महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-062
← आरण्यकपर्व-061 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-062 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-063 → |
दमयन्त्या सार्थेन सह चेदिराजपुरंप्रति प्रस्तानम् ।। 1 ।।
वनमध्ये सरस्तीरशायिनि सार्थे निशीथे पानीयपानायागतगजयूथनिहतभूयिष्ठे दिष्टया दमयन्त्या अपि शेषीकारः ।। 2 ।।
हतावशिष्टेन जनेन सह चेदिराजपुरं गताया दमयन्त्या राजमात्रा स्वान्तःपुराधिवासनम् ।। 3 ।।
बृहृदश्व उवाच। | 3-62-1x |
सा तच्छ्रुत्वाऽनवद्याङ्गी सार्थवाहवचस्तदा। जगाम सह तेनैव सार्थेन पतिलालसा ।। | 3-62-1a 3-62-1b |
अथ काले बहुतिथे वने महति दारुणे। तटाकं सर्वतोभद्रं पद्मसौगन्धिकायुतम् ।। | 3-62-2a 3-62-2b |
ददृशुर्वणिजो रम्यं प्रभूतयवसेन्धनम्। बहुमूलफलोपेतं नानापक्षिनिषेवितम् ।। | 3-62-3a 3-62-3b |
तं दृष्ट्वा मृष्टसलिलं मनोहारि सुशीतलम्। सुपरिश्रान्तवाहास्ते निवेशाय मनो दधुः ।। | 3-62-4a 3-62-4b |
संमते सार्थवाहस्य विविशुर्वनमुत्तमम्। उवास सार्थः सुमहान्निशामासाद्य पद्मिनीम् ।। | 3-62-5a 3-62-5b |
अथार्धरात्रसमये निःशब्दे तिमिरे तदा। सुप्ते सार्थे परिश्रान्ते हस्तियूथमुपागमत्। पानीयार्थं गिरितटान्मदप्रस्रवणाविलम् ।। | 3-62-6a 3-62-6b 3-62-6c |
[अथापश्यत सार्थं तं सार्थजान्सुबहून्गजान् ।। | 3-62-7a |
ते तान्ग्राम्यगजान्दृष्ट्वा सर्वे वनगजास्तदा। समाद्रवन्त वेगेन जिघांसन्तो मदोत्कटाः ।। | 3-62-8a 3-62-8b |
तेषामापततां वेगः करिणां दुःसहोऽभवत्। नगाग्रादिव शीर्णानां शृङ्गाणां पततां क्षितौ। स्पन्दतामपि नागानां मार्गा नष्टा वनोद्भवाः ।।] | 3-62-9a 3-62-9b 3-62-9c |
मार्गं संरुद्ध्य संसुप्तं पद्मिन्याः सार्थमुत्तमम्। ते तं ममर्दुः सहसा वेष्टमानं महीतले ।। | 3-62-10a 3-62-10b |
महारवं प्रमुञ्चतो वद्ध्यन्ते शरणार्थिनः। वनगुल्मांश्च धावन्तो निद्रया महतो भयात् ।। | 3-62-11a 3-62-11b |
केचिद्दन्तैः करैः केचित्केचित्पद्भ्यां हता गजैः ।। | 3-62-12a |
निहतोष्ट्राश्वबहुलाः पदातिजसंकुलाः। भयादाधावमानाश् परस्परहतास्तदा ।। | 3-62-13a 3-62-13b |
घोरान्नादान्विमुञ्चन्तो निपेतुर्धरणीतले। वृक्षेष्वासज्यसंभग्नाः पतिता विषमेषु च ।। | 3-62-14a 3-62-14b |
एवंप्रकारैर्बहुभिर्दैवेनाक्रम्य हस्तिभिः। राजन्विनिहतं सर्वं समृद्धं सार्थमण्डलम् ।। | 3-62-15a 3-62-15b |
आरावः सुमहांश्चासीत्रैलोक्यभयकारकः। एषोऽग्निरुत्थितः कष्टस्त्रायध्वं धावताऽधुना ।। | 3-62-16a 3-62-16b |
रत्नराशिर्विशीर्णोऽयं गृह्णीध्वं किं प्रधावत। सामान्यमेतद्द्रविणं न मिथ्या वचनं मम ।। | 3-62-17a 3-62-17b |
पुनरेवाभिधास्यामि चिन्तयध्वं सुकातराः। एवमेवाभिभाषन्तो विद्रवन्ति भयात्तदा ।। | 3-62-18a 3-62-18b |
