महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-050
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दमयनत्यां समुत्कण्ठितेन नलंन वने विहरत्सु हंसेष्वेकतमस्य ग्रहणम् ।। 1 ।।
प्रतिक्रियाप्रतिज्ञानेन आत्मानं मोचितवता हंसेन नलगुणानुवर्णनेन दमयन्त्या नले रागोत्पादनम् ।। 2 ।।
बृहदश्व उवाच। | 3-50-1x |
आसीद्राजा नलो नाम वीरसेनसुतो बली। उपपन्नो गुणैरिष्टै रूपवानश्वकोविदः ।। | 3-50-1a 3-50-1b |
`यज्वा दानपतिर्दक्षः सदा शीलपुरस्कृतः'। अतिष्ठन्मनुजेन्द्राणां मूर्ध्नि देवपतिर्यथा। उपर्युपरि सर्वेषामादित्य इव तेजसा ।। | 3-50-2a 3-50-2b 3-50-2c |
ब्रह्मण्यो वेदविच्छ्ररो निषधेषु महीपतिः। अक्षप्रियः सत्यवादी महानक्षौहिणीपतिः ।। | 3-50-3a 3-50-3b |
ईप्सितो नरनारीणामुदारः संयतेन्द्रियः। रक्षिता धन्विनां श्रेष्ठः साक्षादिव मनुः स्वयम् ।। | 3-50-4a 3-50-4b |
तथैवासीद्विदर्भेषु भीमो भीमपराक्रमः। शूरः सर्वगुणैर्युक्तः प्रजाकामः स चाप्रजाः ।। | 3-50-5a 3-50-5b |
स प्रजार्थे परं यत्नमकरोत्सुसमाहितः। तमभ्यगच्छद्ब्रह्मर्षिर्दमनो नाम भारत ।। | 3-50-6a 3-50-6b |
तं स भीमः प्रजाकामस्तोषयामास धर्मवित्। महिष्या सह राजेनद्र सत्कारेण सुवर्चसम् ।। | 3-50-7a 3-50-7b |
तस्मै प्रसन्नो दमनः सभार्याय वरं ददौ। कन्यारत्नं कुमारांश्च त्रीनुदारान्महायशाः ।। | 3-50-8a 3-50-8b |
दमयन्तीं दमं दान्तं दमनं च सुवर्चसम्। उपपन्नान्गुणैः सर्वैर्भीमान्भीमपराक्रमान् ।। | 3-50-9a 3-50-9b |
दमयन्ती तु रूपेण तेजसा वपुषा श्रिया। सौभाग्येन च लोकेषु यशः प्राप सुमध्यमा ।। | 3-50-10a 3-50-10b |
अथ तां वयसि प्राप्ते दासीनां समलंकृतम्। शतं सखीनां च तदा पर्युपास्ते शचीमिव ।। [शतं शतं सखीनां च पर्युपासच्छचीमिव ।।] | 3-50-11a 3-50-11b [3-50-11b] |
तत्र स्म राजते भैमी सर्वाभरणभूषिता। सखीमध्येऽनवद्याङ्गी विद्युत्सौदामनी यथा ।। | 3-50-12a 3-50-12b |
अतीव रूपसंपन्ना श्रीरिवायतलोचना। न देवेषु न यक्षेषु तादृग्रूपवती क्वचित् ।। | 3-50-13a 3-50-13b |
मानुषेष्वपि चान्येषु दृष्टपूर्वाऽथवा श्रुता। चित्तप्रमाथिनी बाला देवानामपि सुन्दरी ।। | 3-50-14a 3-50-14b |
नलश्च नरशार्दूलो रूपेणाप्रतिमो भुवि। कंदर्प इव रूपेण मूर्तिमानभवत्स्वयम् ।। | 3-50-15a 3-50-15b |
तस्याः समीपे तु नलं प्रशशंसुः कुतूहलात्। नैषधस्य समीपे तु दमयन्तीं पुनः पुनः ।। | 3-50-16a 3-50-16b |
तयोरदृष्टः कामोऽभूच्छृण्वतोः सततं गुणान्। अन्योन्यं प्रतिकौन्तेय स व्वर्धत हृच्छयः ।। | 3-50-17a 3-50-17b |
