महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-191
← आरण्यकपर्व-190 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-191 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-192 → |
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
मार्कण्डेयेन युधिष्ठिरादीन्प्रति कृतादियुगचतुष्टयधर्मकथनपूर्वकं प्रलयवर्णनम् ।। 1 ।।
तथा प्रलयजले परिप्लवता मार्कण्डेयेन वटशाखाशायिनः शिशुरूपस्य हरेरुदरान्तःप्रविश्य ब्रह्माण्डदर्शनपूर्वकं पुनर्वहिर्निर्गमनम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-191-1x |
ततः स पुनरेवाथ मार्कण्डेयं तपस्विनम्। पप्रच्छ विनयोपेतो धर्मराजो युधिष्ठिरः ।। | 3-191-1a 3-191-1b |
नैके युगसहस्रान्तास्त्वया दृष्टा महामुने। न चापीह समः कश्चिदायुष्मान्दृश्यते तव ।। | 3-191-2a 3-191-2b |
वर्जयित्वा महात्मानं ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्। न तेऽस्ति सदृशः कश्चिदायुषा ब्रह्मसत्तम ।। | 3-191-3a 3-191-3b |
अथाऽन्तरिक्षे लोकेऽस्मिन्देवदानववर्जिते। त्वमेव प्रलये विप्र ब्रह्माणमुपतिष्ठसे ।। | 3-191-4a 3-191-4b |
प्रलये चापि निर्वृत्ते प्रबुद्धे च पितामहे। त्वमेकः सृज्यमानानि भूतानीह प्रपश्यसि ।। | 3-191-5a 3-191-5b |
चतुर्विधानि विप्रर्षे यथावत्परमेष्ठिना। वायुभूता दिशः कृत्वा विक्षिप्यापस्ततस्ततः ।। | 3-191-6a 3-191-6b |
त्वया लोकगुरुः साक्षात्सर्वलोकपितामहः। आराधितो द्विजश्रेष्ठ तत्परेण समाधिना ।। | 3-191-7a 3-191-7b |
स्वप्रमाणमथो विप्र त्वया कृतमनेकशः। घोरेणाविश्य तपसा वेधसो निर्जितास्त्वया ।। | 3-191-8a 3-191-8b |
नारायणाङ्कप्रख्यस्त्वं सांपरायेऽतिपठ्यसे ।। | 3-191-9a |
भगवाननेकशः कृत्वा त्वया विष्णोश्च विश्वकृत्। कर्णिकोद्धरणं दिव्यं ब्रह्मणः कामरूपिणः। रत्नालंकारयोगाभ्यां दृग्भ्यां दृष्टस्त्वया पुरा ।। | 3-191-10a 3-191-10b 3-191-10c |
तस्मात्तवान्तको मृत्युर्जरा वा देहनाशिनी। न त्वां विशति विप्रर्षे प्रसादात्परमेष्ठिनः ।। | 3-191-11a 3-191-11b |
यदा नैव रविर्नाग्निर्न वायुर्न च चन्द्रमाः। नैवान्तरिक्षं नैवोर्वी शेषं भवति किंचन ।। | 3-191-12a 3-191-12b |
तस्मिन्नेकार्णवे लोके नष्टे स्थावरजङ्गमे। नष्टे देवासुरगणे समुत्सन्नमहोरगे ।। | 3-191-13a 3-191-13b |
शयानममितात्मानं पद्मे पद्मनिकेतनम्। त्वमेकः सर्वभूतेशं ब्रह्माणमुपतिष्ठसि ।। | 3-191-14a 3-191-14b |
एतत्प्रत्यक्षतः सर्वं पूर्वं वृत्तं द्विजोत्तम। तस्मादिच्छाम्यहं श्रोतुं सर्वांहेत्वात्मिकां कथां ।। | 3-191-15a 3-191-15b |
अनुभूतं हि बहुशस्त्वयैकेन द्विजोत्तम। न तेऽस्त्यविदितं किंचित्सर्वलोकेषु नित्यदा ।। | 3-191-16a 3-191-16b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-191-17x |
