महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-281
← आरण्यकपर्व-280 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-281 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-282 → |
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
रामण सुग्रीवेण सख्यकरणपूर्वकं वालिहननम् ।। 1 ।। रावणेनाशोकवने सीतानिवेशनपूर्वकं तद्वशीकरणाय राक्षसीनां नियोजनम् ।। 2 ।। तत्र त्रिजटया रामरावणयोरिष्टानिष्टसूचकस्वदृष्टस्वाप्नप्रकारकथनेन सीतायाः परिसान्त्वनम् ।। 3 ।।
मार्कण्डेय उवाच। | 3-281-1x |
ततोऽविदूरे नलिनीं रप्रभूतकमलोत्पलाम्। सीताहरणदुःखार्तः पम्पां रामः समासदत् ।। | 3-281-1a 3-281-1b |
मारुतेन सुशीतेन सुखेनामृतगन्धिना। सेव्यमानो वने तस्मिञ्जगाम मनसा प्रियाम् ।। | 3-281-2a 3-281-2b |
विललाप सराजेन्द्रस्तत्रकान्तानुस्मरन्। कामबाणाभिसंतप्तं सौमित्रिस्तमथाब्रवीत् ।। | 3-281-3a 3-281-3b |
न त्वामेवंविधो भावः स्प्रष्टुमर्हति मानद। आत्मवन्तमिव व्याधिः पुरुषंवृद्धसेविनम् ।। | 3-281-4a 3-281-4b |
प्रवृत्तिरुपलब्धा ते वैदेह्या रावणस्य च। तां त्वं पुरुषकारेण बुद्ध्या चैवोपपादय ।। | 3-281-5a 3-281-5b |
अभिगच्छाव सुग्रीवं शैलस्थं हरिपुङ्गवम्। मयि शिष्ये च भृत्ये च सहाये च समाश्वस ।। | 3-281-6a 3-281-6b |
एवं बहुविधैर्वाक्यैर्लक्ष्मणेन स राघवः। उक्तः प्रकृतिमापेदे कार्ये चानन्तरोऽभवत् ।। | 3-281-7a 3-281-7b |
निषेव्य वारि पम्पायास्तर्पयित्वा पितृनपि। प्रतस्थतुरभौ वीरौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ।। | 3-281-8a 3-281-8b |
तावृश्यमूकमभ्येत्य बहुमूलफलद्रुमम्। गिर्यग्रे वानरान्पञ्वीरौ ददृशतुस्तदा ।। | 3-281-9a 3-281-9b |
सुग्रीवः प्रेषयामास सचिवं वानरं तयोः। बुद्धिमन्तं हनूमन्तं हिमवन्तमिव स्थितम् ।। | 3-281-10a 3-281-10b |
तेन संभाष्य पूर्वं तौ सुग्रीवमभिजग्मतुः। रसख्यं वानरराजेन चक्रे रामस्तदा नृप ।। | 3-281-11a 3-281-11b |
`ततः सीतां हृतां श्रुत्वा सुग्रीवो वालिना कृतम्। दुःखमाख्यातवान्सर्वं रामायामिततेजसे' ।। | 3-281-12a 3-281-12b |
तद्वासो दर्शयामास तस् कार्ये निवेदिते। वानराणां तु यत्सीता ह्रियमाणा व्यपासृजत् ।। | 3-281-13a 3-281-13b |
तत्प्रत्ययकरं लब्ध्वा सुग्रीवं प्लवगाधिपम्। पृथिव्यां वानरैश्वर्ये स्वयंरामोऽभ्यषेचयत् ।। | 3-281-14a 3-281-14b |
प्रतिजज्ञे चकाकुत्स्थः समरे वालिनो वधम्। सुग्रीवश्चापि वैदेह्याः पुनरानयनं नृप ।। | 3-281-15a 3-281-15b |
इत्येवं समयं कृत्वाविश्वास्य च परस्परम्। अभ्येत्य सर्वकिष्किन्धां तस्थुर्युद्धाभिकाङ्क्षिणः ।। | 3-281-16a 3-281-16b |
सुग्रीवः प्राप्यकिष्किन्धां ननादौघनिभस्वनः। नसाय् तन्ममृषे वाली तारा तं प्रत्यषेधयत् ।। | 3-281-17a 3-281-17b |
