महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-116
दिखावट
← आरण्यकपर्व-115 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-116 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-117 → |
अकृतव्रणएन मुनिना युधिष्ठिरंप्ति परशुरामचरित्रकीर्तनारम्भः ।। 1 ।। ऋचीकेन भृगुसुतेन दिव्याश्वसहस्रशुल्कदानेन गाधिकन्यापरिणयनम् ।। 2 ।। गाधिसुतया सत्यवत्या भूगुप्रसादाज्जमदग्निनामकतवयोत्पादनम् ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-116-1x |
स तत्र तामुषित्वैकां रजनीं पृथिवीपतिः। तापसानां परं चक्रे सत्कारं भ्रातृभिः सह ।। | 3-116-1a 3-116-1b |
लोमशस्तस्य तान्सर्वानाचख्यौ तत्र तापसान्। भृगूनङ्गिरसश्चैव वसिष्ठानथ काश्यपान् ।। | 3-116-2a 3-116-2b |
तान्समेत्य सा राजर्षिरभिवाद्य कृताञ्जलिः। रामस्यानुचरं वीरमपृच्छदकृतव्रणम् ।। | 3-116-3a 3-116-3b |
कदा नु रामो भगवांस्तापसो दर्शयिष्यति। तमहं तपसा युक्तं द्रष्टुमिच्छामि भार्गवम् ।। | 3-116-4a 3-116-4b |
अकृतव्रण उवाच। | 3-116-5x |
आयानेवासि विदितो रामस्य विदितात्मनः। प्रीतिस्त्वयि च रामस्य क्षिप्रं त्वां दर्शयिष्यति ।। | 3-116-5a 3-116-5b |
चतुर्दशीमष्टमीं च रामं पश्यन्ति तापसाः। अस्यां रात्र्यां व्यतीतायां भवित्री श्वश्चतुर्दशी ।। | 3-116-6a 3-116-6b |
`ततो द्रक्ष्यसि रामं त्वं कृष्णाजिनजटाधरम्'। | 3-116-7a |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-116-7x |
भवाननुगतो रामं जामदग्न्यं महाबलम्। प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य पूर्ववृत्तस्य कर्मणः ।। | 3-116-7b 3-116-7c |
स भवान्कथयत्वद्य यथा रामेण निर्जिताः। आहवे क्षत्रियाः सर्वे कथं केन च हेतुना ।। | 3-116-8a 3-116-8b |
अकृतव्रण उवाच। | 3-116-9x |
[हन्त ते कथयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम्। भृगूणां राजशार्दूल वंशे जातस्य भारत ।। | 3-116-9a 3-116-9b |
रामस्य जामदग्न्यस्य चरितं देवसंमितम्। हैहयाधिपतेश्चैव कार्तवीर्यस् भारत ।। | 3-116-10a 3-116-10b |
रामेण चार्जुनो नाम हैहयाधिपतिर्हतिः। तस्य बाहुशतान्यासंस्त्रीणि सप्त च पाण्डव ।। | 3-116-11a 3-116-11b |
दत्तात्रेयप्रसादेन विमानं काञ्चनं तथा। ऐश्वर्यं सर्वभूतेषु पृथिव्यां पृथिवीपते ।। | 3-116-12a 3-116-12b |
अव्घाहतगतिश्चैव रथस्तस्य महात्मनः। रथेन तेन तु सदावरदानेन वीर्यवान् ।। | 3-116-13a 3-116-13b |
ममर्द देवान्यक्षांश्च ऋषींश्चैव समन्ततः। भूतांश्चैव स सर्वांस्तु पीडयामास सर्वतः ।। | 3-116-14a 3-116-14b |