हन्त ते कथयिष्यामि नमस्कृत्वा स्वयंभुवे। पुरुषाय पुराणाय शाश्वतायाव्ययाय च। अव्यक्ताय सुसूक्ष्माय निर्गुणाय गुणात्मने ।। | 3-191-17a 3-191-17b 3-191-17c |
य एष पृथुदीर्घाक्षः पीतवासा जनार्दनः। एष कर्ता विकर्ता च भूतात्मा भूतकृत्प्रभुः ।। | 3-191-18a 3-191-18b |
अचिन्त्यं महदाश्चर्यं पवित्रमिति चोच्यते। अनादिनिधनं भूतं विश्वमव्ययमक्षयम् ।। | 3-191-19a 3-191-19b |
एष कर्ता न क्रियते कारणं चापि पौरुषे। को ह्येनं परुषं वेत्ति देवा अपि न तं पौरषे ।। | 3-191-20a 3-191-20b |
सर्वमाश्चर्यमेवैतन्निर्वृत्तं राजसत्तम। आदितो मनुजव्याघ्र कृत्स्नस्य जगतः क्षये ।। | 3-191-21a 3-191-21b |
चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्। तस्य तावच्छती सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथाविधः ।। | 3-191-22a 3-191-22b |
वीणि वर्षसहस्राणि त्रेतायुगमिहोच्यते। तस्य तावच्छती सन्ध्या सन्ध्यांशश्च ततः परं ।। | 3-191-23a 3-191-23b |
तथा वर्षसहस्रे द्वे द्वापरं परिमाणतः। तस्यापि द्विशती सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथाविधः ।। | 3-191-24a 3-191-24b |
सहस्रमेकं वर्षाणां ततः कलियुगं स्मृतम्। तस्य वर्षशतं सन्ध्या सन्ध्यांशश्च ततः परम् ।। | 3-191-25a 3-191-25b |
सन्ध्यासंध्यांशयोस्तुल्यं प्रमाणमुपधारय। क्षीणे कलियुगे चैव प्रवर्तति कृतं युगम् ।। | 3-191-26a 3-191-26b |
एषा द्वादशसाहस्री युगाख्या परिकीर्तिता। एतत्सहस्रपर्यन्तमहो ब्राह्ममुदाहृतम् ।। | 3-191-27a 3-191-27b |
विश्वं हि ब्रह्मभवने सर्वतः परिवर्तते। लोकानां मनुजवन्याघ्र प्रलयं तं विदुर्बुधाः ।। | 3-191-28a 3-191-28b |
अल्पावशिष्टे तु तदा युगान्ते भरतर्षभ। सहस्रान्ते नराः सर्वे प्रायशोऽनृतवादिनः ।। | 3-191-29a 3-191-29b |
यज्ञप्रतिनिधिः पार्थ दानप्रतिनिधिस्तथा। व्रतप्रतिनिधिश्चैव तस्मिन्काले प्रवर्तते ।। | 3-191-30a 3-191-30b |
ब्राह्मणाः शूद्रकर्माणस्तथा शूद्रा धनार्जकाः। क्षत्रधर्मेण वाऽप्यत्र वर्तयन्ति युगक्षये ।। | 3-191-31a 3-191-31b |
निवृत्तयज्ञस्वाध्याया दण्डाजिनविवर्जिताः। ब्राह्मणा सर्वभक्षाश्च भविष्यन्ति कलौ युगे ।। | 3-191-32a 3-191-32b |
अजपा ब्राह्मणास्तात शूद्रा जपपरायणाः। विपरीते तदा लोके पूर्वरूपं क्षयस्य तत् ।। | 3-191-33a 3-191-33b |
बहवो म्लेच्छराजानः पृथिव्यां मनुजाधिप। मृषानुशासिनः पापा मृषावादपरायणाः ।। | 3-191-34a 3-191-34b |
आन्ध्राः शकाः पुलिन्दाश्च यवनाश्च नराधिपाः। काम्भोजा बाह्लिकाः शूरास्तथाऽऽभीरा नरोत्तमा ।। | 3-191-35a 3-191-35b |
न तदा ब्राह्मणः कश्चित्स्वधर्ममुपजीवति। क्षत्रियाश्चापि वैश्याश्च विकर्मस्था नराधिप ।। | 3-191-36a 3-191-36b |
