महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-175
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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निवातकवचवधानन्तरं स्वर्गंप्रत्यागच्छताऽर्जुनेन मध्येमार्गं हिरण्यपुरावलोकनम् ।। 1 ।।
ततस्तद्वासिनां पौलोमानां कालकेयानां च वधानन्तरं पुनः स्वर्गं प्रत्यागमनम् ।। 2 ।।
अर्जुन उवाच। | 3-175-1x |
निवर्तमानेन मया महद्दृष्टं ततोऽपरम्। पुरं कामगमं दिव्यं पावकार्कसमप्रभम् ।। | 3-175-1a 3-175-1b |
रत्नद्रुममयैश्चित्रैर्भास्वरैश्च पतत्रिभिः। पौलोमैः कालकेयैश्च रनित्यहृष्टैरधिष्ठिरतम् ।। | 3-175-2a 3-175-2b |
गोपुराट्टालकोपेतं चतुर्द्वारं दुरासदम्। सर्वरत्नमयं दिव्यमद्भुतोपमदर्शनम् ।। | 3-175-3a 3-175-3b |
द्रुमैः पुष्पलोपेतैः सर्वरत्नमयैर्वृतम्। तथा पतत्रिभिर्दिव्यैरुपेतं सुमनोहरैः ।। | 3-175-4a 3-175-4b |
असुरैर्नित्यमुदितैः शूलर्ष्टिमुसलायुधैः। चापमुद्गरहस्तैश्च स्रग्विभिः सर्वतो वृतम् ।। | 3-175-5a 3-175-5b |
तदहं प्रेक्ष्यदैत्यानां पुरमद्भुतदर्शनम्। अपृच्छं मातलिं राजन्किमिदं दृश्यतेति वै ।। | 3-175-6a 3-175-6b |
मातलिरुवाच। | 3-175-7x |
पुलोमा नाम दैतेयी कालका च महासुरी। दिव्यंवर्षसहस्रं ते चेरतुः परमं तपः ।। | 3-175-7a 3-175-7b |
तपसोन्ते ततस्ताभ्यां स्वयंभूरददाद्वरम्। अगृह्णीतां वरं ते तु सुतानामल्पदुःखताम् ।। | 3-175-8a 3-175-8b |
अवध्यतां च राजेन्द्र सुरराक्षसपन्नगैः। पुरं सुरमणीयं च स्वचरं सुकृतप्रभम् ।। | 3-175-9a 3-175-9b |
सर्वरत्नैः समुदितं दुर्धर्षममरैरपि। महर्षियक्षगन्धर्वपन्नगासुरराक्षसैः ।। | 3-175-10a 3-175-10b |
सर्वकामगुणोपेतं वीतशोकमनामयम्। ब्र्हमणो भवनाच्छ्रेष्ठं कालकेयकृतं विभो ।। | 3-175-11a 3-175-11b |
तदेतत्खपुरं दिव्यं चरत्यमरवर्जितम्। पौलोमाध्युषितं वीर कालकेयैश्च दानवैः ।। | 3-175-12a 3-175-12b |
हिरण्यपुरमित्येवं ख्यायते नगरं महत्। रक्षितंकालकेयैश्च पौलोमैश्च महासुरैः ।। | 3-175-13a 3-175-13b |
त एतेमुदिता राजन्नवध्याः सर्वदैवतैः। निवसन्त्यत्रराजेन्द्र गतोद्वेगा निरुत्सुकाः ।। | 3-175-14a 3-175-14b |
`सुरासुरैरवध्यानां दानवानां धनञ्जय'। मानुषान्मृत्युरेतेषां निर्दिष्टो ब्रह्मणा पुरा ।। | 3-175-15a 3-175-15b |
[एतानपि रणे पार्त कालकेयान्दुरासदान्। वज्रास्त्रेण नयस्वाशु विनाशं सुमहाबलान्] ।। | 3-175-16a 3-175-16b |