अशक्नवन्नलः कामं तदा धारयितुं हृदा। अन्तःपुरसमीपस्थे वन आस्ते रहोगतः ।। | 3-50-18a 3-50-18b |
स ददर्शै ततो हंसाञ्जातरूपपरिच्दान्। वने विचरतां तेषामेकं जग्राह पक्षिणम् ।। | 3-50-19a 3-50-19b |
ततो।डन्तरिक्षगो वाचं व्याजहार नलं तदा। हन्तव्योस्मि न तेराजन्करिष्यामि तवप्रियम् ।। | 3-50-20a 3-50-20b |
दमयन्तीसकाशे त्वां कथयिष्यामि नैषध। यथा त्वदन्यं पुरुषं न सा मंस्यति कर्हिचित् ।। | 3-50-21a 3-50-21b |
`तव चैव यथा भार्या भविष्यति तथाऽनघ। विधास्यामि नरव्याघ्र सोऽनुजानातु मां भवान् ।।' | 3-50-22a 3-50-22b |
एवमुक्तस्ततो हंसमुत्ससर्ज महीपतिः। ते तु हंसाः समुत्पत्य विदर्भानगमंस्ततः ।। | 3-50-23a 3-50-23b |
विदर्भनगरीं गत्वा दमयन्त्यास्तदान्तिके। निपेतुस्ते गरुत्मन्तः सा ददर्शाथ तान्खगान् ।। | 3-50-24a 3-50-24b |
सा तानद्भुतरूपान्वै दृष्ट्वा सखिगणावृता। हृष्टा ग्रहीतुं खगमांस्त्वरमाणोपचक्रमे ।। | 3-50-25a 3-50-25b |
अथ हंसा विससृपुः सर्वतः प्रमदावने। एकैकशस्तदा कन्यास्तान्हंसान्समुपाद्रवन् ।। | 3-50-26a 3-50-26b |
दमयन्ती तु यं हंसं समुपाधावदन्तिके। स मानुषीं गिरं कृत्वा दमयन्तीमथाब्रवीत् ।। | 3-50-27a 3-50-27b |
दमयन्ति नलो नाम निषधेषु महीपतिः। अश्विनोः सदृशो रूपे न समास्तस्य मानुषाः ।। | 3-50-28a 3-50-28b |
[कन्दर्प इव रूपेण मूर्तिमानभवत्स्वयम्।] तस्य वै यदिभार्या त्वं भवेथा वरवर्णिनि। सफलंते भवेज्जन्म रूपं चेदं सुमध्यमे ।। | 3-50-29a 3-50-29b 3-50-29c |
वयं हि देवगन्धर्वमनुष्योरगराक्षसान्। दृष्टवन्तो न चास्माभिर्दृष्टपूर्वस्तथाविधः ।। | 3-50-30a 3-50-30b |
त्वं चापि रत्नं नारीणां नरेषु च नलो वरः। विशिष्टाया विशिष्टेन संगमो गुणवान्भवेत् ।। | 3-50-31a 3-50-31b |
एवमुक्ता तु हंसेन दमयन्ती विशांपते। अब्रवीत्तत्र तं हंसं त्वमप्येवं नलं वद ।। | 3-50-32a 3-50-32b |
तथेत्युक्त्वाऽण्डजः कन्यां विदर्भस्य विशांपते। पुनरागम्य निषधान्नले सर्वं न्यवेदयत् ।। | 3-50-33a 3-50-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि पञ्चाशोऽध्यायः ।। 50 ।। |
3-50-1 उपपन्नो युक्तः ।। 3-50-12 सौदामनी प्रावृषेण्यमेघसंबन्धिनी ।। 3-50-15 मूर्तिमान् शरीरी ।। 3-50-16 प्रशशंसुः वार्ताहरा इति शेषः ।। 3-50-17 हृच्छयः कामः ।। 3-50-19 जातरूपपरिच्छदान् सुवर्णपक्षान् ।। 3-50-20 अन्तरिक्षगः खगः ।। 3-50-24 गरुत्मन्तः पक्षिणः ।।
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