अल्पायुषः स्वल्पबलाः स्वल्पवीर्यपराक्रमाः। अल्पसाराल्पदेहाश्च तथा सत्याल्पभाषिणः ।। | 3-191-37a 3-191-37b |
बहुशून्या जनपदा मृगव्यालावृता दिशः। युगान्ते समनुप्राप्ते वृथा च ब्रह्मवादिनः ।। | 3-191-38a 3-191-38b |
भोवादिनस्तथा शूद्रा ब्राह्मणाश्चार्यवादिनः। युगान्ते मनुजव्याघ्र भवन्ति बहुजन्तवः ।। | 3-191-39a 3-191-39b |
न तथा घ्राणयुक्ताश्च सर्वगन्धा विशांपते। रसाश्च मनुजव्याघ्र न तथा स्वादुयोगिनः ।। | 3-191-40a 3-191-40b |
बहुप्रजा ह्रस्वदेहा शीलाचारविवर्जिताः। मुखेभगाः स्त्रियो राजन्भविष्यन्ति युगक्षये ।। | 3-191-41a 3-191-41b |
अट्टशूला जनपदाः शिवशूलाश्चतुष्पथाः। केशशूलाः स्त्रियो राजन्भविष्यन्ति युगक्षये ।। | 3-191-42a 3-191-42b |
अल्पक्षीरास्तथा गावो भविष्यन्ति जनाधिप। अल्पपुष्पफलाश्चापि पादपा बहुवायसाः ।। | 3-191-43a 3-191-43b |
ब्रह्मवध्यानुलिप्तानां तथा मिथ्याभिशंसिनाम्। नृपाणां पृथिवीपाल प्रतिगृह्णन्ति वै द्विजाः ।। | 3-191-44a 3-191-44b |
लोभमोहपरीताश्च मिथ्याधर्मध्वजावृताः। भिक्षार्थं पृथिवीपाल चञ्चूर्यन्ते द्विजैर्दिशः ।। | 3-191-45a 3-191-45b |
कराभारभयाद्भीता गृहस्थाः परिमोषकाः। मुनिच्छद्माकृतिच्छन्ना वाणिज्यमुपभुञ्जते ।। | 3-191-46a 3-191-46b |
मित्या च नखरोमाणि धारयन्ति तदा द्विजाः। अर्थलोभान्नरव्याघ्र वृथा च ब्रह्मचारिणः ।। | 3-191-47a 3-191-47b |
आश्रमेषु वृथाचार पारपा गुरुतल्पगाः। ऐहलौकिकमीहन्ते मांसशोणितवर्धनम् ।। | 3-191-48a 3-191-48b |
`पारलौकिककार्येषु प्रमत्ता भृशनास्तिकाः'। बहुपाषण्डसंकीर्णाः परान्नगुणवादिनः। आश्रमा मनुजव्याघ्र न भवन्ति युगक्षये ।। | 3-191-49a 3-191-49b 3-191-49c |
यथर्तुवर्षी भगवान्न तथा पाकशासनः। न चापि सर्वभीजानि सम्यग्रोहन्ति भारत ।। | 3-191-50a 3-191-50b |
फलं धर्मस्य राजेन्द्र सर्वत्र परिहीयते। हिंसाभिरामश्च जनस्तथा संपद्यतेऽशुचिः। अधर्मफलमत्यर्थं तदा भवति चानघ ।। | 3-191-51a 3-191-51b 3-191-51c |
तदा च पृथिवीपाल यो भवेद्धर्मसंयुतः। अल्पायुः स हि मन्तव्यो न हि धर्मोस्ति कश्चन ।। | 3-191-52a 3-191-52b |
भूयिष्ठं कूटमानैश्च पण्यं विक्रीणते जनाः। वणिजश्च नरव्याघ्र बहुमाया भवन्त्युत ।। | 3-191-53a 3-191-53b |
धर्मिष्ठाः परिहीयन्ते पापीयान्वर्धते जनः। धर्मस्य बलहानिः स्यादधर्मश्च बलायते ।। | 3-191-54a 3-191-54b |
अल्पायुषो दरिद्राश्च धर्मिष्ठा मानवास्तथा। दीर्घायुषः समृद्धाश्च विधर्माणो युगक्षये ।। | 3-191-55a 3-191-55b |
नगराणआं विहारेषु विधर्माणो युगक्षये। अधर्मिष्ठैरुपायैश् प्रजा व्यवहरन्त्युत ।। | 3-191-56a 3-191-56b |
संचयेन तथाऽल्पेन भवन्त्याढ्यमदान्विताः। धनं विश्वासतो न्यस्तं मिथो भूयिष्ठशो नराः ।। | 3-191-57a 3-191-57b |
हर्तुं व्यवसिता राजन्पापाचारसमनविताः। नैतदस्तीति मनुजा वर्तन्ते निरपत्रपाः ।। | 3-191-58a 3-191-58b |
