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महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-062

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  312. 312
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  314. 314
  315. 315

दमयन्त्या सार्थेन सह चेदिराजपुरंप्रति प्रस्तानम् ।। 1 ।।
वनमध्ये सरस्तीरशायिनि सार्थे निशीथे पानीयपानायागतगजयूथनिहतभूयिष्ठे दिष्टया दमयन्त्या अपि शेषीकारः ।। 2 ।।
हतावशिष्टेन जनेन सह चेदिराजपुरं गताया दमयन्त्या राजमात्रा स्वान्तःपुराधिवासनम् ।। 3 ।।

बृहृदश्व उवाच। 3-62-1x
सा तच्छ्रुत्वाऽनवद्याङ्गी सार्थवाहवचस्तदा।
जगाम सह तेनैव सार्थेन पतिलालसा ।।
3-62-1a
3-62-1b
अथ काले बहुतिथे वने महति दारुणे।
तटाकं सर्वतोभद्रं पद्मसौगन्धिकायुतम् ।।
3-62-2a
3-62-2b
ददृशुर्वणिजो रम्यं प्रभूतयवसेन्धनम्।
बहुमूलफलोपेतं नानापक्षिनिषेवितम् ।।
3-62-3a
3-62-3b
तं दृष्ट्वा मृष्टसलिलं मनोहारि सुशीतलम्।
सुपरिश्रान्तवाहास्ते निवेशाय मनो दधुः ।।
3-62-4a
3-62-4b
संमते सार्थवाहस्य विविशुर्वनमुत्तमम्।
उवास सार्थः सुमहान्निशामासाद्य पद्मिनीम् ।।
3-62-5a
3-62-5b
अथार्धरात्रसमये निःशब्दे तिमिरे तदा।
सुप्ते सार्थे परिश्रान्ते हस्तियूथमुपागमत्।
पानीयार्थं गिरितटान्मदप्रस्रवणाविलम् ।।
3-62-6a
3-62-6b
3-62-6c
[अथापश्यत सार्थं तं सार्थजान्सुबहून्गजान् ।। 3-62-7a
ते तान्ग्राम्यगजान्दृष्ट्वा सर्वे वनगजास्तदा।
समाद्रवन्त वेगेन जिघांसन्तो मदोत्कटाः ।।
3-62-8a
3-62-8b
तेषामापततां वेगः करिणां दुःसहोऽभवत्।
नगाग्रादिव शीर्णानां शृङ्गाणां पततां क्षितौ।
स्पन्दतामपि नागानां मार्गा नष्टा वनोद्भवाः ।।]
3-62-9a
3-62-9b
3-62-9c
मार्गं संरुद्ध्य संसुप्तं पद्मिन्याः सार्थमुत्तमम्।
ते तं ममर्दुः सहसा वेष्टमानं महीतले ।।
3-62-10a
3-62-10b
महारवं प्रमुञ्चतो वद्ध्यन्ते शरणार्थिनः।
वनगुल्मांश्च धावन्तो निद्रया महतो भयात् ।।
3-62-11a
3-62-11b
केचिद्दन्तैः करैः केचित्केचित्पद्भ्यां हता गजैः ।। 3-62-12a
निहतोष्ट्राश्वबहुलाः पदातिजसंकुलाः।
भयादाधावमानाश् परस्परहतास्तदा ।।
3-62-13a
3-62-13b
घोरान्नादान्विमुञ्चन्तो निपेतुर्धरणीतले।
वृक्षेष्वासज्यसंभग्नाः पतिता विषमेषु च ।।
3-62-14a
3-62-14b
एवंप्रकारैर्बहुभिर्दैवेनाक्रम्य हस्तिभिः।
राजन्विनिहतं सर्वं समृद्धं सार्थमण्डलम् ।।
3-62-15a
3-62-15b
आरावः सुमहांश्चासीत्रैलोक्यभयकारकः।
एषोऽग्निरुत्थितः कष्टस्त्रायध्वं धावताऽधुना ।।
3-62-16a
3-62-16b
रत्नराशिर्विशीर्णोऽयं गृह्णीध्वं किं प्रधावत।
सामान्यमेतद्द्रविणं न मिथ्या वचनं मम ।।
3-62-17a
3-62-17b
पुनरेवाभिधास्यामि चिन्तयध्वं सुकातराः।
एवमेवाभिभाषन्तो विद्रवन्ति भयात्तदा ।।
3-62-18a