अर्जुन उवाच। | 3-175-17x |
सुरासुरैरवध्यं तदहं ज्ञात्वा विशांपते। अब्रुवं मातलिं हृष्टो याह्येतत्पुरमञ्जसा ।। | 3-175-17a 3-175-17b |
त्रिदशेशद्विषो यावत्क्षयमस्त्रैर्नयाम्यहम्। न कथंचिद्धि मे पापा न वध्या ये सुरद्विषः ।। | 3-175-18a 3-175-18b |
उवाह मां ततः शीघ्रं हिरण्यपुरमन्तिकात्। रथेन तेन दिव्येन हरियुक्तेन मातलिः ।। | 3-175-19a 3-175-19b |
ते मामालक्ष्य दैतेया विचित्राभरणाम्बराः। समुत्पेतुर्महावेगा रथानास्थाय दंशिताः ।। | 3-175-20a 3-175-20b |
ततो नालीकनाराचैर्भल्लैः शक्त्यृष्टितोमरैः। प्रत्यघ्नन्दानवेन्द्रा मां क्रुद्धास्तीव्रपराक्रमाः ।। | 3-175-21a 3-175-21b |
तदहं शस्त्रवर्षेण महता प्रत्यवारयम्। शस्त्रवर्षं महद्राजन्विद्याबलमुपाश्रितः ।। | 3-175-22a 3-175-22b |
व्यामोहयं च तान्सर्वान्रथमार्गैश्चरन्रणे। तेऽन्योन्यमभिसंमूढाः पातयन्ति स्म दानवाः ।। | 3-175-23a 3-175-23b |
तेषामेवं विमूढानामन्योन्यमभिधावताम्। शिरांसि विशिखैर्दीप्तैरच्छिन्दं शतसङ्घशः ।। | 3-175-24a 3-175-24b |
ते वध्यमाना दैतेयाः पुरमास्थाय तत्पुनः। खमुत्पेतुः सनगरा मायामास्थाय दानवीम् ।। | 3-175-25a 3-175-25b |
ततोऽहं शरवर्षेण महता कुरुनन्दन। मार्गमावृत्य दैत्यानां गतिं चैषामवारयम् ।। | 3-175-26a 3-175-26b |
तत्पुरं खचरं दिव्यं कामगं दिव्यवर्चसम्। दैतेयैर्वरदानेन धार्यते स्म यथासुखम् ।। | 3-175-27a 3-175-27b |
अन्तर्भूमौ निपतति पुनरूर्ध्वं प्रतिष्ठते। पुनस्तिर्यक् प्रयात्याशु पुनरप्सु निमज्जति ।। | 3-175-28a 3-175-28b |
अमरावतिसंकाशं तत्पुरं कामगं महत्। अहमस्त्रैर्बहुविधैः प्रत्यगृह्णां परंतप ।। | 3-175-29a 3-175-29b |
ततोऽहं शरजालेन दिव्यास्त्रनुदितेन च। व्यगृह्णां सह दैतेयैस्तत्पुरं पुरुषर्षभ ।। | 3-175-30a 3-175-30b |
विक्षत चायसैर्बाणैर्मत्प्रयुक्तैरजिह्मगैः। महीमभ्यपतद्राजन्प्रभग्नं पुरमासुरम् ।। | 3-175-31a 3-175-31b |
ते वध्यमाना मद्बाणैर्वज्रवेगैरयस्मयैः। पर्यभ्रमन्त वै राजन्नसुराः कालचोदिताः ।। | 3-175-32a 3-175-32b |
ततो मातलिरारुह्यपुरस्तान्निपतन्निव। महीमवातरत्क्षिप्रं रथेनादित्यवर्चसा ।। | 3-175-33a 3-175-33b |
ततो रथसहस्राणि षष्टिस्तेषाममर्षिणाम्। युयुत्सूनां मया सार्धं पर्यवर्तन्त भारत। तान्यहं निशितैर्बाणैर्व्यधमं गार्ध्रराजितैः ।। | 3-175-34a 3-175-34b 3-175-34c |