तस्मिंस्तथा वर्तमाने दारुणे जनसंक्षये। दमयन्ती च बुबुधे भयसंत्रस्तमानसा। अपश्यद्वैशसं तत्र सर्वलोकभयंकरम् ।। | 3-62-19a 3-62-19b 3-62-19c |
अदृष्टपूर्वं तद्दृष्ट्वा बाला पद्मनिभेक्षणा। संसक्तवदनाश्वासा उत्तस्थौ भयविह्वला ।। | 3-62-20a 3-62-20b |
ये तु तत्र विनिर्मुक्ताः सार्थात्केचिदविक्षताः। तेऽब्रुवन्सहिताः सर्वे कस्येदं कर्मणः फलम् ।। | 3-62-21a 3-62-21b |
नूनं न पूजितोऽस्माभिर्मणिभद्रो महायशाः। तथा यक्षाधिपः श्रीमान्न वै वैश्रवणः प्रभुः ।। | 3-62-22a 3-62-22b |
न पूजा विघ्रकर्तॄणामथवा प्रथमं कृता ।। | 3-62-23a |
शकुनानां फलं वाऽथ विपरीतिमिदं ध्रुवम्। ग्रहा न विपरीतास्तु किमन्यदिदमागतम् ।। | 3-62-24a 3-62-24b |
अपरे त्वब्रुवन्दीना ज्ञातिद्रव्यविनाकृता। याऽसावद्य महासार्थे नारी ह्युन्मत्तदर्शना ।। | 3-62-25a 3-62-25b |
प्रविष्टा विकृताकारा कृत्वा रूपममानुषम्। तयैवं विहिता पूर्वं माया परमदारुणा ।। | 3-62-26a 3-62-26b |
राक्षसी वा ध्रुवं यक्षी पिशाची वा भयंकरी। तस्याः सर्वमिदं पापं नात्र कार्या विचारणा ।। | 3-62-27a 3-62-27b |
यदि पश्याम तां पापां सार्थघ्नीं नैकदुःखदाम्। लोष्टभिः पांसुभिश्चैव तृणैः काष्ठैश्च मुष्टिभिः। अवश्यमेव हन्यामः सार्थस्य किल कृत्यकाम् ।। | 3-62-28a 3-62-28b 3-62-28c |
दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा वाक्यं तेषां सुदारुणम्। ह्रीता भीता च संविग्रा प्राद्रवद्यत्र काननम् ।। | 3-62-29a 3-62-29b |
आशङ्कमाना तत्पापमात्मानं पर्यदेवयत् ।। | 3-62-30a |
अहो ममोपरि विधेः संरम्भो दारुणो महान्। नानुबध्नाति कुशलं कस्येदं कर्मणः फलम् ।। | 3-62-31a 3-62-31b |
न स्मराम्यशुभं किंचित्कृतं कस्यचिदण्वपि। कर्मणा मनसा वाचा कस्येदं कर्मणः फलम् ।। | 3-62-32a 3-62-32b |
नूनं जन्मान्तरकृतं पापां माऽऽपतितं महत्। अपश्चिमामिमां कष्टामापदं प्राप्तवत्यहम् ।। | 3-62-33a 3-62-33b |
भर्तृराज्यापहरणं स्वजनाच्च रपराजयः। भर्त्रा सह वियोगश्च तनयाभ्यां च विच्युतिः। निर्नाथता वने वासो बहुव्यालनिषेविते ।। | 3-62-34a 3-62-34b 3-62-34c |
अथापरेद्युः संप्राप्ते हतशिष्टा जनास्तदा। वनगुल्माद्विनिष्क्रम्य शोचन्ते वैशसं कृतम्। भ्रातरं पितरं पुत्रं सखायं च नराधिप ।। | 3-62-35a 3-62-35b 3-62-35c |
`हन्यमाने तदा सार्थे दमयन्ती शुचिस्मिता। ब्राह्मणैः सहिता तत्रवने तु न विनाशिता ।।' | 3-62-36a 3-62-36b |
अशोचत्तत्र वैदर्भी किंनु मे दुष्कतं कृतम्। योपि मे निर्जनेऽरण्ये संप्राप्तोऽयं जनार्णवः ।। | 3-62-37a 3-62-37b |
स हतो हस्तियूथेन मन्दभाग्यान्ममैव तत्। प्राप्तव्यं सुचिरं दुःखं नूनमद्यापि वै मया ।। | 3-62-38a 3-62-38b |
नाप्राप्तकालो म्रियते श्रुतं वृद्धानुशासनम्। या नाहमद्य मृदिता हस्तियूथेन दुःखिता ।। | 3-62-39a 3-62-39b |