पुरुषादानि सत्वानि पक्षिणोऽथ मृगास्तथा। नगराणां विहारेषु चैत्येष्वपि च शेरते ।। | 3-191-59a 3-191-59b |
सप्तवर्षाष्टवर्षाश्च स्त्रियो गर्भधरा नृप। दशद्वादशवर्षाणां पुंसां पुत्रः प्रजायते ।। | 3-191-60a 3-191-60b |
भवन्ति षोडशे वर्षे नराः पलितिनस्तथा। आयुःक्षयो मनुष्याणां क्षिप्रमेव प्रपद्यते ।। | 3-191-61a 3-191-61b |
क्षीणायुषो महाराज तरुणा वृद्धशीलिनः। तरुणानां च यच्छीलं तद्वृद्धेषु प्रजायते ।। | 3-191-62a 3-191-62b |
विपरीतास्तदा नार्यो वञ्चयित्वाऽर्हतः पतीन्। व्युच्चरन्त्यपि दुःशीला दासैः पशुभिरेव च ।। | 3-191-63a 3-191-63b |
वीरपत्न्यस्तथा नार्यः संश्रयन्ति नरान्नृप। भर्तारमपि जीवन्तमन्यान्व्यभिचरन्त्युत ।। | 3-191-64a 3-191-64b |
तस्मिन्युगसहस्रान्ते संप्राप्ते चायुषः क्षये। अनावृष्टिर्महाराज जायते बहुवार्षिकी ।। | 3-191-65a 3-191-65b |
ततस्तान्यल्पसाराणि सत्वानि क्षुधितानि वै। प्रलयं यान्ति भूयिष्ठं पृथिव्यां पृथिवीपते ।। | 3-191-66a 3-191-66b |
ततो दिनकरैर्दीप्तैः सप्तभिर्मनुजाधिप। पीयते सलिलं सर्वं समुद्रेषु सरित्सु च ।। | 3-191-67a 3-191-67b |
यच्च रकाष्ठं तृणं चापि शुष्कं चार्द्रं च भारत। सर्वं तद्भस्मसाद्भूतं दृश्यते भरतर्षभ ।। | 3-191-68a 3-191-68b |
ततः संवर्तको वह्निर्वायुना सह भारत। लोकमाविशते पूर्वमादित्यैरुपशोषितम् ।। | 3-191-69a 3-191-69b |
ततः स पृथिवीं भित्त्वा प्रविश्य च रसातलम्। रदेवदानवयक्षाणां भयं जनयते महत् ।। | 3-191-70a 3-191-70b |
निरदहन्नागलोकं च यच्च किंचित्क्षिताविह। अधस्तात्पृथिवीपाल सर्वं नाशयते क्षणात् ।। | 3-191-71a 3-191-71b |
ततो योजनविंशानां सहस्राणि शतानि च। निर्दहत्यशिवो वायुः स च संवर्तकोऽनलः ।। | 3-191-72a 3-191-72b |
सदेवासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम्। ततो दहति दीप्तः स सर्वमेव जगद्विभुः ।। | 3-191-73a 3-191-73b |
ततो गजकुलप्रख्यास्तजिन्मालाविभूषिताः। उत्तिष्ठन्ति महामेघा नभस्यद्भुतदर्शनाः ।। | 3-191-74a 3-191-74b |
केचिन्नीलोत्पलश्यामाः केचित्कुमुदसन्निभाः। केचित्किञ्जल्कसंकाशाः केचित्पीताः पयोधराः ।। | 3-191-75a 3-191-75b |
केचिद्धारिद्रसंकाशाः कारण्डवनिभास्तथा। केचित्कमलपत्राभाः केचिद्धिङ्गुलसप्रभाः ।। | 3-191-76a 3-191-76b |
केचित्पुरवराकाराः केचिद्गजकुलोपमाः। केचिदञ्जनसंकाशाः केचिन्मकरसन्निभाः ।। | 3-191-77a 3-191-77b |
विद्युन्मालापिनद्धाङ्गाः समुत्तिष्ठन्ति वै घनाः। घोररूपा महाराज घोरस्वननिनादिताः ।। | 3-191-78a 3-191-78b |
ततो जलघराः सर्वं व्याप्नुवनति नभस्तलम्। `गर्जन्तः पृथिवीपाल पृथिवीधरसन्निभाः' ।। | 3-191-79a 3-191-79b |
तैरियं पृथिवी सर्वा सपर्वतवनाकरा। आपूर्यते महाराज सलिलौघपरिप्लुता ।। | 3-191-80a 3-191-80b |