3-62-18b
तस्मिंस्तथा वर्तमाने दारुणे जनसंक्षये।
दमयन्ती च बुबुधे भयसंत्रस्तमानसा।
अपश्यद्वैशसं तत्र सर्वलोकभयंकरम् ।।
3-62-19a
3-62-19b
3-62-19c
अदृष्टपूर्वं तद्दृष्ट्वा बाला पद्मनिभेक्षणा।
संसक्तवदनाश्वासा उत्तस्थौ भयविह्वला ।।
3-62-20a
3-62-20b
ये तु तत्र विनिर्मुक्ताः सार्थात्केचिदविक्षताः।
तेऽब्रुवन्सहिताः सर्वे कस्येदं कर्मणः फलम् ।।
3-62-21a
3-62-21b
नूनं न पूजितोऽस्माभिर्मणिभद्रो महायशाः।
तथा यक्षाधिपः श्रीमान्न वै वैश्रवणः प्रभुः ।।
3-62-22a
3-62-22b
न पूजा विघ्रकर्तॄणामथवा प्रथमं कृता ।। 3-62-23a
शकुनानां फलं वाऽथ विपरीतिमिदं ध्रुवम्।
ग्रहा न विपरीतास्तु किमन्यदिदमागतम् ।।
3-62-24a
3-62-24b
अपरे त्वब्रुवन्दीना ज्ञातिद्रव्यविनाकृता।
याऽसावद्य महासार्थे नारी ह्युन्मत्तदर्शना ।।
3-62-25a
3-62-25b
प्रविष्टा विकृताकारा कृत्वा रूपममानुषम्।
तयैवं विहिता पूर्वं माया परमदारुणा ।।
3-62-26a
3-62-26b
राक्षसी वा ध्रुवं यक्षी पिशाची वा भयंकरी।
तस्याः सर्वमिदं पापं नात्र कार्या विचारणा ।।
3-62-27a
3-62-27b
यदि पश्याम तां पापां सार्थघ्नीं नैकदुःखदाम्।
लोष्टभिः पांसुभिश्चैव तृणैः काष्ठैश्च मुष्टिभिः।
अवश्यमेव हन्यामः सार्थस्य किल कृत्यकाम् ।।
3-62-28a
3-62-28b
3-62-28c
दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा वाक्यं तेषां सुदारुणम्।
ह्रीता भीता च संविग्रा प्राद्रवद्यत्र काननम् ।।
3-62-29a
3-62-29b
आशङ्कमाना तत्पापमात्मानं पर्यदेवयत् ।। 3-62-30a
अहो ममोपरि विधेः संरम्भो दारुणो महान्।
नानुबध्नाति कुशलं कस्येदं कर्मणः फलम् ।।
3-62-31a
3-62-31b
न स्मराम्यशुभं किंचित्कृतं कस्यचिदण्वपि।
कर्मणा मनसा वाचा कस्येदं कर्मणः फलम् ।।
3-62-32a
3-62-32b
नूनं जन्मान्तरकृतं पापां माऽऽपतितं महत्।
अपश्चिमामिमां कष्टामापदं प्राप्तवत्यहम् ।।
3-62-33a
3-62-33b
भर्तृराज्यापहरणं स्वजनाच्च रपराजयः।
भर्त्रा सह वियोगश्च तनयाभ्यां च विच्युतिः।
निर्नाथता वने वासो बहुव्यालनिषेविते ।।
3-62-34a
3-62-34b
3-62-34c
अथापरेद्युः संप्राप्ते हतशिष्टा जनास्तदा।
वनगुल्माद्विनिष्क्रम्य शोचन्ते वैशसं कृतम्।
भ्रातरं पितरं पुत्रं सखायं च नराधिप ।।
3-62-35a
3-62-35b
3-62-35c
`हन्यमाने तदा सार्थे दमयन्ती शुचिस्मिता।
ब्राह्मणैः सहिता तत्रवने तु न विनाशिता ।।'
3-62-36a
3-62-36b
अशोचत्तत्र वैदर्भी किंनु मे दुष्कतं कृतम्।
योपि मे निर्जनेऽरण्ये संप्राप्तोऽयं जनार्णवः ।।
3-62-37a
3-62-37b
स हतो हस्तियूथेन मन्दभाग्यान्ममैव तत्।
प्राप्तव्यं सुचिरं दुःखं नूनमद्यापि वै मया ।।
3-62-38a
3-62-38b
नाप्राप्तकालो म्रियते श्रुतं वृद्धानुशासनम्।
या नाहमद्य मृदिता हस्तियूथेन दुःखिता ।।
3-62-39a
3-62-39b