यथानदतिसुग्रीवो बलवानेष वानरः। मन्ये चाश्रयवान्प्राप्तो न त्वं निष्क्रान्तुमर्हसि ।। | 3-281-18a 3-281-18b |
हेममाली ततो वाली तारां ताराधिपाननाम्। प्रोवाच वचनं वाग्मी तां वानरपतिः पतिः ।। | 3-281-19a 3-281-19b |
सर्वभूतरुतज्ञा शृणु सर्वं कपीश्वर ।। केन चाश्रयवान्प्राप्तो ममैप भ्रातृगन्धिकः ।। | 3-281-20a 3-281-20b |
चिन्तयित्वा मुहूर्तं तु तारा ताराधिपप्रभा। पतिमित्यब्रवीत्प्राज्ञा शृणु सर्वं कपीश्वर ।। | 3-281-21a 3-281-21b |
हृतदारो महासत्वोरामो दशरथात्मजः। रतुल्यारिमित्रतां प्राप्तः सुग्रीवेण धनुर्धरः ।। | 3-281-22a 3-281-22b |
भ्राता चास्य महाबाहुः सौमित्रिरपराजितः। लक्ष्मणो नाम मेधावी स्थितः कार्यार्थसिद्धये ।। | 3-281-23a 3-281-23b |
मैन्दश्च द्विविदश्चापि हनूमांश्चानिलात्मजः। जाम्बवानृक्षराजश्च सुग्रीवसचिवाः स्थिताः ।। | 3-281-24a 3-281-24b |
सर्व एते महात्मानो बुद्धिमन्तो महाबलाः। अलं तव विनाशाय रामवीर्यव्यपाश्रयाः ।। | 3-281-25a 3-281-25b |
तस्यास्तदाक्षिप्य वचो हितमुक्तं कपीश्वरः। पर्यशङ्कत तामीर्षुः सुग्रीवगतमानसाम् ।। | 3-281-26a 3-281-26b |
तारां परुषमुक्त्वा तु निर्जगाम गुहामुखात्। स्थितं माल्यवतोऽभ्याशे सुग्रीवं सोभ्यभाषत ।। | 3-281-27a 3-281-27b |
असकृत्त्वं मया क्लीव निर्जितो जीवितप्रियः। मुक्तो गच्छसि दुर्बुद्धे कथंकारं रणे पुनः ।। | 3-281-28a 3-281-28b |
इत्युक्तः प्राहसुग्रीवो भ्रातरं हेतुमद्वचः। प्राप्तकालममित्रघ्नं रामं सम्बोधयन्निव ।। | 3-281-29a 3-281-29b |
हृतराज्यस्य मे राजन्हृतदारस्य च त्वया। किं मे जीवितसामर्थ्यमिति विद्धि समागतम् ।। | 3-281-30a 3-281-30b |
एवमुक्त्वाबहुविधं ततस्तौ सन्निपेततुः। समरे वालिसुग्रीवौ सालतालशिलायुधौ ।। | 3-281-31a 3-281-31b |
उभौ जघ्नतुरन्योन्यमुभौ भूमौ निपेततुः। उभौ ववल्गतुश्चित्रं मुष्टिभिश्च निजघ्नतुः ।। | 3-281-32a 3-281-32b |
उभौ रुधिरसंसिक्तौ नखदन्तपरिक्षतौ। शुशुभाते तदा वीरौ पुष्पिताविव किंशुकौ ।। | 3-281-33a 3-281-33b |
न विशेषस्तयोर्युद्धे यदा कश्चन दृश्यते। सुग्रीवस् तदा मालां हनुमान्कण्ठ आसजत् ।। | 3-281-34a 3-281-34b |
स मालया तदा वीरः शुशुभे कण्ठसक्तया। श्रीमानिव महाशैलो मलयो मेघमालया ।। | 3-281-35a 3-281-35b |
कृतचिह्नं तु सुग्रीवं रामो दृष्ट्वा महाधनुः। विचकर्ष धनुःश्रेष्ठं वालिमुद्दिश्य लक्षयन् ।। | 3-281-36a 3-281-36b |
विष्फारस्तस् धनुषो यन्त्रस्येव तदा बभौ। वितत्रास तदा वाली शरेणाभिहतो हृदि ।। | 3-281-37a 3-281-37b |
स भिन्नहृदयो वाली वक्राच्छोणितमुद्वमन्। ददर्शावस्थितं रामं ततः सौमित्रिणा सह ।। | 3-281-38a 3-281-38b |
गर्हयित्वास काकुत्स्थं पपात भुवि मूर्च्छितः। तारा ददर्श तं भूमौ तारापतिमिव च्युतम् ।। | 3-281-39a 3-281-39b |