ते युद्धे संन्यवर्तन्त समुद्रस्य यथोर्मयः। नेमे शक्या मानुषेण युद्धेनेति प्रचिन्त्य तत् ।। | 3-175-35a 3-175-35b |
ततोऽहमानुपूर्व्येण दिव्यान्यस्त्राण्ययोजयम् ।। | 3-175-36a |
ततस्तानि सहस्राणइ रथिनां चित्रयोधिनाम्। अस्त्राणि मम दिव्यानि प्रत्यघ्नञ्छनकैरिव ।। | 3-175-37a 3-175-37b |
रथमार्गान्विचित्रांस्ते विचरन्तो महाबलाः। प्रत्यदृश्यन्त संग्रामे शतशोऽथ सहस्रशः ।। | 3-175-38a 3-175-38b |
विचित्रमुकुटापीडा विचित्रकवचध्वजाः। विचित्राभरणाश्चैव मम प्रीतिकराऽभवन् ।। | 3-175-39a 3-175-39b |
अहं तुशरवर्षैस्तानस्त्रप्रचुदितै रणे। नाशक्रुवं पीडयितुं ते तु मां प्रत्यपीडयन् ।। | 3-175-40a 3-175-40b |
तैः पीड्यमानो बहुभिः कृतास्त्रैः कुशलैर्युधि। व्यथितोस्मि महायुद्धे भयं चागान्महन्मम ।। | 3-175-41a 3-175-41b |
`ततोहं परमायत्तो मातलिं परिपृष्टवान् ।। | 3-175-42a |
किमेते मम बाणौघैर्दिव्यास्त्रप्रतिमन्त्रितैः। न वध्यन्ते महाघोरैस्तत्त्वमाख्याहि पृच्छतः ।। | 3-175-43a 3-175-43b |
स मामुवाच पर्याप्तस्त्वमेषां भरतर्षभ। तानुद्दिश्याथ मर्माणि प्रतिघातं तदाचर ।। | 3-175-44a 3-175-44b |
एतच्छ्रुत्वा तु राजेनद्रसंप्रहृष्टस्तमूचिवान्। निवर्तय रथं शीघ्रं पश्य चैतान्निपातितान् ।। | 3-175-45a 3-175-45b |
एवमुक्तो रथं तत्र मातलिः पर्यवर्तयत् ।। | 3-175-46a |
ततो मत्वा रणे भग्नं दानवाः प्रतिहर्षिताः। विचुक्रुशुर्महाराज स्वरेण महता मुहुः ।। | 3-175-47a 3-175-47b |
अभग्नः कैश्चिदप्येष पाण्डवो रणमूर्धनि। अस्माभिः समरे भग्न इत्येवं संघशस्तदा ।। | 3-175-48a 3-175-48b |
ततोहं देवदेवाय रुद्रायाव्यक्तमूर्तये। प्रयतः प्रणतो भूत्वा नमस्कृत्य महात्मने'। यत्तद्रौद्रमिति ख्यातं सर्वामित्रविनाशनम् ।। | 3-175-49a 3-175-49b 3-175-49c |
यत्तद्रौद्रमिति ख्यातं सर्वामित्रविनाशनम्। `महत्पाशुपतं दिव्यं सर्वलोकनमस्कृतम्' ।। | 3-175-50a 3-175-50b |
`ततोऽपश्यं त्रिशिरसं पुरुषं नवलोचनम्। त्रिमुखं षङ्भुजं दीप्तमर्कज्वलनमूर्धजम्। लेलिहानैर्महानागैः कृतचिह्नममित्रहन् ।। | 3-175-51a 3-175-51b 3-175-51c |
विभीस्ततस्तदस्त्रं तु घोरं रौद्रं सनातनम्। दृष्ट्वा गाण्डीवसंयोगमानीय भरतर्षभ ।। | 3-175-52a 3-175-52b |
नमस्कृत्वा त्रिनेत्राय शर्वायामिततेजसे। मुक्तवान्दानवेन्द्राणां पराभावाय भारत ।। | 3-175-53a 3-175-53b |
मुक्तमात्रे ततस्तस्मिन्रूपाण्यासन्सहस्रशः। मृगाणामथ सिंहानां व्याग्राणां च विशांपते ।। | 3-175-54a 3-175-54b |
