महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-053
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नलदमयन्तीसंवाद ।। 1 ।।
नलेनेन्द्रादीन्प्रति दमयन्तीवचननिवेदनम् ।। 2 ।।
बृहदश्व उवाच। | 3-53-1x |
सा नमस्कृत्य देवेभ्यः प्रहस्य नलमब्रवीत्। प्रणयस्व यथाश्रद्धं राजन्किं करवाणि ते ।। | 3-53-1a 3-53-1b |
अहं चैव हि यच्चान्यन्ममास्ति वसु किंचना। तत्सर्वं तव विस्रब्धं कुरु प्रणयमीश्वर ।। | 3-53-2a 3-53-2b |
हंसानां वचनं यत्तु तन्मां दहति पार्थिव। त्वत्कृते हि मया वीर राजानः सन्निपातिताः ।। | 3-53-3a 3-53-3b |
यदि त्वं भजमानां मां प्रत्याख्यास्यसि मानद। विषमग्निं जलं रज्जुमास्थास्ये तव कारणात् ।। | 3-53-4a 3-53-4b |
एवमुक्तस्तु वैदर्भ्या नलस्तां प्रत्युवाच ह। तिष्ठत्सु लोकपालेषु कथं मानुषमिच्छसि ।। | 3-53-5a 3-53-5b |
येषामहं लोककृतामीश्वराणां महात्मनाम्। न पादरजसा तुल्यो मनस्ते तेषु वर्तताम् ।। | 3-53-6a 3-53-6b |
विप्रियं ह्याचरन्मर्त्यो देवानां मृत्युच्छति। त्राहि मामनवद्याङ्गि वरयस्व सुरोत्तमान् ।। | 3-53-7a 3-53-7b |
विरजांसि च वासांसि दिव्याश्चित्राः स्रजस्तथा। भूषणानि तु दिव्यानि देवान्प्राप्य तु भुङ्क्ष्व वै ।। | 3-53-8a 3-53-8b |
य इमां पृथिवीं कृत्स्नां संक्षिप्य ग्रसते पुनः। हुताशमीशं देवानां का तं न वरयेत्पतिम् ।। | 3-53-9a 3-53-9b |
यस् दण्डभयात्सर्वे भूतग्रामाः समागताः। धर्ममेवानुरुध्यन्ति का तं न वरयेत्पतिम् ।। | 3-53-10a 3-53-10b |
धर्मात्मानं महात्मानं दैत्यदानवमर्दनम्। महेन्द्रं सर्वदेवानां का तं न वरयेत्पतिम् ।। | 3-53-11a 3-53-11b |
क्रियतामविशङ्केन मनसा यदि मन्यसे। वरुणं लोकपालानां सुहृद्वाक्यमिदं शृणु ।। | 3-53-12a 3-53-12b |
नैषधेनैवमुक्ता सा दमयन्ती बचोऽब्रवीत्। समाप्लुताभ्यां नेत्राभ्यां शोकजेनाथ वारिणा ।। | 3-53-13a 3-53-13b |
देवेभ्योऽहं नमस्कृत् यसर्वेभ्यः पृथिवीपते। वृणे त्वामेव भर्तारं सत्यमेतद्ब्रवीमि ते ।। | 3-53-14a 3-53-14b |
तामुवाच ततो राजा वेषमानां कृताञ्जलिम्। दौत्येनागत्य कल्याणि नोत्सहे स्वार्थमीप्सितं ।। | 3-53-15a 3-53-15b |
कथं ह्यहं प्रतिश्रुत्य देवतानां विशेषतः। परार्थे यत्नमारभ्य कथं स्वार्थमिहोत्सहे ।। | 3-53-16a 3-53-16b |
एष धर्मो यदि स्वार्थो ममापि भविता ततः। एवं स्वार्थं करिष्यामि तथा भद्रे विधीयताम् ।। | 3-53-17a 3-53-17b |
ततो बाष्पाकुलांवाचं दमयन्ती शुचिस्मिता। प्रत्याहरन्ती शनकैर्नलं राजानमब्रवीत् ।। | 3-53-18a 3-53-18b |
अस्त्युपायो मया दृष्टो निरपायो नरेश्वर। येन दोषो न भविता तव राजन्कथंचन ।। | 3-53-19a 3-53-19b |
त्वं चैव हि नरश्रेष्ठ देवाश्चेन्द्रपुरोगमाः। आयान्तु सहिताः सर्वे मम यत्र स्वयंवरः ।। | 3-53-20a 3-53-20b |
ततोऽहं लोकपालानां सन्निधौ त्वां नरेश्वर। वरयिष्ये नरव्याघ्र नैवं दोषो भविष्यति ।। | 3-53-21a 3-53-21b |
एवमुक्तस्तु वैदर्भ्या नलो राजा विशंपते। आजगाम पुनस्तत्र यत्र देवाः समागताः ।। | 3-53-22a 3-53-22b |
तमपश्यंस्तथाऽऽयान्तं लोकपाला महेश्वराः। दृष्ट्वा चैनं ततोऽपृच्छन्वृत्तान्तं सर्वमेव तम् ।। | 3-53-23a 3-53-23b |
कच्चिद्दृष्टा त्वया राजन्दमयन्ती शुचिस्मिता। किमब्रवीच्च नः सर्वान्वद भूमिपतेऽनघ ।। | 3-53-24a 3-53-24b |
नल उवाच। | 3-53-25x |
भवद्भिरहमादिष्टो दमयन्त्या निवेशनम्। प्रविष्टः सुमहाकक्ष्यं दण्डिभिः स्थविरैर्वृतम् ।। | 3-53-25a 3-53-25b |
प्रविशन्तं च मां तत्र न कश्चिद्दृष्टवान्नरः। ऋते तां पार्तिवसुतां भवतामेव तेजसा ।। | 3-53-26a 3-53-26b |
सख्यश्चास्या मया दृष्टास्ताभिश्चाप्युपलक्षितः। विस्मिताश्चाभवन्सर्वा दृष्ट्वा मां विबुधेश्वराः ।। | 3-53-27a 3-53-27b |
वर्ण्यमानेषु च मया भवत्सु रुचिराननां। मामेव गतसंकल्पा वृणीते सा सुरोत्तमाः ।। | 3-53-28a 3-53-28b |
अब्रवीच्चैव मां बाला आयान्तु सहिताः सुराः। त्वया सह नरव्याघ्र मम यत्रस्वयंवरः ।। | 3-53-29a 3-53-29b |
तेषामहं संनिधौ त्वां वरयिष्यामि नैषध। एवं तव महाबाहो दोषो न भवितेति ह ।। | 3-53-30a 3-53-30b |
एतावदेव विबुधा यथावृत्तमुपाहृतम्। मया शेषे प्रमाणं तु भवन्तस्त्रिदशेश्वराः ।। | 3-53-31a 3-53-31b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि त्रिपञ्चाशोऽध्यायः ।। 53 ।। |
3-53-1 यथाश्रद्धं देवेभ्यो नमस्कृत् प्रणयस्वेति संबन्धः। प्रणयस्व परिणयस्व। मामिति शेषः ।। 3-53-2 विस्रब्धं सविश्वासं यथास्यात्तथा प्रणयं परिणयनं विवाहम् ।। 3-53-3 सन्निपातिताः मेलिताः ।। 3-53-4 मृत्युकारणादिति क. ध. पाठः ।। 3-53-25 महाकक्ष्यं महान्तं राजद्वारप्रदेशम् ।। 3-53-31 अतःपरं प्रमाणं तु भवन्तोऽमरसत्तमा इति. क. पाठः ।।
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