिर्यग्योनिगताश्चैव अपि कीटपिपीलिकाः। मनुष्यानुपजीवन्ति ततस्त्वमपि जीवसि ।। | 3-158-15a 3-158-15b |
समृद्ध्या यस्य लोकस्य लोको युष्माकमृध्यति। इमं च लोकं शोचन्तमनुशोचन्ति देवताः। पूज्यमानाश्च वर्धन्ते हव्यकव्यैर्यथाविधि ।। | 3-158-16a 3-158-16b 3-158-16c |
वयं राष्ट्रस्य गोप्तारो रक्षितारश्च राक्षस। राष्ट्रस्यारक्ष्यमाणस्य कुतो भूतिः कुतः सुखम् ।। | 3-158-17a 3-158-17b |
न च राजाऽवमन्तव्यो रक्षसा जात्वनागसि। अनुरप्यपचारश्च नास्त्यस्माकं नराशन ।। | 3-158-18a 3-158-18b |
विघसाशान्यथाशक्त्या कुर्महे देवतादिषु। गुरूंश्च ब्राह्मणांश्चैव प्रमाणप्रवणाः सदा ।। | 3-158-19a 3-158-19b |
द्रोग्धव्यं न च मित्रेषु न विश्वस्तेषु कर्हिचित्। येषां चान्नानि भुञ्जीत यत्रच स्यात्प्रतिश्रयः ।। | 3-158-20a 3-158-20b |
स त्वं प्रतिश्रयेऽस्माकं पूज्यमानः सुखोषितः। भुक्त्वा चान्नानि दुष्प्रज्ञ कथमस्माञ्जिहीर्षसि ।। | 3-158-21a 3-158-21b |
एवमेव वृथाचारो वृथा वृद्धो वृथामतिः। वृथामरणमर्हस्त्वं वृथाऽद्य नमविष्यसि ।। | 3-158-22a 3-158-22b |
अथ चेद्दुष्टबुद्धिस्त्वं सर्वैर्धर्मैर्विवर्जितः। प्रदाय शस्त्राण्यस्माकं युद्धेन द्रौपदीं हर ।। | 3-158-23a 3-158-23b |
अथ चेत्त्वमविज्ञाय इदं कर्म करिष्यसि। अधर्मं चाप्यकीर्तिं च लोके प्राप्स्यसि केवलं ।। | 3-158-24a 3-158-24b |
एतामद्य परामृश्य स्त्रियं राक्षस मानुषीम्। विषमेतत्समालोड्य कुम्भेन प्राशितं त्वया ।। | 3-158-25a 3-158-25b |
ततो युधिष्ठिरस्तस्य भारिकः समपद्यत। स तु भाराभिभूतात्मा न तथा शीघ्रगोऽभवत् ।। | 3-158-26a 3-158-26b |
अथाब्रवीद्द्रौपदीं च नकुलं च युधिष्ठिरः। मा भैष्टं राक्षसान्मूढाद्गतिरस्य मया हृता ।। | 3-158-27a 3-158-27b |
नातिदूरे महबाहुर्भविता पवनात्मजः। अस्मिन्मुहूर्ते संप्राप्ते नभविष्यति राक्षसः ।। | 3-158-28a 3-158-28b |
सहदेवस्तु तं दृष्ट्वा राक्षसं मूढचेतसम्। उवाच वचनं राजन्कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ।। | 3-158-29a 3-158-29b |
राजन्किं नाम सत्कृत्यं क्षत्रियस्यास्त्यतोऽधिकम्। यद्युद्धेऽभिमुखः प्राणांस्त्यजेच्छत्रुं जयेत वा ।। | 3-158-30a 3-158-30b |
एष वास्मान्वयं वैनं युध्यमानाः परंतप। सूदयेम महाबाहो देशः कालो ह्ययं नृप ।। | 3-158-31a 3-158-31b |
क्षत्रधर्मस्य संप्राप्तः कालः सत्यपराक्रम। जयन्तो हन्यमाना वा प्राप्तुमर्हाम सद्गतिम् ।। | 3-158-32a 3-158-32b |
राक्षसे जीवमानेऽद्य रविरस्तमियाद्यदि। नाहं ब्रूयां पुनर्जातु क्षत्रियोस्मीति भारत ।। | 3-158-33a 3-158-33b |
भोभो राक्षस तिष्ठस्व सहदेवोस्मि पाण्डवः। हत्वा रवा मां नयस्वैनां हतो वा स्वप्स्यसीह वै ।। | 3-158-34a 3-158-34b |
तदा ब्रुवति माद्रेये भीमसेनो यदृच्छया। प्रादृश्यत महाबाहुः सवज्र इव वासवः ।। | 3-158-35a 3-158-35b |
सोऽपश्यद्धातरौ तत्र द्रौपदीं च यशस्विनीम्। क्षितिस्थं सहदेवं च क्षिपन्तं राक्षसं तदा ।। | 3-158-36a 3-158-36b |