न ह्यदैवकृतंकिंचिन्नराणामिह विद्यते।
न च मे बालभावेऽपि किंचित्पापकृतं कृतम् ।।
3-62-40a
3-62-40b
कर्मणा मनसा वाचा यदिदं दुःखमागतम्।
मन्ये स्वयंवरकृतेलोकपाला समागताः ।।
3-62-41a
3-62-41b
प्रत्याख्याता मया तत्र नलस्यार्थाय देवताः।
नूनं तेषां प्रभावेन वियोगं प्राप्तवत्यहम् ।।
3-62-42a
3-62-42b
एवमादीनि दुःखार्ता सा विलप्य वराङ्गना।
प्रलापानि तदा तानि दमयन्ती पतिव्रता ।।
3-62-43a
3-62-43b
हतशेषैः सह तदा ब्राह्मणैर्वेदपारगैः।
अगच्छद्राजशार्दूल दुःखशोकपरायणा ।।
3-62-44a
3-62-44b
गच्छन्ती सा चिराद्बाला पुरमासादयन्महत्।
सायाह्नि चेदिराजस् सुबाहोः सत्यवादिनः ।।
3-62-45a
3-62-45b
`सा तु तच्चारुसर्वाङ्गी सुबाहोस्तुङ्गगोपुरम्।'
वस्त्रार्धेन च संवीता प्रविवेश पुरोत्तमम् ।।
3-62-46a
3-62-46b
तां विह्वलां कृशां दीनां मुक्तकेशीममार्जिताम्।
उन्मत्तामिव गच्छन्तीं ददृशुः पुरवासिनः ।।
3-62-47a
3-62-47b
प्रविशन्तीं तु तां दृष्ट्वा चेदिराजपुरीं तदा।
अनुजग्मुस्तत्र बाला ग्रामिपुत्राः कुतूहलात् ।।
3-62-48a
3-62-48b
सा तैः परिवृताऽगच्छत्समीपं राजवेश्मनः।
तां प्रासादगताऽपश्यद्राजमाता जनैर्वृताम् ।।
3-62-49a
3-62-49b
धात्रीमुवाच च्छैनामानयेह ममान्तिकम्।
जनेन क्लिश्यते बाला दुःखिता शरणार्थिनी ।।
3-62-50a
3-62-50b
तादृग्रूपं च पश्यामि विद्योतयति मे गृहम्।
उन्मत्तवेषा कल्याणी श्रीरिवायतलोचना ।।
3-62-51a
3-62-51b
सा जनं वारयित्वा तं प्रासादतलमुत्तमम्।
आरोप्य विस्मिता राजन्दमयन्तीमपृच्छत ।।
3-62-52a
3-62-52b
एवमप्यसुखाविष्टा बिभर्षि परमं वपुः।
भासि विद्युदिवाभ्रेषु शंस मे काऽसिकस्य वा ।।
3-62-53a
3-62-53b
न हि ते मानुषं रूपं भूषणैरपि वर्जितम्।
असहाया नरेभ्यश्च नोद्विजस्यमरप्रभे ।।
3-62-54a
3-62-54b
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या भैमी वचनमब्रवीत्।
मानुषीं मां विजानीहि भर्तारं समनुव्रताम् ।।
3-62-55a
3-62-55b
सैरन्ध्रीं जातिसंपन्नां भुजिष्यां कामवासिनीम्।
फलमूलाशनामेकां यत्रसायंप्रतिश्रयाम् ।।
3-62-56a
3-62-56b
असङ्ख्येयगुणो भर्ता मां च नित्यमनुव्रतः।
भक्ताऽहमपि तं वीरं छायेवानुगता पथि ।।
3-62-57a
3-62-57b
तस्य दैवात्प्रसङ्गोऽभूदतिमात्रं सुदेवने।
द्यूते स निर्जितश्चैव वनमेक उपेयिवान् ।।
3-62-58a
3-62-58b
तमेकवसनच्छन्नमुन्म्तमिव विह्वलम्।
आश्वासयन्ती भर्तारमहमप्यगमं वनम् ।।
3-62-59a
3-62-59b
स कदाचिद्वने वीरः कस्मिंश्चित्कारणान्तरे।
क्षुत्परीतस्तु विमना वासश्चैकं व्यसर्जयत् ।।
3-62-60a
3-62-60b
तमेकवसना नग्नमुन्मत्तवदचेतसम्।
अनुव्रजन्ती बहुला न स्वपामि निशाः सदा ।।
3-62-61a
3-62-61b
ततो बहुतिथे काले सुप्तामुत्सृज्य मां क्वचित्।
वाससोऽर्धं परिच्छिद्य त्यक्तवान्मामनागसम् ।।
3-62-62a