न ह्यदैवकृतंकिंचिन्नराणामिह विद्यते। न च मे बालभावेऽपि किंचित्पापकृतं कृतम् ।। | 3-62-40a 3-62-40b |
कर्मणा मनसा वाचा यदिदं दुःखमागतम्। मन्ये स्वयंवरकृतेलोकपाला समागताः ।। | 3-62-41a 3-62-41b |
प्रत्याख्याता मया तत्र नलस्यार्थाय देवताः। नूनं तेषां प्रभावेन वियोगं प्राप्तवत्यहम् ।। | 3-62-42a 3-62-42b |
एवमादीनि दुःखार्ता सा विलप्य वराङ्गना। प्रलापानि तदा तानि दमयन्ती पतिव्रता ।। | 3-62-43a 3-62-43b |
हतशेषैः सह तदा ब्राह्मणैर्वेदपारगैः। अगच्छद्राजशार्दूल दुःखशोकपरायणा ।। | 3-62-44a 3-62-44b |
गच्छन्ती सा चिराद्बाला पुरमासादयन्महत्। सायाह्नि चेदिराजस् सुबाहोः सत्यवादिनः ।। | 3-62-45a 3-62-45b |
`सा तु तच्चारुसर्वाङ्गी सुबाहोस्तुङ्गगोपुरम्।' वस्त्रार्धेन च संवीता प्रविवेश पुरोत्तमम् ।। | 3-62-46a 3-62-46b |
तां विह्वलां कृशां दीनां मुक्तकेशीममार्जिताम्। उन्मत्तामिव गच्छन्तीं ददृशुः पुरवासिनः ।। | 3-62-47a 3-62-47b |
प्रविशन्तीं तु तां दृष्ट्वा चेदिराजपुरीं तदा। अनुजग्मुस्तत्र बाला ग्रामिपुत्राः कुतूहलात् ।। | 3-62-48a 3-62-48b |
सा तैः परिवृताऽगच्छत्समीपं राजवेश्मनः। तां प्रासादगताऽपश्यद्राजमाता जनैर्वृताम् ।। | 3-62-49a 3-62-49b |
धात्रीमुवाच च्छैनामानयेह ममान्तिकम्। जनेन क्लिश्यते बाला दुःखिता शरणार्थिनी ।। | 3-62-50a 3-62-50b |
तादृग्रूपं च पश्यामि विद्योतयति मे गृहम्। उन्मत्तवेषा कल्याणी श्रीरिवायतलोचना ।। | 3-62-51a 3-62-51b |
सा जनं वारयित्वा तं प्रासादतलमुत्तमम्। आरोप्य विस्मिता राजन्दमयन्तीमपृच्छत ।। | 3-62-52a 3-62-52b |
एवमप्यसुखाविष्टा बिभर्षि परमं वपुः। भासि विद्युदिवाभ्रेषु शंस मे काऽसिकस्य वा ।। | 3-62-53a 3-62-53b |
न हि ते मानुषं रूपं भूषणैरपि वर्जितम्। असहाया नरेभ्यश्च नोद्विजस्यमरप्रभे ।। | 3-62-54a 3-62-54b |
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या भैमी वचनमब्रवीत्। मानुषीं मां विजानीहि भर्तारं समनुव्रताम् ।। | 3-62-55a 3-62-55b |
सैरन्ध्रीं जातिसंपन्नां भुजिष्यां कामवासिनीम्। फलमूलाशनामेकां यत्रसायंप्रतिश्रयाम् ।। | 3-62-56a 3-62-56b |
असङ्ख्येयगुणो भर्ता मां च नित्यमनुव्रतः। भक्ताऽहमपि तं वीरं छायेवानुगता पथि ।। | 3-62-57a 3-62-57b |
तस्य दैवात्प्रसङ्गोऽभूदतिमात्रं सुदेवने। द्यूते स निर्जितश्चैव वनमेक उपेयिवान् ।। | 3-62-58a 3-62-58b |
तमेकवसनच्छन्नमुन्म्तमिव विह्वलम्। आश्वासयन्ती भर्तारमहमप्यगमं वनम् ।। | 3-62-59a 3-62-59b |
स कदाचिद्वने वीरः कस्मिंश्चित्कारणान्तरे। क्षुत्परीतस्तु विमना वासश्चैकं व्यसर्जयत् ।। | 3-62-60a 3-62-60b |
तमेकवसना नग्नमुन्मत्तवदचेतसम्। अनुव्रजन्ती बहुला न स्वपामि निशाः सदा ।। | 3-62-61a 3-62-61b |
ततो बहुतिथे काले सुप्तामुत्सृज्य मां क्वचित्। वाससोऽर्धं परिच्छिद्य त्यक्तवान्मामनागसम् ।। | 3-62-62a 3-62-62b |