हते वालिनि सुग्रीवः किष्किन्धां प्रत्यपद्यत। तां तारापतिमुखीं तारां निपतितेश्वराम् ।। | 3-281-40a 3-281-40b |
रामस्तु चतुरो मासान्पृष्ठे माल्यवतः शुभे। निवासमकरोद्धीमान्सुग्रीवेणाभ्युपस्थितः ।। | 3-281-41a 3-281-41b |
रावणोऽपिपुरीं गत्वालङ्कां कामबलात्कृतः। सीतां निवेशयामास भवने नन्दनोपमे ।। | 3-281-42a 3-281-42b |
अशोकवनिकाभ्यासे तापसास्रमसन्निभे। भर्तृस्मरणतन्वङ्गी तापसीवेषधारिणी ।। | 3-281-43a 3-281-43b |
उपवासतपःशीला ततः सा पृथुलेक्षणा। उवास दुःखवसतिं फलमूलकृताशना ।। | 3-281-44a 3-281-44b |
दिदेश राक्षसीस्तत्ररक्षणे राक्षसाधिपः। प्रासासिशूलपरशुमुद्गरालातधारिणीः ।। | 3-281-45a 3-281-45b |
द्व्यक्षीं त्र्यक्षीं ललाटक्षीं दीर्घजिह्वामजिह्विकाम्। त्रिस्तनीमेकपादां च त्रिजटामेकलोचनाम् ।। | 3-281-46a 3-281-46b |
एताश्चान्याश्च दीप्ताक्ष्यः करभोत्कटमूर्धजाः। परिवार्यासते सीतां दिवारात्रमतन्द्रिताः ।। | 3-281-47a 3-281-47b |
तास्तु तामायतापाङ्गीं पिशाच्यो दारुणस्वराः। तर्जयन्ति सदा रौद्राः परुषव्यञ्जनस्वराः ।। | 3-281-48a 3-281-48b |
खादाम पाटयामैनां तिलशः प्रविभज्यताम्। येयं भर्तारमस्माकमवमत्येह जीवति ।। | 3-281-49a 3-281-49b |
इत्येवं परिभर्त्सन्तीस्त्रासयानाः पुनः पुनः। भर्तृशोकसमाविष्टा निःश्वस्येदमुवाच ताः ।। | 3-281-50a 3-281-50b |
आर्याः खादत मां शीघ्रं न मे लोभोस्ति जीविते। विना तं पुण्डरीकाक्षं नीलकुञ्चितमूर्धजम् ।। | 3-281-51a 3-281-51b |
अद्यैवाहं निराहारा जीवितप्रियवर्जिता। शोषयिष्यामि गात्राणि बल्ली तलगता यथा ।। | 3-281-52a 3-281-52b |
न त्वन्यमभिगच्छेयं पुमांसं राघवादृते। इति जानीत सत्यं मेक्रियतां यदनन्तरम् ।। | 3-281-53a 3-281-53b |
तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा राक्षस्यस्ताः खरस्वनाः। आख्यातुं राक्षसेन्द्राय जन्मुस्तत्सर्वमादितः ।। | 3-281-54a 3-281-54b |
गतासु तासु सर्वासु त्रिजटा नाम राक्षसी। सान्त्वयामास वैदेहीं धर्मज्ञा प्रियवादिनी ।। | 3-281-55a 3-281-55b |
सीते वक्ष्यामि ते किंचिद्विश्वासं करु मे सखि। भयं त्वं त्यज वामोरु शृणु चेदं वचो मम ।। | 3-281-56a 3-281-56b |
अविन्ध्यो नाम मेधावी वृद्धो राक्षसपुङ्गवः। स रामस्य हितान्वेषी त्वदर्थे मामचूचुदत् ।। | 3-281-57a 3-281-57b |
सीता मद्वचनाद्वाच्या समाश्वास्य प्रसाद्य च। भर्ता तेकुशली रामोलक्ष्मणानुगतो बली ।। | 3-281-58a 3-281-58b |
सख्यं वानरराजेन शक्रप्रतिमतेजसा। कृतवान्राघवः श्रीमांस्त्वदर्थे च समुद्यतः ।। | 3-281-59a 3-281-59b |
मा च ते भूद्भयं भीरु रावणाल्लोकगर्हितात्। नलकूबरशापेन रक्षिता ह्यसि नन्दिनि ।। | 3-281-60a 3-281-60b |
शप्तो ह्येष पुरा पापो वधूं रम्भां परामृशन्। न शक्रोत्यवशां नारीमुपैतुमजितेन्द्रियः ।। | 3-281-61a 3-281-61b |