ततस्ते जलदा घोरा राविणः पुरुषर्षभ। पर्वतान्प्लावयन्त्याशु चोदिताः परमेष्ठिना ।। | 3-191-81a 3-191-81b |
वर्षमाणा महत्तोयं पूरयन्तो वसुंधराम्। सुघोरमशिवं रौद्रं नाशयनति च पावकम् ।। | 3-191-82a 3-191-82b |
ततो द्वादशवर्षाणि पयोदास्त उपप्लवे। धाराभिः पूरयन्तो वै चोद्यमाना महात्मना ।। | 3-191-83a 3-191-83b |
ततः समुद्रः स्वां वेलामतिक्रामति भारत। पर्वताश्च विदीर्यन्ते मही चापि विदीर्यते ।। | 3-191-84a 3-191-84b |
सर्वतः सहसा भ्रान्तास्ते पयोदा नभस्तलम्। संवेष्टयित्वा नश्यन्ति वायुवेगपराहताः ।। | 3-191-85a 3-191-85b |
कततस्तं मारुतं घोरं स्वयंभूर्मनुजाधिप। आदिः पद्मालयो देवः पीत्वा स्वपिति भारत ।। | 3-191-86a 3-191-86b |
तस्मिन्नेकार्णवे घोरे नष्टे स्थावरजङ्गमे। नष्टे देवासुरगणए यक्षराक्षसवर्जिते ।। | 3-191-87a 3-191-87b |
निर्मनुष्ये महीपाल निःश्वापदमहीरुहे। अनन्तरिक्षे लोकेऽस्मिन्भ्रमाम्येकोऽहमातुरः ।। | 3-191-88a 3-191-88b |
एकार्णवे जले घोरे विचरन्पार्थिवोत्तम। अपश्यन्सर्वभूतानि वैक्लब्यमगमं ततः ।। | 3-191-89a 3-191-89b |
ततः सुदीर्घं गत्वाऽहं प्लवमानो धराधिप। श्रान्तः क्वचिन्न शरणं लब्धवानस्म्यतन्द्रितः ।। | 3-191-90a 3-191-90b |
ततः कदाचित्पश्यामि तस्मिन्सलिलसंनिघौ। न्यग्रोधं सुमहान्तं वै विशालं पृथिवीपते ।। | 3-191-91a 3-191-91b |
शाखायां तस्य वृक्षस्य विस्तीर्णायां नराधिप। पर्यङ्के पृथिवीपाल दिव्यास्तरणसंस्तृते ।। | 3-191-92a 3-191-92b |
उपविष्टं महाराज पद्मेन्दुसदृशाननम्। फुल्लपद्मविशालाक्षं बालं पश्यामि भारत ।। | 3-191-93a 3-191-93b |
ततो मे पृतिवीपाल विस्मयः सुमहाभूत्। कथं त्वयं शिशुः शेते लोके नाशमुपागते ।। | 3-191-94a 3-191-94b |
तपसा चिन्तयंश्चापि तं शिशुं नोपलक्षये। भूतं भव्यं भविष्यं च जानन्नपि नराधिप ।। | 3-191-95a 3-191-95b |
अतसीपुष्पवर्णाभः श्रीवत्सकृतभूषणः। साक्षाल्लक्ष्म्या इवावास स तदा प्रतिभाति मे ।। | 3-191-96a 3-191-96b |
ततो मामब्रवीद्बालः स पद्मनिभलोचनः। श्रीवत्सधारी द्युतिमान्वाक्यं श्रुतिसुखावहम् ।। | 3-191-97a 3-191-97b |
जानामि त्वां परिश्रान्तं तात विश्रामकाङ्क्षिणम्। मार्कण्डेय महासत्वं यावदिच्छसि भार्गव ।। | 3-191-98a 3-191-98b |
अभ्यन्तरं शरीरं मे प्रविश्य मुनिसत्तम। आस्खेह विहितो वासः प्रसादस्ते कृतो मया ।। | 3-191-99a 3-191-99b |
ततो बालेन तेनैव मुक्तस्यासीत्तदा मम। निर्वेदो जीविते दीर्घे मनुष्यत्वे च भारत ।। | 3-191-100a 3-191-100b |
ततो बालेन तेनास्यं सहसा विवृतं कृतम्। तस्याहमवशो वक्रे दैवयोगात्प्रवेशितः ।। | 3-191-101a 3-191-101b |
ततः प्रविष्टस्तत्कुक्षिं सहसा मनुजाधिप। सराष्ट्रनगराकीर्णां कृत्स्नां पश्यामि मेदिनीम् ।। | 3-191-102a 3-191-102b |