तं मार्गमाणा भर्तारं दह्यमाना दिवानिशम्। न विन्दाम्यमरप्रख्यं प्रियं प्राणेश्वरं प्रभुम् ।। | 3-62-63a 3-62-63b |
`इत्युक्त्वा साऽनवद्याङ्गी राजमातरमप्युत। स्थिताऽश्रुपरिपूर्णाक्षी वेपमाना सुदुःखिता' ।। | 3-62-64a 3-62-64b |
तामश्रुपरिपूर्णाक्षीं विलपन्तीं तथा बहु। राजमाताऽब्रवीदार्ता भैमीमार्तस्वरां स्वयम् ।। | 3-62-65a 3-62-65b |
वस त्वमिह कल्याणि प्रीतिर्मे परमा त्वयि। मृगयिष्यन्ति ते भद्रे भर्तारं पुरुषा मम ।। | 3-62-66a 3-62-66b |
अपि वा स्वयमागच्छेत्परिधावन्नितस्ततः। इहैव वसती भद्रे भर्तारमुपलप्स्यसे ।। | 3-62-67a 3-62-67b |
राजमातुर्वचः श्रुत्वा दमयन्ती वचोऽब्रवीत्। समयेनोत्सहे वस्तुं त्वि वीरप्रजायिनि ।। | 3-62-68a 3-62-68b |
उच्छिष्टं नैव भुञ्जीयां न कुर्यां पादधावनम्। न चाहं पुरुषानन्यान्प्रभाषेयं कथंचन ।। | 3-62-69a 3-62-69b |
प्रार्थयेद्यदि मां कश्चिद्दण्ड्यस्ते स पुमान्भवेत्। वध्यश्च ते सकृन्मन्द इतिमे व्रतमाहितम् ।। | 3-62-70a 3-62-70b |
भर्तुरन्वेषणार्थं तु पश्येयं ब्राह्मणानहम्। यद्येवमिह वत्स्यामि त्वत्सकाशे न संशयः। अतोऽन्यथा न मे वासो वर्तते हृदये क्वचित् ।। | 3-62-71a 3-62-71b 3-62-71c |
इत्युक्ता दमयन्त्या तु राजमातेदमब्रवीत्। सर्वमेतत्करिष्यामि दिष्ट्या ते व्रतमीदृशम् ।। | 3-62-72a 3-62-72b |
एवमुक्त्वा ततो भैमीं राजमाता विशांपते। उवाचेदं दुहितरं सुनन्दां नाम भारत ।। | 3-62-73a 3-62-73b |
सैरन्ध्रीमभिजानीष्व सुनन्दे देवरूपिणीम्। वयसा तुल्यतां प्राप्ता सखी तव भवत्वियम्। एतया सह मोदस्व निरुद्विग्रमना सदा ।। | 3-62-74a 3-62-74b 3-62-74c |
ततः परमसंहृष्टा सुनन्दा गृहणागमत्। दमयन्तीमुपादाय सखीभिः परिवारिता ।। | 3-62-75a 3-62-75b |
सहसा न्यवसद्राजन्राजपुत्र्या सुनन्दया। चिन्तयन्ती नलं वीरमनिशं वामलोचना ।। | 3-62-76a 3-62-76b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि द्विषष्टितमोऽध्यायः ।। 62 ।। |
3-62-3 यवसं घासः ।। 3-62-4 श्रान्तवाहाः श्रान्तवाहनाः। निवेशाय वासाय ।। 3-62-10 पद्मिन्याः सरस्याः ।। 3-62-28 कृत्यैव कृत्यका। कुत्सिता कृत्या कृत्यकेति वा ताम् ।। 3-62-33 अपश्चिमां अपरावर्तिनीम् ।। 3-62-40 पापकृतंपापं कर्म ।। 3-62-47 अमार्जितां धूसरवेणीम् ।। 3-62-56 भूजिष्यां दासीं। कामवासिनीं यत्रकाम इच्छा तत्रैव वसन्तीम्। यत्र सायंकालस्तत्रैव प्रतिश्रयो गृहं यस्यास्ताम् ।। 3-62-57 भर्तारमपि तं वीरं सीतेवानुगता सदेति क. पाठः। अहं चानुगता वीरं छायेवानपगा सदेति ध. पाठः ।। 3-62-68 हेवीरप्रजायिनि वीरानेव प्रजायते सूते सा वीरप्रजायीनी ।। 3-62-71 यद्येवमिह वस्तव्यं वसाम्यहमसंशयमिति ध. पाठः ।।
आरण्यकपर्व-061 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-063 |