महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-228
दिखावट
← आरण्यकपर्व-227 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-228 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-229 → |
षडृषिभिर्लोकापवादभयात्स्वपत्नीनां परित्यागः ।। 1 ।। विश्वामित्रेण कुमारस्य जातकर्मादिना संस्करणम् ।। 2 ।। स्कन्दपराक्रमासहिष्णुना शक्रेण स्कन्देन सहाऽऽयोधनम् ।। 3 ।। इन्द्रवज्राभिहतात्स्कन्दस्य दक्षिणपार्श्वाद्विशास्वस्य तथा कुमाराणां कन्यानां च समुद्भवः ।। 4 ।। स्कन्दाद्भीतेनेन्द्रेण तेन सह संधानम् ।। 5 ।।
मार्कण्डेय उवाच। | 3-228-1x |
तस्मिञ्जाते महासत्त्वे महासेने महाबले। समुत्तस्थुर्महोत्पाता घोररूपाः पृथग्विधाः ।। 1 ।। | 3-228-1a 3-228-1b |
स्त्रीपुंसोर्विपरीतं च तथा द्वन्द्वानि यानि च। ग्रहा दीप्ता दिशः खं च ररास च मही भृशम् ।। | 3-228-2a 3-228-2b |
ऋषयश्च महाघोरान्दृष्ट्वोत्पातान्समन्ततः। अकुर्वञ्शान्तिमुद्विग्ना लोकानां लोकभावनाः ।। | 3-228-3a 3-228-3b |
निवसन्ति वने ये तु तस्मिंश्चैत्ररथे जनाः। तेऽब्रुवन्नेष नोऽनर्थः पावकेनाहृतो महान्। संगम्य षड्भिः पत्नीभिः सप्तर्षीणामिति स्म ह ।। | 3-228-4a 3-228-4b 3-228-4c |
अपरे गरुडीमाहुस्तयाऽनर्थोऽयमाहृतः। यैर्दृष्टा सा तदा देवी तस्या रूपेण गच्छती ।। | 3-228-5a 3-228-5b |
न तु तत्स्वाहया कर्म कृतंजानाति वै जनः ।। | 3-228-6a |
सुपर्णी तु वचः श्रुत्वा ममायं तनयस्त्विति। उपगम्य शनैः स्कन्दमाहाहं जननी तव ।। | 3-228-7a 3-228-7b |
अथ सप्तर्षयः श्रुत्वा जातं पुत्रं महौजसम्। तत्यजुः षट् तदा पत्नीर्विना देवीमरुन्धतीम्। षड्भिरेव तदा जातमाहुस्तद्वनवासिनः ।। | 3-228-8a 3-228-8b 3-228-8c |
सप्तर्षीनाह च स्वाहा मम पुत्रोऽयमित्युत। अहं हेतुर्नैतदेवमिति राजन्पुनः पुनः ।। | 3-228-9a 3-228-9b |
विश्वामित्रस्तु कृत्वेष्टिं सप्तर्षीणां महामुनिः। पावकं कामसंतप्तमदृष्टः पृष्ठतोऽन्वगात्। तत्तेन निखिलं सर्वमवबुध्य यथातथम् ।। | 3-228-10a 3-228-10b 3-228-10c |
विश्वामित्रस्तु प्रथमं कुमारं शरणं गतः। स्तवं दिव्यं संप्रचक्रे महासेनस् चापि सः ।। | 3-228-11a 3-228-11b |
मङ्गलानि च सर्वाणि कौमाराणि त्रयोदश। जातकर्मादिकास्तस् क्रियाश्चक्रे महामुनिः ।। | 3-228-12a 3-228-12b |
पड्वक्रस्य तु मांहात्म्यं कुक्कुटस्य तु साधनम्। शक्त्या देव्याः साधनं च तथा पारिषदामषि ।। | 3-228-13a 3-228-13b |
विश्वामित्रश्चकारैतत्कर्म लोकहिताय वै। तस्मादृषिः कुमारस् विश्वामित्रोऽभवत्प्रियः ।। | 3-228-14a 3-228-14b |
अन्वजानाच्च स्वाहाया रूपान्यत्वं महामुनिः। अब्रवीच्च मुनीन्सर्वाननापराध्यन्ति वै स्त्रियः। श्रुत्वा तु तत्वतस्तस्मात्ते पत्नीः सर्वतोत्यजन् ।। | 3-228-15a 3-228-15b 3-228-15c |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-228-16x |
स्कन्दं श्रुत्वा तदा देवा वासवं सहिताऽब्रुवन्। अविषह्यं वलं स्कन्दं जहि शक्राशु माचिर् ।। | 3-228-16a 3-228-16b |