ततो देवाः समेत्याहुर्ऋषयश्च महाव्रताः। देवदेवं सुरारिघ्नं विष्णुं सत्यपराक्रमम्। भगवन्भूतरार्थमर्जुनं जहि वै प्रभो ।। | 3-116-15a 3-116-15b 3-116-15c |
विमानेन च दिव्येन हैहयाधिपतिः प्रभुः। शचीसहायं क्रीडन्तं धर्षयामास वासवम् ।। | 3-116-16a 3-116-16b |
ततस्तु भगवान्देवः शक्रेण सहितस्तदा। कार्तवीर्यविनाशार्थं मन्त्रयामास भारत ।। | 3-116-17a 3-116-17b |
यत्तद्भूतहितं कार्यं सुरेन्द्रेण निवेदितम्। संप्रतिश्रुत्य तत्सर्वं भगवाँल्लोकपूजितः। जगाम बदरीं रम्यां स्वमेवाश्रममण्डलम् ।। | 3-116-18a 3-116-18b 3-116-18c |
एतस्मिन्नेव काले तु पृथिव्यां पृथिवीपतिः।] कान्यकुब्जे महानासीत्पार्थिवः सुमहाबलः। गाधीति विश्रुतो लोके वनवासं जगाम ह ।। | 3-116-19a 3-116-19b 3-116-19c |
वने तु तस्य वसतः कन्या जज्ञेऽप्सरःसमा। ऋचीको भार्गवस्तां च वरयामास भारत ।। | 3-116-20a 3-116-20b |
तमुवाच ततो गाधिर्ब्राह्मणं संशितव्रतम्। उचितं नः कुले किंचित्पूर्वैर्यत्संप्रवर्तितम् ।। | 3-116-21a 3-116-21b |
एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्। सहस्रं वाजिनां शुक्लमिति विद्धि द्विजोत्तम ।। | 3-116-22a 3-116-22b |
न चापि भगवान्वाच्योदीयतामिति भार्गव। देया मे दुहिता चैव त्वद्विधाय महात्मने ।। | 3-116-23a 3-116-23b |
ऋचीक उवाच। | 3-116-24x |
एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्। दास्याम्यश्वसहस्रं ते मम भार्या सुताऽस्तु ते ।। | 3-116-24a 3-116-24b |
`गाधिरुवाच। | 3-116-25x |
ददास्यश्वसहस्रं मे तव भार्या सुताऽस्तु मे' ।। | 3-116-25a |
अकृतव्रण उवाच। | 3-116-26x |
स तथेति प्रतिज्ञाय राजन्वरुणमब्रवीत्। एकतः श्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरस्विनाम्। सहस्रं वाजिनामेकं शुल्कार्थं प्रतिदीयताम् ।। | 3-116-26a 3-116-26b 3-116-26c |
तस्मै प्रादात्सहस्रं वै वाजिनां वरुणस्तदा। तदश्वतीर्थं विख्यातमुत्थिता यत्र ते हयाः ।। | 3-116-27a 3-116-27b |
गङ्गायां कान्यकुब्जे वै ददौ सत्यवतीं तदा। ततो गाधिः सुतां चास्मै जन्याश्चासन्सुरास्तदा ।। | 3-116-28a 3-116-28b |
लब्धं हयसहस्रं तु तां च दृष्ट्वा दिवौकसः। `विस्मयं परमं जग्मुस्तमेव दिवि संस्तुवन्' ।। | 3-116-29a 3-116-29b |
धर्मेण लब्ध्वा तां भार्यामृचीको द्विजसत्तमः। यथाकामं यथाजोषं तया रेमे सुमध्यया ।। | 3-116-30a 3-116-30b |
तं विवाहे कृतेराजन्सभार्यमवलोककः। आजगाम भृगुश्रेष्ठः पुत्रं दृष्ट्वा ननन्द च ।। | 3-116-31a 3-116-31b |