गङ्गां शतद्रुं सीतां च यमुनामथ कौशिकीम्। चर्मण्वतींवेत्रवतीं चन्द्रभागां सरस्वतीम् ।। | 3-191-103a 3-191-103b |
सिन्धुं चैव विपाशां च नदीं गोदावरीमपि। वस्वोकसारां नलिनीं नर्मदां चैव भारत ।। | 3-191-104a 3-191-104b |
नदीं ताम्रां च वेणां च पुण्यतोयां शुभावहाम्। सुवेणां कृष्णवेणां च इरामां च महानदीम् ।। | 3-191-105a 3-191-105b |
वितस्तां च महाराज कावेरीं च महानदीम्। `तुङ्गभद्रां कृष्णवेणीं कमलां च महानदीम्'। शोणं च पुरुषव्याघ्र विशल्यां किंपुनामपि ।। | 3-191-106a 3-191-106b 3-191-106c |
एताश्चान्याश्च नद्योऽहं पृथिव्यां या नरोत्तम। परिक्रामन्प्रपश्यामि तस्य कुक्षौ महात्मनः ।। | 3-191-107a 3-191-107b |
ततः समुद्रं पश्मामि यादोगणनिषेवितम्। रत्नाकरममित्रघ्न पयसोनिधिमुत्तमम् ।। | 3-191-108a 3-191-108b |
ततः पश्यामि गगनं चन्द्रसूर्यविराजितम्। जाज्वल्यमानं तेजोभिः पावकार्कसमप्रभम् ।। | 3-191-109a 3-191-109b |
पश्यामि च महीं राजन्काननैरुपशोभिताम्। `सपर्वतवनद्वीपां निम्नगाशतसंकुलाम् ।। | 3-191-110a 3-191-110b |
यजन्ते हि ततो राजन्ब्राह्मणा बहुभिर्मखैः। क्षत्रियाश् प्रवर्तन्ते सर्ववर्णानुरञ्जनैः ।। | 3-191-111a 3-191-111b |
वैश्याः कृषिं यथान्यायं कारयन्ति नराधिप। शुश्रूषायां च निरता द्विजानां वृषलास्तथा ।। | 3-191-112a 3-191-112b |
ततः परिपतन्राजंस्तस्य कुक्षौ महात्मनः। हिमवन्तं च पश्यामि हेमकूटं च पर्वतम् ।। | 3-191-113a 3-191-113b |
निषधं चापि पश्यामि श्वेतं च रजतान्वितम्। पश्यामि च महीपाल पर्वतं गन्धमादनम् ।। | 3-191-114a 3-191-114b |
मन्दरं मनुजव्याघ्र नीलं चापि महागिरिम्। पश्यामि च महाराज मेरु कनकपर्वतम् ।। | 3-191-115a 3-191-115b |
महेन्द्रं चैव पश्यामि विन्ध्यं च गिरिमुत्तमम्। मलयं चापि पश्यामि पारियात्रं च पर्वतम् ।। | 3-191-116a 3-191-116b |
एते चान्ये च बहवो यावन्तः पृथिवीधराः। तस्योदरे मया दृष्टाः सर्वे रत्नविभूषिताः ।। | 3-191-117a 3-191-117b |
सिंहान्व्याघ्रान्वराहांश्च पश्यामि मनुजाधिप। पृथिव्यां यानि चान्यानि सत्त्वानि जगतीपते। तानि सर्वाण्यहं तत्र पश्यन्पर्यचरं तदा ।। | 3-191-118a 3-191-118b 3-191-118c |
कुक्षौ तस् नरव्याघ्र प्रविष्टः संचरन्दिशः। शक्रादींश्चापि पश्यामि कृत्स्नान्देवगणानहम् ।। | 3-191-119a 3-191-119b |
साध्यान्रुद्रांस्तथाऽऽदित्यान्गुह्यकान्पितरस्तथा। सर्पान्नागान्सुपर्णांश्च वसूनप्यश्विनावपि ।। | 3-191-120a 3-191-120b |
गन्धर्वाप्सरसो यक्षानृषींश्चैव महीपते। दैत्यदानवसङ्घांश्च नागांश्च मनुजाधिप ।। | 3-191-121a 3-191-121b |
सिंहिकातनयांश्चापि ये चान्ये सुरशत्रवः। यच्च किंचिन्मया लोके दृष्टं स्थावरजङ्गमम् ।। | 3-191-122a 3-191-122b |