3-62-62b
तं मार्गमाणा भर्तारं दह्यमाना दिवानिशम्।
न विन्दाम्यमरप्रख्यं प्रियं प्राणेश्वरं प्रभुम् ।।
3-62-63a
3-62-63b
`इत्युक्त्वा साऽनवद्याङ्गी राजमातरमप्युत।
स्थिताऽश्रुपरिपूर्णाक्षी वेपमाना सुदुःखिता' ।।
3-62-64a
3-62-64b
तामश्रुपरिपूर्णाक्षीं विलपन्तीं तथा बहु।
राजमाताऽब्रवीदार्ता भैमीमार्तस्वरां स्वयम् ।।
3-62-65a
3-62-65b
वस त्वमिह कल्याणि प्रीतिर्मे परमा त्वयि।
मृगयिष्यन्ति ते भद्रे भर्तारं पुरुषा मम ।।
3-62-66a
3-62-66b
अपि वा स्वयमागच्छेत्परिधावन्नितस्ततः।
इहैव वसती भद्रे भर्तारमुपलप्स्यसे ।।
3-62-67a
3-62-67b
राजमातुर्वचः श्रुत्वा दमयन्ती वचोऽब्रवीत्।
समयेनोत्सहे वस्तुं त्वि वीरप्रजायिनि ।।
3-62-68a
3-62-68b
उच्छिष्टं नैव भुञ्जीयां न कुर्यां पादधावनम्।
न चाहं पुरुषानन्यान्प्रभाषेयं कथंचन ।।
3-62-69a
3-62-69b
प्रार्थयेद्यदि मां कश्चिद्दण्ड्यस्ते स पुमान्भवेत्।
वध्यश्च ते सकृन्मन्द इतिमे व्रतमाहितम् ।।
3-62-70a
3-62-70b
भर्तुरन्वेषणार्थं तु पश्येयं ब्राह्मणानहम्।
यद्येवमिह वत्स्यामि त्वत्सकाशे न संशयः।
अतोऽन्यथा न मे वासो वर्तते हृदये क्वचित् ।।
3-62-71a
3-62-71b
3-62-71c
इत्युक्ता दमयन्त्या तु राजमातेदमब्रवीत्।
सर्वमेतत्करिष्यामि दिष्ट्या ते व्रतमीदृशम् ।।
3-62-72a
3-62-72b
एवमुक्त्वा ततो भैमीं राजमाता विशांपते।
उवाचेदं दुहितरं सुनन्दां नाम भारत ।।
3-62-73a
3-62-73b
सैरन्ध्रीमभिजानीष्व सुनन्दे देवरूपिणीम्।
वयसा तुल्यतां प्राप्ता सखी तव भवत्वियम्।
एतया सह मोदस्व निरुद्विग्रमना सदा ।।
3-62-74a
3-62-74b
3-62-74c
ततः परमसंहृष्टा सुनन्दा गृहणागमत्।
दमयन्तीमुपादाय सखीभिः परिवारिता ।।
3-62-75a
3-62-75b
सहसा न्यवसद्राजन्राजपुत्र्या सुनन्दया।
चिन्तयन्ती नलं वीरमनिशं वामलोचना ।।
3-62-76a
3-62-76b
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि
नलोपाख्यानपर्वणि द्विषष्टितमोऽध्यायः ।। 62 ।।

3-62-3 यवसं घासः ।। 3-62-4 श्रान्तवाहाः श्रान्तवाहनाः। निवेशाय वासाय ।। 3-62-10 पद्मिन्याः सरस्याः ।। 3-62-28 कृत्यैव कृत्यका। कुत्सिता कृत्या कृत्यकेति वा ताम् ।। 3-62-33 अपश्चिमां अपरावर्तिनीम् ।। 3-62-40 पापकृतंपापं कर्म ।। 3-62-47 अमार्जितां धूसरवेणीम् ।। 3-62-56 भूजिष्यां दासीं। कामवासिनीं यत्रकाम इच्छा तत्रैव वसन्तीम्। यत्र सायंकालस्तत्रैव प्रतिश्रयो गृहं यस्यास्ताम् ।। 3-62-57 भर्तारमपि तं वीरं सीतेवानुगता सदेति क. पाठः। अहं चानुगता वीरं छायेवानपगा सदेति ध. पाठः ।। 3-62-68 हेवीरप्रजायिनि वीरानेव प्रजायते सूते सा वीरप्रजायीनी ।। 3-62-71 यद्येवमिह वस्तव्यं वसाम्यहमसंशयमिति ध. पाठः ।।

आरण्यकपर्व-061 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आरण्यकपर्व-063