महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-282
दिखावट
← आरण्यकपर्व-281 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-282 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-283 → |
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
रावणेन सीतासमीपमेत्य बहुधाप्रलोभनेऽप्यविकृतमानसया तया प्रत्याख्याने स्वावासंप्रतिगमनम् ।। 1 ।।
मार्कण्डेय उवाच। | 3-282-1x |
ततस्तां भर्तृशोकार्तां दीनां मलिनवाससम्। मणिशेषाभ्यलंकारां रुदतीं च पतिव्रताम् ।। | 3-282-1a 3-282-1b |
राक्षसीभिरुपास्यन्तीं समासीनां शिलातले। रावणःकामबाणार्तो ददर्शोपससर्प च ।। | 3-282-2a 3-282-2b |
देवदानवगन्धर्वयक्षकिंपुरुषैर्युधि। अजितोशोकवनिकां ययौ कन्दर्पपीडितः ।। | 3-282-3a 3-282-3b |
दिव्याम्बरधरः श्रीमन्सुमृष्टमणिकुण्डलः। विचित्रमाल्यमुकुटो वसन्त इव मूर्तिमान् ।। | 3-282-4a 3-282-4b |
न कल्पवृक्षसदृशोयत्नादपि विभूषितः। श्मशानचैत्यद्रुमवद्भूषितोऽपि भयंकरः ।। | 3-282-5a 3-282-5b |
स तस्यास्तनुमध्यायाः समीपे रजनीचरः। ददृशे रोहिणीमेत्य शनैश्चर इव ग्रैहः ।। | 3-282-6a 3-282-6b |
स तामामन्त्र्य सुश्रोणीं पुष्पकेतुशराहतः। इदमित्यब्रवीद्वाक्यं त्रस्तां रौहीमिवाबलाम् ।। | 3-282-7a 3-282-7b |
सीते पर्याप्तमेतावत्कृतोभर्तुरनुग्रहः। प्रसादं कुरु तन्वङ्गि क्रियतां परिकर्म ते ।। | 3-282-8a 3-282-8b |
भजस्वमां वरारोहे महार्हाभरणाम्बरा। भवमे सर्वनारीणामुत्तमा वरवर्णिनी ।। | 3-282-9a 3-282-9b |
सन्ति मे देवक्न्याश्च गन्धर्वाणआं च योषितः। सन्ति दानवन्याश् दैत्यानां चापि योषितः। `तासामद्यविशालाक्षि सर्वासां मे भवोत्तमा ।। | 3-282-10a 3-282-10b 3-282-10c |
चतुर्दश पिशाचीनां कोट्यो मे वचने स्थिताः। द्विस्तावत्पुरुषादानां रक्षसां भीमकर्मणाम् ।। | 3-282-11a 3-282-11b |
ततो मे त्रिगुणा यक्षा ये मद्वचनकारिणः। केचिदेव धनाध्यक्षं भ्रातरं मे समाश्रिताः ।। | 3-282-12a 3-282-12b |
गन्दर्वाप्सरसो भद्रे मामापानगतं सदा। उपतिष्ठन्ति वामोरु यथैव भ्रातरं मम ।। | 3-282-13a 3-282-13b |
पुत्रोऽहमपि विप्रर्षेः साक्षाद्विश्रवसो मुनेः। पञ्चमो लोकपालानामिति मे प्रथितं यशः ।। | 3-282-14a 3-282-14b |
दिव्यानि भक्ष्यभोज्यानि पानानि विविधानि च। यथैव त्रिदशेशस्यतथैव मम भामिनि ।। | 3-282-15a 3-282-15b |
क्षीयतां दुष्कृतं कर्म वनवासकृतं तव। भार्या मे भवसुश्रोणि यथा मण्डोदरीतथा ।। | 3-282-16a 3-282-16b |
इत्युक्ता तेन वैदेही परिवृत्य सुभानना। तृणमनतरतः कृत्वातमुवाच निशाचरम् ।। | 3-282-17a 3-282-17b |
अशिवेनातिवामोरूरजस्रं नेत्रवारिणा। स्तनावपतितौ बाला संहतावभिवर्षती ।। | 3-282-18a 3-282-18b |
`व्यवस्थाप्यकथंचित्सा विषादादतिमोहिता'। उवाच वाक्यं तं क्षुद्रं वैदेही पतिदेवता ।। | 3-282-19a 3-282-19b |
असकृद्वदतो वाक्यमीदृशं राक्षसेश्वर। विषादयुक्तमेतत्ते मया श्रुतमभाग्यया। तद्भद्रमुख भद्रं ते मानसं विनिवर्त्यताम् ।। | 3-282-20a 3-282-20b 3-282-20c |
परदाराऽस्म्यलभ्या च सततं च पतिव्रता। न चैवौपयिकी भार्य मानुषी तव राक्षस ।। | 3-282-21a 3-282-21b |
विवशां धर्षयित्वच कां त्वं प्रीतिमवाप्स्यसि। न च पालयसे धर्मं लोकपालसमः कथम् ।। | 3-282-22a 3-282-22b |
भ्रातरं राजराजं तं महेश्वरसस्वं प्रभुम्। धनेश्वरं व्यपदिशन्कथं त्विह न लज्जसे ।। | 3-282-23a 3-282-23b |
इत्युक्त्वा प्रारुदत्सीता कम्पयन्ती पयोधरौ। शिरोधरां च तन्वङ्गी मुस्वं प्रच्छाद्यवाससा ।। | 3-282-24a 3-282-24b |
तस्य रुदत्या भामित्या दीर्घा वेणी सुसयता। ददृशे स्वसिता स्निग्धा काली व्यालीव मूर्धनि ।। | 3-282-25a 3-282-25b |
श्रुत्वा तद्रावणो वाक्यं सीतयोक्तं सुनिषुरम्। प्रत्याख्यातोऽपिदुर्मेधाः पुनरेवाब्रवीद्वचः ।। | 3-282-26a 3-282-26b |
काममङ्गनि मे सीते दुनोतु मकरध्वजः। नत्वामकामां सुश्रोणीं समेप्ये चारुहासिनीं ।। | 3-282-27a 3-282-27b |
किंनु शक्यं मया कर्तुं यत्त्वमद्यापिमानुषम्। आहारभूतमस्माकं राममेवानुरुध्यसे ।। | 3-282-28a 3-282-28b |
इत्युक्त्वा तामनिन्द्याङ्गीं स राक्षसमहेश्वरः। तत्रैवान्तर्हितो भूत्वा जगामाभिमतां दिशम् ।। | 3-282-29a 3-282-29b |
राक्षसीभिः परिवृतावैदेही शोककशिंता। सेव्यमाना त्रिजटया तत्रैव न्यवसत्तदा ।। | 3-282-30a 3-282-30b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि रामोपाख्यानपर्वणि द्व्यशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 282 ।। |
3-282-2 उपास्यन्तीमुपास्यमानाम् ।। 3-282-7 रौहीं हरिणीम् ।। 3-282-8 परिकर्म वस्त्राभरणादिना प्रसाधनम् ।। 3-282-20 विनिवर्त्यतां मत्त इति शेषः ।। 3-282-21 औपयिकी उपयोगाही ।।
आरण्यकपर्व-281 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-283 |