यदि वा न निहंस्येनमद्येन्द्रोऽयं भविष्यति। त्रैलोक्यं सन्निगृह्यास्मांस्त्वां च शक्र महाबला ।। | 3-228-17a 3-228-17b |
स तानुवाच व्यथितो वालोऽयं सुमहाबलः। स्रष्टारमपि लोकानां युधि विक्रम्य नाशयेत्। [न बालमुत्सहे हन्तुमिति शक्रः प्रभाषते ।। | 3-228-18a 3-228-18b 3-228-18c |
तेऽब्रुवन्नास्ति ते वीर्यं यत एवं प्रभासे।] सर्वास्त्वद्याभिगच्छन्तु स्कन्दं लोकस्य मातरः ।। | 3-228-19a 3-228-19b |
कामवीर्या घ्नन्तु चैनं तथेत्युक्त्वा च ता ययुः। तमप्रतिबलं दृष्ट्वा विषण्णवदनास्तु ताः ।। | 3-228-20a 3-228-20b |
अशक्योऽयंविचिन्त्यैवं तमेव शरणं ययुः। ऊचुश्चैनं त्वमस्माकं पुत्रोऽस्माभिर्धृतंजगत् ।। | 3-228-21a 3-228-21b |
अभिनन्द्य ततः सर्वाः प्रस्नुताः स्नेहविक्लबाः। [तासां तद्वचनं श्रुत्वा पातुकामः स्तनान्प्रभुः] ।। | 3-228-22a 3-228-22b |
ताः संपूज्य महासेनःकामांश्चासां प्रदाय सः। अपश्यदग्निमायान्तं पितरं बलिनां बली ।। | 3-228-23a 3-228-23b |
स तु संपूजितस्तेन सह मातृगणेन ह। परिवार्य महासेनं रक्षमाणः स्थितः शिवः ।। | 3-228-24a 3-228-24b |
सर्वासां या तु मातॄणां नारी क्रोधसमुद्भवा। धात्री स्वपुत्रवत्स्कन्दं शूलहस्ताऽभ्यरक्षत ।। | 3-228-25a 3-228-25b |
लोहितस्योदधेः कन्या क्रूरा लोहितभोजना। परिष्वज्य महासेनं पुत्रवत्पर्यरक्षत ।। | 3-228-26a 3-228-26b |
अग्निर्भूत्वा नैगमेयश्छागवक्रो बहुप्रजः। रमयामास शैलस्तं बालं क्रीडनकैरिव ।। | 3-228-27a 3-228-27b |
ब्रहाः सोपग्रहाश्चैव ऋषयो मातरस्तथा। हुताशनमुखाश्चैव दृप्ताः पारिषदां गणाः ।। | 3-228-28a 3-228-28b |
एते चान्ये च बहवो घोरास्त्रिदिववासिनः। परिवार्य महासेनं स्थिता मातृगणैः सह ।। | 3-228-29a 3-228-29b |
संदिग्धं विजयं दृष्ट्वा विजयेप्सुः सुरेश्वरः। आरुह्यैरावतस्कन्धं प्रययौ दैवतैः सह ।। | 3-228-30a 3-228-30b |
आदाय वज्रं बवान्सर्वैर्देवगणैर्वृतः। विजिघांसुर्महासेनमिन्द्रस्तूर्णतरं ययौ ।। | 3-228-31a 3-228-31b |
`इन्द्रस्तस्य महावेगं दृष्ट्वाऽद्भुतपराक्रमम्। विस्मितश्चाभवद्राजन्देवानीकमचोदयत् ।। | 3-228-32a 3-228-32b |
उग्रं तं च महानादं देवानीकं महाप्रभम्। विचित्रध्वजसन्नाहं नानावाहनकार्मुकम्' ।। | 3-228-33a 3-228-33b |
प्रवराम्बरसंवीतं श्रिया जुष्टमलंकृतम्। विजिघांसुं तमायान्तं कुमारः शक्रमन्वयात् ।। | 3-228-34a 3-228-34b |
वियत्पतिः स शक्रस्तु द्रुतमायान्महाबलः। संहर्पयन्देवसेनां जिघांसुः पावकात्मजम् ।। | 3-228-35a 3-228-35b |
संपूज्यमानस्त्रिदशैस्तथैव परमर्षिभिः। समीपमथ संप्राप्तो वह्निपुत्रस्य वासवः ।। | 3-228-36a 3-228-36b |
सिंहनादं ततश्चक्रे देवेशः सहितैः सुरैः। गुहोऽपिशब्दं तं श्रुत्वा व्यनदात्सागरो यथा ।। | 3-228-37a 3-228-37b |
तस्य शब्देन महता समुद्धूतोदधिप्रभम्। वभ्राम तत्रतत्रैव दैवसैन्यमचेतनम् ।। | 3-228-38a 3-228-38b |
जिधांसूनुपसंप्राप्तान्देवान्दृष्ट्वा सपावकिः। विससर्ज मुखात्क्रुद्धः प्रवृद्धाः पावकार्चिषः ।। | 3-228-39a 3-228-39b |