ऋक्षाणां महिषाणां च पन्नगानां तथा गवाम्। शरभाणां गजानां च वानराणां च सङ्घशः। ऋषभाणां वराहाणां मार्जाराणां तथैव च ।। | 3-175-55a 3-175-55b 3-175-55c |
सालावृकाणां प्रेतानां भुरुण्डानां च सर्वशः। गृध्राणां गरुडानां च चमराणां तथैव च ।। | 3-175-56a 3-175-56b |
देवानां च ऋषीणां रच गन्धर्वाणां च सर्वशः। पिशाचानां सयक्षाणां तथैव च सुरद्विषाम् ।। | 3-175-57a 3-175-57b |
गुह्यकानां च संग्रामे नैर्ऋतानां तथैव च। झषाणां गजवक्राणामुलूकानां तथैव च ।। | 3-175-58a 3-175-58b |
मीनवाजिसरूपाणां नानाशस्त्रासिपाणिनाम्। तथैव यातुधानानां गदामुद्गरधारिणाम् ।। | 3-175-59a 3-175-59b |
एतैस्चान्यैश्च बहुभिर्नानारूपधरैस्तदा। सर्वमासीज्जगद्व्याप्तं तस्मिन्नस्त्रे विसर्जिते ।। | 3-175-60a 3-175-60b |
त्रिशिरोभिश्चतुर्दंष्ट्रैश्चतुरास्यैश्चतुर्भुजैः। अनेकरूपसंयुक्तैर्मांसमेदोवसास्तिभिः ।। | 3-175-61a 3-175-61b |
अभीक्ष्णं वध्यमानास्ते दानवा ये समागताः। अर्कज्वलनतेजोभिर्वज्राशनिसमप्रभैः ।। | 3-175-62a 3-175-62b |
अद्रिसारमयैश्चान्यैर्बाणैरपि निबर्हणैः। न्यहनं दानवान्सर्वान्मुहूर्तेनैव भारत ।। | 3-175-63a 3-175-63b |
गाण्डीवास्त्रप्रणुन्नांस्तान्गतासून्नभसश्च्युतान्। दृष्ट्वाऽहं प्राणमं भूयस्त्रिपुरघ्नाय वेधसे ।। | 3-175-64a 3-175-64b |
तथा रौद्रास्त्रनिष्पिष्टान्दिव्याभरणभूषितान्। निशाम्य परमं हर्षमगमद्देवसारथिः ।। | 3-175-65a 3-175-65b |
तदसह्यं कृतं कर्म देवैरपि दुरासदम्। दृष्ट्वा मां पूजयामास मातलिः शक्रसारथिः ।। | 3-175-66a 3-175-66b |
उचाच वचनं चेदंप्रीयमाणः कृताञ्जलिः। `हतांस्तान्दानवान्दृष्ट्वा मया सङ्ख्ये सहस्रशः ।। | 3-175-67a 3-175-67b |
सुरासुरैरसह्यं हि कर्म यत्साधितं त्वया। न ह्येतत्संयुगे कर्तुमपि शक्तः सुरेश्वरः। `ध्रुवं धनञ्जय प्रीतस्त्वयि शक्रः पुरार्दन' ।। | 3-175-68a 3-175-68b 3-175-68c |
सुरासुरैरवध्यं हि पुरमेतत्खगं महत्। त्वया विमथितं वीर स्ववीर्यतपसो बलात् ।। | 3-175-69a 3-175-69b |
अर्जुन उवाच। | 3-175-69x |
विद्वस्ते खपुरे तस्मिन्दानवेषु हतेषु च। विनदन्त्यः स्त्रियः सर्वा निष्पेतुर्नगराद्बहिः ।। | 3-175-70a 3-175-70b |
प्रकीर्णकेश्यो व्यथिताः कुरर्य इव दुःखिताः। पेतुः पुत्रान्पितृन्भ्रातॄञ्शोचमाना महीतले ।। | 3-175-71a 3-175-71b |