क्षिप्रमेष्यति ते भर्ता सुग्रीवेणाभिरक्षितः। सौमित्रिसहितो धीमांस्त्वां चेतो मोक्षयिष्यति ।। | 3-281-62a 3-281-62b |
स्वप्ना हि सुमहाघोरा दृष्टा मेऽनिष्टदर्शनाः। विनाशायास्य दुर्बुद्धेः पौलस्त्यस्य कुलस्य च ।। | 3-281-63a 3-281-63b |
दारुणो ह्येष दुष्टात्मा क्षुद्रकर्मा निशाचरः। स्वभावाच्छीलदोषेण सर्वेषां भयवर्धनः ।। | 3-281-64a 3-281-64b |
स्पर्धते सर्वदेवैर्यः कालोपहतचेतनः। मया विनासलिङ्गानि स्वप्ने दृष्टानि तस्य वै ।। | 3-281-65a 3-281-65b |
तैलाभिषिक्तो विकचो मज्जनप्के दशाननः। असकृत्स्वरयुक्ते तु रथे नृत्यन्निव स्थितः ।। | 3-281-66a 3-281-66b |
कुम्भकर्णादयश्चेमे नग्नाः पतितमूर्धजाः। गच्छन्ति दक्षिणामाशां रक्तमाल्यानुलेपनाः ।। | 3-281-67a 3-281-67b |
श्वेतातपत्रः सोष्णीषः शुक्लमाल्यानुलेपनः। श्वेतपर्वतमारूढ एक एव विभीषणः ।। | 3-281-68a 3-281-68b |
सचिवाश्चास्य चत्वारः शुक्लमाल्यानुलेपनाः। श्वेतपर्वतमारूढा मोक्ष्यन्तेऽस्मान्महाभयात् ।। | 3-281-69a 3-281-69b |
रामस्यास्त्रेण पृथिवी परिक्षिप्ता ससागरा। यशसा पृथिवीं कृत्स्नां पूरयिष्यति ते पतिः ।। | 3-281-70a 3-281-70b |
हस्तिसक्थिसमारूढो भुञ्जानो मधुपायसम्। लक्ष्मणश्च मया दृष्टो दिधक्षुः सर्वतो दिशम् ।। | 3-281-71a 3-281-71b |
रुदती रुधिरार्द्राङ्गी व्याघ्रेण परिरक्षिता। असकृत्त्वं मया दृष्टा गच्छन्ती दिशमुत्तराम् ।। | 3-281-72a 3-281-72b |
हर्षमेष्यसि वैदेहि क्षिप्रं भर्त्रा समन्विता। राघवेण सहभ्रात्रा सीते त्वमचिरादिव ।। | 3-281-73a 3-281-73b |
इत्येतन्मृगशावाक्षी तच्छ्रुत्वा त्रिजटावचः। बभूवाशावती बाला पुनर्भर्तृसमागमे ।। | 3-281-74a 3-281-74b |
तावदभ्यागता रौद्र्यः पिशाच्यस्ताःसुदारुणाः। ददृशुस्तां त्रिजटया सहासीनां यथापुरम् ।। | 3-281-75a 3-281-75b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि रामोपाख्यानपर्वणि एकाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 281 ।। |
[सम्पाद्यताम्]
3-281- अविदूरे समीपे। नलिनीं पुष्करिणीम् ।। 3-281-2 अमृतगन्धिनाऽमृतसदृशेन ।। 3-281-5 उपपादय सफलीकुरु ।। 3-281-7 अनन्तरः संलग्नुः ।। 3-281-9 ऋश्यमूकं पर्वतम् ।। 3-281-17 ओघो जनवृन्दस्तन्निभः स्वनो यस्य ।। 3-281-18 आश्रयवान् परबलाश्रितः ।। 3-281-26 ईर्षुरीर्ष्यालुः ।। 3-281-28 मुक्तो गच्छसि दुर्बुद्धे कथं घोरे पुनरिति क. पाठः। मुक्तो ज्ञातिरिति ज्ञात्वा का त्वरा मरणे पुनः इति झ. पाठः ।। 3-281-30 जीवितसामर्थ्यं जीवनस्य श्लाप्यत्वम् ।। 3-281-47 करभोत्कटमूर्धजाः उष्ट्रसदृशकेश्यः ।। 3-281-48 परुषव्यञ्जनखरात्मकाः शब्दा यासां ताः ।। 3-281-52 व्याली तालगता ययेति ख.झ.पाठः ।। 3-281-61 वधूं स्रुषाम् ।। 3-281-70 परिक्षिप्ता व्याप्ता ।।
आरण्यकपर्व-280 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-282 |