सर्वं पश्याम्यहं राजंस्तस्य कुक्षौ महात्मनः। त्वरमाणः फलाहारः कृत्स्नं जगदिदं विभो ।। | 3-191-123a 3-191-123b |
अन्तःशरीरे तस्याहं वर्षाणामधिकं शतम्। न च पश्यामि यस्याहं देहस्यान्तं कदाचन ।। | 3-191-124a 3-191-b124 |
सततं धावमानश्च चिन्तयानो विशांपते। `भ्रमंस्तत्र महीपाल यदा वर्षगणान्बहून्'। आसादयामि नैवान्तं तस्य राजन्महात्मनः ।। | 3-191-125a 3-191-125b 3-191-125c |
ततस्तमेव शरणं गतोस्मि विधिवत्तदा। वरेण्यं वरदं देवं मनसा कर्मणैव च ।। | 3-191-126a 3-191-126b |
ततोऽहं सहसा राजन्वायुवेगेन निःसृतः। महात्मनो मुखात्तस्य विवृतात्पुरुषोत्तम ।। | 3-191-127a 3-191-127b |
ततस्तस्यैव शाखायां न्यग्रोधस्य विशांपते। आस्ते मनुजशार्दूल कृत्स्नमादाय वै जगत् ।। | 3-191-128a 3-191-128b |
ते नैव बालवेषेण श्रीवत्सकृतलक्षणम्। आसीनं तं नरव्याघ्र पश्याम्यमिततेजसम् ।। | 3-191-129a 3-191-129b |
ततो मामब्रवीद्बालः स प्रीतः प्रहसन्निव। श्रीवत्सधारी द्युतिमान्पीतवासा महाद्युतिः ।। | 3-191-130a 3-191-130b |
अपीदानीं शरीरेऽस्मिन्मामके मुनिसत्तम। उषितस्त्वं परिश्रान्तो मार्कण्डेय ब्रवीहि मे ।। | 3-191-131a 3-191-131b |
मुहूर्तादथ मे दृष्टिः प्रादुर्भूता पुनर्नवा। मायानिर्मुक्तमात्मनमपश्यं लब्धचेतसम् ।। | 3-191-132a 3-191-132b |
तस्य ताम्रतलौ तात चरणौ सुप्रतिष्ठितौ। सुजातौ मृदुरक्ताभिरङ्गुलीभिर्विराजितौ ।। | 3-191-133a 3-191-133b |
प्रयत्नेन मया मूर्ध्ना गृहीत्वा ह्यभिवनदितौ। दृष्ट्वाऽपरिमितं तस् प्रभावममितौजसः ।। | 3-191-134a 3-191-134b |
विनयेनाञ्जलिं कृत्वाप्रयत्नेनोपगम्य ह। दृष्टो मया स भूतात्मा देवः कमललोचनः ।। | 3-191-135a 3-191-135b |
तमहं प्राञ्जलिर्भूत्वा नमस्कृत्येदमब्रवम्। ज्ञातुमिच्छामि देव त्वां मायां चैतां तवोत्तमाम् ।। | 3-191-136a 3-191-136b |
आस्येनानुप्रविष्टोऽहं शरीरे भगवंस्तव। दृष्टवानखिलाँल्लोकान्समस्तान्जठरे हि ते ।। | 3-191-137a 3-191-137b |
तव देव शरीरस्था देवदानवराक्षसाः। यक्षगन्धर्वनागाश्च जगत्स्थावरजङ्गमम् ।। | 3-191-138a 3-191-138b |
त्वत्प्रसादाच्च मे देव स्मृतिर्न परिहीयते। द्रुतमन्तःशरीरे ते सततं परिवर्तिनः ।। | 3-191-139a 3-191-139b |
निर्गतोऽहमकामस्तु इच्छया ते महाप्रभो। यतिष्ये पुण्डरीकाक्ष ज्ञातुं त्वाऽहमनिन्दितं ।। | 3-191-140a 3-191-140b |
इह भूत्वा शिशुः साक्षात्किं भवानवतिष्ठते। पीत्वा जगदिदं सर्वमेतदाख्यातुमर्हसि ।। | 3-191-141a 3-191-141b |
किमर्थं च जगत्सर्वं शरीरस्थं तवानघ। कियन्तं च त्वया कालमिह स्थेयमरिंदम ।। | 3-191-142a 3-191-142b |
एतदिच्छामि देवेश श्रोतुं ब्राह्मणकाम्यया। त्वत्तः कमलपत्राक्षं विस्तरेण यथातथम्। महद्ध्येतदचिन्त्यं च यदहं दृष्टवान्प्रभो ।। | 3-191-143a 3-191-143b 3-191-143c |