अदहद्देवसैन्यानि वेपमानानि भूतले ।। | 3-228-40a |
ते प्रदीप्तशिरोदेहाः प्रदीप्तायुधवाहनाः। प्रच्युताः सहसा भान्ति चित्रास्तारागणा इव ।। | 3-228-41a 3-228-41b |
दह्यमानाः प्रपन्नास्ते शरणं पावकात्मजम्। देवा वज्रधरं त्यक्त्वाततः शानतिमुपागताः ।। | 3-228-42a 3-228-42b |
त्यक्तो देवैस्ततः स्कन्दे वज्रं शक्रो न्यपातयत् ।। | 3-228-43a |
तद्विसृष्टं जघानाशु पर्श्वं स्कन्दस्य दक्षिणम्। विभेद च महाराज पार्श्वं तस्य महात्मनः ।। | 3-228-44a 3-228-44b |
वज्रप्रहारात्स्कन्दस्य संजातः पुरुषोऽपरः। युवा काञ्चनसन्नाहः शक्तिधृग्दिव्यकुण्डलः ।। | 3-228-45a 3-228-45b |
यद्वज्रविशनाज्जातो विशाखस्तेन सोऽभवत् ।। | 3-228-46a |
तं जातमपरं दृष्ट्वा कालानलसमद्युतिम्। भयादिनद्रस्तुत तं स्कन्दं प्राञ्जलिः शरणं गतः ।। | 3-228-47a 3-228-47b |
तस्याभयंददौ स्कन्दः सहसैन्यस् सत्तम। ततः प्रहृष्टास्त्रिदशा वादित्राण्यभ्यवादयन् ।। | 3-228-48a 3-228-48b |
स्कन्दपारिषदान्धोराञ्छृणुष्वाद्भुतदर्शनान्। वज्रप्हहारात्स्कन्दस्य जज्ञुस्तत्र कुमारकाः। ये हरन्ति शिशूञ्जातान्गर्भस्थाश्चैव दारुणाः ।। | 3-228-49a 3-228-49b 3-228-49c |
वज्रप्रहारात्कन्याश्च जज्ञिरेऽस् महाबलाः ।। | 3-228-50a |
कुमारान्स विशखं च पुत्रत्वे समकल्पयत्। स भूत्वा भगवान्सङ्ख्ये रक्षंश्छागमुखस्तदा ।। | 3-228-51a 3-228-51b |
वृतः कन्यागणैः सर्वैरात्मीयैः सह पुत्रकैः। मातृणां प्रेषितानां च भद्रशाखश्चकोमलैः ।। | 3-228-52a 3-228-52b |
ततः कुमारं संजातं स्कन्दमाहुर्जना भुवि। रुद्रमग्निमुखां स्वाहां प्रदेशेषु महाबलाः ।। | 3-228-53a 3-228-53b |
यजन्ति पुत्रकामाश्च पुत्रिणश्च सदा जनाः। यास्तास्त्वजनयत्कन्यास्तपो नाम हुताशनः ।। | 3-228-54a 3-228-54b |
किं करोमीति ताः स्कन्दं संप्राप्ताः समभाषयन् ।। | 3-228-55a |
भवेम सर्वलोकस्य मातरो वयमुत्तमाः। प्रसादात्तव पूज्याश्च प्रियमेतत्कुरुष्व नः ।। | 3-228-56a 3-228-56b |
सोऽब्रवीद्बाढमित्येवं भविष्यध्वं पृथिग्विधाः। शिवाश्चैवाशिवाश्चैव पुनःपुनःरुदारधीः ।। | 3-228-57a 3-228-57b |
`अग्निर्भूत्वा ततश्चैनं छागवक्रो बहुप्रजः। रमयामास शैलस्थं बलं क्रीडनकैरिव' ।। | 3-228-58a 3-228-58b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि अष्टाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 228 ।। |
3-228-2 विपरीतं वैरम्। द्वन्द्वानि अतिशीतात्युष्णादीनि ।। 3-228-15 श्रुत्वा तु ध्रुत्वापि। सर्वतः लोकापवादभयाद्रामवत्पत्नीस्त्यक्तवन्त इत्यर्थः। अथाव्रवीत्तान्सप्तर्षीन्युष्मत्पत्नीष्वयं शिशुः। षट्रसु जातोहुवहात्ते चाग्रेस्त्वग्रतोल्यजन्। इति ध. पाठः ।। 3-228-46 वज्रस्य विशनात् बाहोराखननाच्चविशाख इत्यर्थः ।। 3-228-51 कुमारास्ते=पितृत्वे इति झ. पाठः ।। 3-228-53 ततः कुमारपितरमिति झ. पाठः ।।
आरण्यकपर्व-227 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-229 |