मार्गाच्च राक्षसं मूढं कालोपहतचेतसम्। भ्रमन्तं तत्रतत्रैव दैवेन परिमोहितम् ।। | 3-158-37a 3-158-37b |
हृतान्संदृश्य तान्भ्रातृन्द्रौपदीं च महाबलः। क्रोधमाहारयद्भीमो राक्षसंचेदमब्रवीत् ।। | 3-158-38a 3-158-38b |
विज्ञातोऽसि मया पूर्वं चेष्टञ्शस्त्रपरीक्षणे। आस्था तु त्वयि मे नास्ति यतोसि न हतस्तदा ।। | 3-158-39a 3-158-39b |
ब्रह्मरूपप्रतिच्छन्नो न नो वदसि चाप्रियम्। प्रियेषु रममाणं त्वां न चैवाप्रियकारिणम्। ब्रह्मरूपेण विहितं नैव हन्यामनागसम् ।। | 3-158-40a 3-158-40b 3-158-40c |
राक्षसं जानमानोऽपि यो हन्यान्नरकं व्रजेत्। अपक्वस्य च कालेन वधस्तव न विद्यते ।। | 3-158-41a 3-158-41b |
नूनमद्यासि संपक्वो यथा ते मतिरीदृशी। दत्ता कृष्णापहरणे कालेनाद्भुतकर्मणा। `सोपि कालं समासाद्य तथाऽद्य नभविष्यसि' ।। | 3-158-42a 3-158-42b 3-158-42c |
बडिशोऽयंत्वया ग्रस्तः कालसूत्रेण लम्बितः। मत्स्योऽम्भसीव स्यूतास्यः कथमद्य गमिष्यसि ।। | 3-158-43a 3-158-43b |
यं चासि प्रस्थितो देशं मनः पूर्वं गतं च ते। न तं गन्तासि गन्तासि मार्गं बकहिडिम्बयोः ।। | 3-158-44a 3-158-44b |
एवमुक्तस्तु भीमेन राक्षसः कालचोदितः। भीत उत्सृज्य तान्सर्वान्युद्धाय समुपस्थितः ।। | 3-158-45a 3-158-45b |
अब्रवीच्च पुनर्भीमं रोषात्प्रस्फुरिताधरः। न मे मूढा दिशः पाप त्वदर्थं मे विलम्बनम् ।। | 3-158-46a 3-158-46b |
श्रुता मे राक्षसा ये ये त्वया विनिहता रणे। तेषामद्यकरिष्यामि तवास्रेणोदकक्रियाम् ।। | 3-158-47a 3-158-47b |
`एवमुक्त्वातदा भीमं राक्षसो योद्धुमाययौ। करालवदनः क्रोधात्कालसर्प इव श्वसन्' ।। | 3-158-48a 3-158-48b |
एवमुक्तस्ततो भीमः सृक्विणी परिलेलिहन्। स्मयमान इव क्रोधात्साक्षात्कालान्तकोपमः ।। | 3-158-49a 3-158-49b |
`ब्रुवन्वै तिष्ठतिष्ठेति क्रोधसंरक्तलोचनः'। बाहुसंरम्भमेवेच्छन्नभिदुद्राव राक्षसम् ।। | 3-158-50a 3-158-50b |
मुहुर्मुहुर्व्याददानः सृक्विणी परिसंलिहन्।] अभिदुद्राव संरब्धो बलो वज्रधरं यथा ।। | 3-158-51a 3-158-51b |
भीमसेनोऽप्यवष्टब्धो नियुद्धायाभवत्स्थितः। राक्षसोऽपि च विस्रब्धो बाहुयुद्धमकाङ्क्षत' ।। | 3-158-52a 3-158-52b |
वर्तमाने तयो राजन्बाहुयुद्धे सुदारुणे। माद्रीपुत्रावतिक्रुद्धावुभावप्यभ्यधावताम् ।। | 3-158-53a 3-158-53b |
न्यवारयत्तौ प्रहसन्कुन्तीपुत्रो वृकोदरः। शक्तोऽहं राक्षसस्येति प्रेक्षध्वमिति चाब्रवीत् ।। | 3-158-54a 3-158-54b |
आत्मना भ्रातृभिश्चैव धर्मेण सुकृतेन च। इष्टेन च शपे राजन्सूदयिष्यामि राक्षसम् ।। | 3-158-55a 3-158-55b |
इत्येवमुक्त्वा तौ वीरौ स्पर्धमानौ परस्परम्। बाहुभिः समसज्जेतामुभौ रक्षोवृकोदरौ ।। | 3-158-56a 3-158-56b |
तयोरासीत्संप्रहारः क्रुद्धयोर्भीमरक्षसोः। अमृष्यमाणयोः सङ्ख्ये शक्रशम्बरयोरिव ।। | 3-158-57a 3-158-57b |
तौ वीरौ समभिक्रुद्धावन्योन्यं पर्यधावताम्। आरुज्यारुज्यतौ वृक्षानन्योन्यमभिजघ्नतुः। जीमूताविव धर्मान्ते विनदन्तौ महाबलौ ।। | 3-158-58a 3-158-58b 3-158-58c |