इत्युक्तः स मया श्रीमान्देवदेवो महाद्युतिः। सान्त्वयन्मामिदं वाक्यमुवाच वदतांवरः ।। | 3-191-144a 3-191-144b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मर्कण्डेयसमास्यापर्वणि एकनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 191 ।। |
3-191-4 अनन्तरिक्षे लोके इति झ. पाठः ।। 3-191-6 चतुर्विधानि जरायुजाण्डजस्वेदजोद्भिज्जानि ।। 3-191-9 नारायणास्य अङ्कः स्थानं समीपं वा। तत्र प्रख्यः प्रख्यातः भगवद्भक्तेषूत्तमः। सांपराये परलोके अतिपठ्यसे अत्यन्तं स्तूयसे। लोकैरिति शेषः ।। 3-191-10 विष्णोर्ब्रह्मणः उपलब्धिस्थानत्वेन संबन्धिकर्णिकोद्धरणं कृत्वा योगकलया हृदयपुण्डरीकमुद्घाट्येत्यर्थः। रत्वया दृग्भ्यां भगवाननेकशोऽनेकवरि दृष्ट इत्यन्वयः। रत्नानि तत्तज्जात्युत्कृष्टवस्तूनि तेषां अलकारो निवारणक्रिया। परं वैराग्यमिति यावत्। योगः अभियोगोऽभ्यासः। वैराग्याभ्यासाभ्यामित्यर्थः ।। 3-191-11 तव त्वां न विशतीत्यपकृष्यते ।। 3-191-12 शेषं अवशिष्टम्। पञ्चमहाभूतप्रलये सतीत्यर्थः ।। 3-191-15 एतत्सर्वं त्वया दृष्टमिति शेषः ।। 3-191-17 स्वयंभुवे अजन्मने। पुरुषाय पूर्णाय। पुराणाय नित्यैकरूपाय। शाश्वताय अनादये। अव्ययाय नित्याय ।। 3-191-20 यद्येष पुरुषो वेद चेदा अपि इति झ. पाठः ।। 3-191-22 तावच्छती चतुःशती। सन्ध्या पूर्वस्मिन् युगे उत्तरयुगधर्माणामुपसर्जनतया संक्रमः। सन्ध्यांशस्तूत्तरस्मिन् पूर्वयुगधर्माणाम्। तथाविध उत्तरप्रकारस्त्रिशतीमितोयमेव पूर्वयुगापेक्षया सन्ध्यांश उत्तरयुगापेक्षया सन्ध्येति चोच्यते। तथाच कृतत्रेतयोः सन्ध्यासन्ध्यांशौ सप्तशती। त्रेताद्वापरयोः पञ्चशती। द्वापारकल्योस्त्रिशती। कलिकृतयोस्तु पञ्चशतीति विज्ञेयम्। एवं च कृतस्यादौ चतुःशती कल्यपेक्षया सन्ध्यांशोपि कृतापेक्षया सन्ध्या। एवं सर्वत्र। तेन सन्ध्यासन्ध्यांशयोस्तुल्यं प्रमाणं भवति ।। 3-191-31 तथा शूद्रधनार्जकाः इतिथ. पाठः ।। 3-191-37 सत्येऽल्पं सत्याल्पम्। सत्यवादोऽत्यन्तमल्प इत्यर्तः ।। 3-191-38 वृथा अनुभवाभावात् ।। 3-191-41 मुखेभगाः प्रथमं मुखेनैव भगकार्यं कृत्वा पुरुषस् काममुद्दीपयन्त्यः। अत्यन्तं रतार्तत्वात् ।। 3-191-42 अट्टमन्नं शिवो वेदो ब्राह्मणाश्च चतुष्पथाः। केशो भगं समाख्यातं शूलं तद्विक्रयं विदुरिति पूर्वेषां व्याख्यासंक्षेपः ।। 3-191-45 मिथ्याधर्मः कपटधर्मः सएव ध्वजइव ख्यात्यर्थं ज्ञाप्यो येषां ते तथा चञ्चूर्यन्ते पीड्यन्ते। दिशः दिक्स्थाः जनाः ।। 3-191-48 पानपाः मद्यपाः ।। 3-191-56 नगराणां नगरस्थानाम् ।। 3-191-57 आढ्योहमिति मदः आढ्यमदः ।। 3-191-59 पुरुषादानि वृकव्याघ्रादीनि चैत्येष देवतास्थानेषु ।। 3-191-63 अर्हतः योग्यान् ।। 3-191-86 ततस्तं सलिलं घोरं इति क. ध. पाठः ।।
आरण्यकपर्व-190 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-192 |