रुदत्यो दीनकण्ठ्यस्तु निनदन्त्यो हतेश्वराः। उरांसि पाणिभिर्घ्नन्त्यो विस्रस्तस्रग्विभूषणाः ।। | 3-175-72a 3-175-72b |
तच्छोकयुक्तमश्रीकं दुःखदैन्यसमाहतम्। न बभौ दानवपुरं हतत्विट्कं हतेश्वरम् ।। | 3-175-73a 3-175-73b |
गन्धर्वनगराकारं हृतनागमिव ह्रदम्। शुष्कवृक्षमिवारण्यमदृश्यमभवत्पुरम् ।। | 3-175-74a 3-175-74b |
मां तु संहृष्टमनसं क्षिप्रं मातलिरानयत्। देवराजस्य भवनं कृतकर्माणमाहवात् ।। | 3-175-75a 3-175-75b |
हिरण्यपुरमुत्सृज्य निहत्य च महासुरान्। निवातकवचांश्चैव ततोऽहंशक्रमागमम् ।। | 3-175-76a 3-175-76b |
मम कर्म च देवेन्द्रं मातलिर्विस्तरेण तत्। सर्वं विश्रावयामास यथाभूतं महाद्युते ।। | 3-175-77a 3-175-77b |
हिरण्यपुरघातं च मायानां च निवारणम्। निवातकवचानां च वधं सङ्ख्ये महौजसाम्। `कालकेयवधं चैव अद्भुतं रोमहर्षणम्' ।। | 3-175-78a 3-175-78b 3-175-78c |
तच्छ्रुत्वा भगवान्प्रीतः सहस्राक्षः पुरंदरः। मरुद्भिः सहितः श्रीमान्साधुसाध्वित्यथाब्रवीत्। `परिष्वज्य च मां प्रेम्णा मूर्ध्नि चाघ्राय सस्मितम्' ।। | 3-175-79a 3-175-79b 3-175-79c |
ततो मां देवराजो वै समाश्वास्य पुनः पुनः। अब्रवीद्विबुधैः सार्धमिदं समधुरं वचः ।। | 3-175-80a 3-175-80b |
अतिदेवासुरं कर्म कृतमेव त्वया रणे। गुर्वर्थश्च कृतः पार्थ महाशत्रून्घ्नता मम ।। | 3-175-81a 3-175-81b |
एवमेव सदा भाव्यं स्थिरेणाजौ धनंजय। असंमूढेन चास्त्राणां कर्तव्यं प्रतिपादनम् ।। | 3-175-82a 3-175-82b |
अविषह्यो रणे हि त्वं देवदानवराक्षसैः। सयक्षासुरगन्धर्वैः सपक्षिगणपन्नगैः ।। | 3-175-83a 3-175-83b |
वसुधां चापि कौन्तेय त्वद्बाहुबलनिर्जिताम्। पालयिष्यति धर्मात्मा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।। | 3-175-84a 3-175-84b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि पञ्चसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 175 ।। |
3-175-12 खपुरं खचरत्वात् ।। 3-175-18 न वध्या इति न अपितु वध्या एव ।। 3-175-33 आरुह्य गगनमुत्पत्य। अवातरत् अवतीर्णः ।। 3-175-34 पर्यवर्तन्त परिवार्य अवर्तन्त। गार्द्रराजितैः गृध्रपत्रशोभितैः ।। 3-175-35 युद्धे निमित्ते सति संन्यवर्तन्त। इमे वयमिति शेषः। रयुद्धेन जेतुमिति शेषः ।। 3-175-61 मांसमेदोवसास्थिभिः संयुक्तैरिति शेषः ।। 3-175-63 निबर्हणैर्नाशकरैः ।। 3-175-65 निशाम्य दृष्ट्वा ।।
आरण्यकपर्व-174 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-176 |