बभञ्जतुर्महावृक्षानूरुभिर्बलिनां वरौ। अन्योन्येनाभिसंरब्धौ परस्परवधैषिणौ ।। | 3-158-59a 3-158-59b |
तद्वृक्षयुद्धमभवनमहीरुहविनाशनम्। वालिसुग्रीवयोर्भ्रात्रोः पुरेव कपिसिंहयोः ।। | 3-158-60a 3-158-60b |
आविध्याविध्य तौ वृक्षान्मुहूर्तमितरेतरम्। ताडयामासतुरुभौ विनदन्तौ मुहुर्मुहुः ।। | 3-158-61a 3-158-61b |
तस्मिन्देशे यदा वृक्षाः सर्व एव निपातिताः। पुगीकृताश्च शतशः परस्परवधेप्सया ।। | 3-158-62a 3-158-62b |
ततः शिलाः समादाय मुहूर्तमिव भारत। महाभ्रैरिव शैलेन्द्रौ युयुधाते महाबलौ ।। | 3-158-63a 3-158-63b |
शिलाभिरुग्ररूपाभिर्बृहतीभिः परस्परम्। वज्रैरिव महावेगैराजघ्नतुरमर्षणौ ।। | 3-158-64a 3-158-64b |
अभिद्रुत्य च भूयस्तावन्योन्यबलदर्पितौ। भुजाभ्यां परिगृह्याथ चकर्षाते गजाविव ।। | 3-158-65a 3-158-65b |
मुष्टिभिश् महाघोरैरन्योन्यमभिपेततुः। ततः कटकटाशब्दो बभूव शुमहात्मनोः ।। | 3-158-66a 3-158-66b |
ततः संहृत्यमुष्टिं तु पञ्चशीर्षमिवोरगम्। वेगेनाभ्यहनद्भीमो राक्षसस्य शिरोधराम् ।। | 3-158-67a 3-158-67b |
ततः श्रान्तं तु तद्रक्षो भीमसेनभुजाहतम्। सुपरिभ्रान्तमालक्ष्य भीमसेनोऽभ्यवर्तत ।। | 3-158-68a 3-158-68b |
तत एनं महाबाहुर्बाहुभ्याममरोपमः। समुत्क्षिप्य बलाद्भीमो निष्पिपेष महीतले ।। | 3-158-69a 3-158-69b |
`ततः संपीड्य बलवद्भुजाभ्यां क्रोधमूर्च्छितः।' तस्य गात्राणि सर्वाणि चूर्णयामास पाण्डवः। अरत्निना चाभिहत्य शिरः कायादपाहरत् ।। | 3-158-70a 3-158-70b 3-158-70c |
संदष्टौष्ठं विवृत्ताक्षं फलं वृक्षादिव च्युतम्। जटासुरस्य तु शिरो भीमसेनबलाद्धृतम्। पपात रुधिरादिग्धं संदष्टदशनच्छदम् ।। | 3-158-71a 3-158-71b 3-158-71c |
तं निहत्यमहेष्वासो युधिष्ठिरमुपागमत्। स्तूयमानो द्विजाग्र्यैस्तु मरुद्भिरिव वासवः ।। | 3-158-72a 3-158-72b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि जटासुरवधपर्वणि अष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 158 ।। |
3-158-4 कलापान् निषङ्गान् ।। 3-158-10 कौशिकं कोशादागतम्। ग्रहं ग्रहणम् ।। 3-158-16 युष्माकं देवासुरादीनाम्। ऋध्यति वृद्धिं गच्छति ।। 3-158-19 विघसाशान् देवादिशेषान्नं विघसं तस्य आशो भोजनं येषां तान् ।। 3-158-20 प्रतिश्रयो गृहम् ।। 3-158-22 नभविष्यसि मरिष्यति ।। 3-158-26 गुरुकः समपद्यतेति झ. पाठः ।। 3-158-30 सत्कृत्यं साधुकार्यम् ।। 3-158-39 आस्था त्वन्मारणे आदरः ।। 3-158-40 अतिथि ब्रह्मरूपं च कथं इति झ. पाठः ।। 3-158-42 कालपक्व इदानीं त्वं यथेति थ. पाठः ।। 3-158-43 बडिशो मत्स्यवेधनम् ।। 3-158-47 अस्रेण लोहितेन ।। 3-158-60 पुरा स्त्रीकाङ्क्षिणोर्यथा इति झ. पाठः ।। 3-158-61 आविध्य भ्रामयित्वा ।। 3-158-62 मुञ्जीकृताश्चेति झ. पाठः। तत्र मुञ्जीकृताः रज्ज्वर्थं मुञ्जवज्जर्जरीकृता इत्यर्थः ।। 5-158-63 महाभ्रैरिवेत्यभूतोपमा ।। 3-158-67 शिरोधरां ग्रीवाम् ।। 3-158-68 अभ्यवर्तत अधिकोत्साह्वानभूत् ।।
आरण्यकपर्व-157 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-159 |