भार्यापती तमासीनं भृगुं सुरगणार्चितम्। अर्चित्वा पर्युपासीनौ प्राञ्जली तस्थतुस्तदा ।। | 3-116-32a 3-116-32b |
ततः स्नुषां स भगवान्प्रहृष्टो भृगुरब्रवीत्। वरं वृणीष्व सुभगे दाता ह्यस्मि तवेप्सितम् ।। | 3-116-33a 3-116-33b |
सा वै प्रसादयाभास तं गुरुं पुत्रकारणात्। आत्मनश्चैव मातुश्च प्रसादं च चकार सः ।। | 3-116-34a 3-116-34b |
भृगुरुवाच। | 3-116-35x |
ऋतौ त्वं चैव माता च स्नाते पुंसवनाय वै। आलिङ्गेतां पृथग्वृक्षौ साऽस्वत्थं त्वमुदुम्बरम् ।। | 3-116-35a 3-116-35b |
चरुद्वयमिदं भद्रे जनन्याश्च तवैव च। विश्वमावर्तयित्वा तु मया यत्नेन साधितम् ।। | 3-116-36a 3-116-36b |
प्राशितव्यं प्रयत्नेन तेत्युक्त्वाऽदर्शनं गतः। आलिङ्गने चरौ चैव चक्रतुस्ते विपर्ययम् ।। | 3-116-37a 3-116-37b |
ततः पुन स भगवान्काले बहुतिथे गते। दिव्यज्ञानाद्विदित्वा तु भगवानागतः पुनः ।। | 3-116-38a 3-116-38b |
अथोवाच महातेजा भृगुः सत्यवतीं श्नुषाम् ।। | 3-116-39a |
उपयुक्तश्चरुर्भद्रे वृक्षे चालिङ्गनं कृतम्। विपरीतेन ते सुभ्रूर्मात्रा चैवासि वञ्चिता ।। | 3-116-40a 3-116-40b |
क्षत्रियो ब्राह्मणाचारो मातुस्तव सुतो महान्। भविष्यति महावीर्यः साधूनां मार्गमास्थितः ।। | 3-116-41a 3-116-41b |
ततः प्रसादयामास श्वशुरं सा पुनःपुनः। न मे पुत्रो भवेदीदृक्कामं पौत्रो भवेदिति ।। | 3-116-42a 3-116-42b |
एवमस्त्विति सा तेन पाण्डव प्रतिनन्दिता। क्रालं प्रतीक्षती गर्भं धारयामास यत्नतः ।। | 3-116-43a 3-116-43b |
जमदग्निं ततः पुत्रं जज्ञे सा काल आगते। तेजसा वर्चसा चैव युक्तं भार्गवनन्दनम् ।। | 3-116-44a 3-116-44b |
स वर्धमानस्तेजस्वी वेदस्याध्ययनेन च। बहूनृषीन्महातेजाः पाण्डवेयात्यवर्तत ।। | 3-116-45a 3-116-45b |
तं तु कृत्स्नो धनुर्वेदः प्रत्यभाद्भरतर्षभ। चतुर्विधानि चास्त्राणि भास्करोपमवर्चसम् ।। | 3-116-46a 3-116-46b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ।। 116 ।। |
3-116-4 तापसान्दर्शयिष्यति। तेनैवाहंप्रसङ्गेनेति झ. पाठः ।। 3-116-5 आयान् आगच्छन् ।। 3-116-28 जन्याः वरपक्षीयाः। ततो गाधिः सुतां तस्मै ददौ कन्यां नृपोत्तमेति क. पाठः ।। 3-116-29 लब्ध्वा हयसहस्रं तद्देवानां सन्निधौ तदेति क. पाठः ।। 3-116-31 अवलोककः अवलोकनार्थी ।। 3-116-36 विश्वंविराटपुरुषं आवर्तयित्वामुहुर्मुहुरनुसंधाय एतयोश्चर्वोर्भक्षणेन विश्वस्रष्टृतुल्यौ पुत्रौ भविष्यत इति भावः ।। 3-116-37 ते उभे प्रति इत्युक्त्वेतीकारलोपः संधिर्वा आर्षः। आलिङ्गने अश्वत्थोदुम्बरयोः ।।
आरण्यकपर्व-115 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-117 |