महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-162
← आरण्यकपर्व-161 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-162 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-163 → |
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
भीमादर्शनेन दुर्मनायमानैर्युधिष्ठिरादिभिः पर्वताग्रारोहणेन भीमसमीपगमनम् ।। 1 ।। भीमहतावशिष्टैर्निवेदितमणिमदादिवधेन कुबेरेण युयुत्सया भीमंप्रत्यागमनम् ।। 2 ।। तत्रयुधिष्ठिरादिदर्शनेन शान्तमन्युना तेन तान्प्रति स्वस्याग स्त्यशापावासिकथनपूर्वकं भीमसेनकार्यानुमोदनम् ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-162-1x |
श्रुत्वा बहुविधैः शब्दैर्नाद्यमानां गिरेर्गुहाम्। अजातशत्रुः कौन्तेयो माद्रीपुत्रावुभावपि ।। | 3-162-1a 3-162-1b |
धौम्यः कृष्णा च विप्राश्च सर्वे च सुहृदस्तथा। भीमसेनमपश्यन्तः सर्वे विमनसोऽभवन् ।। | 3-162-2a 3-162-2b |
द्रौपदीमार्ष्टिषेणाय संप्रधार्य महारथाः। सहिताः सायुधाः शूराः शैलमारुरुहुस्तदा ।। | 3-162-3a 3-162-3b |
ततः संप्राप्य शैलाग्रं वीक्षमाणा महारथाः। ददृशुस्ते महेष्वासा भीमसेनमरिंदमम् ।। | 3-162-4a 3-162-4b |
स्फुरतश्च महाकायान्गतसत्वांश्च राक्षसान्। महाबलान्महासत्वान्भीमसेनेव पातितान् ।। | 3-162-5a 3-162-5b |
शुशुरतश्च महाकायान्गतसत्वांश्च राक्षसान्। महाबलान्महासत्वान्भीमसेनेन पातितान् ।। | 3-162-6a 3-162-6b |
ततस्ते समतिक्रम्य परिष्वज्य वृकोदरम्। तत्रोपविविशुः पार्थाः प्राप्ता गतिमनुत्तमाम् ।। | 3-162-7a 3-162-7b |
तैश्चतुर्भिर्महेष्वासैर्गिरिशृङ्गमशोभत। लोकपालैर्महाभागैर्दिवं देववरैरिव ।। | 3-162-8a 3-162-8b |
कुबेरसदनं दृष्ट्वा राक्षसांश्च निपातितान्। भ्राता भ्रातरमासीनमथोवाच युधिष्ठिरः ।। | 3-162-9a 3-162-9b |
साहसाद्यदिवा मोहाद्बीम पापमिदं कृतम्। नैतत्ते सदृशं वीर मुनेरिव मृषा वधाः ।। | 3-162-10a 3-162-10b |
राजद्विष्टं न कर्तव्यमिति धर्मविदो विदुः। त्रिदशानामिदं द्विष्टं भीमसेन त्वया कृतम् ।। | 3-162-11a 3-162-11b |
अर्थधर्मावनादृत्य यः पापे कुरुते मनः। कर्मणां पार्थ पापानां स फलं विन्दते ध्रुवम् ।। | 3-162-12a 3-162-12b |
`साहसंवत भद्रं ते देवानामपि चाप्रियम्'। पुनरेवं न कर्तव्यं मम चेदिच्छसि प्रियम् ।। | 3-162-13a 3-162-13b |
वैशंपायन उवाच। | 3-162-14x |
एवमुक्त्वा स धर्मात्मा भ्राता भ्रातरमच्युतम्। `भीमसेनं महाबाहुमप्रधृष्यपराक्रमम्' ।। | 3-162-14a 3-162-14b |
अर्थतत्त्वविभागज्ञः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। विराम महातेजास्तमेवार्थं विचिन्तयन् ।। | 3-162-15a 3-162-15b |
ततस्ते हतशिष्टा ये भीमसेनेन राक्षसाः। सहिताः प्रत्यपद्यन्त कुबेरसदनं प्रति ।। | 3-162-16a 3-162-16b |
ते जवेन महावेगाः प्राप्य वैश्रवणालयम्। भीममार्तस्वरं चक्रुर्भीमसेनभयार्दिताः ।। | 3-162-17a 3-162-17b |
न्यस्तशस्त्रायुधाः क्लान्ताः शोणिताक्तपरिच्छदाः। प्रकीर्णमूर्धजा राजन्यक्षाधिपतिमब्रुवन् ।। | 3-162-18a 3-162-18b |
गदापरिघनिस्त्रिंसतोमरप्रासयोधिनः। राक्षसा निहताः सर्वे तव देवपुरःसराः ।। | 3-162-19a 3-162-19b |
प्रमृद्यतरसा शैलं मानुषेण धनेश्वर। एकेन निहताः सङ्ख्ये गताः क्रोधवशा गणाः ।। | 3-162-20a 3-162-20b |
प्रवरा राक्षसेन्द्राणां यक्षाणां च नराधिप। शेरते निहता देव गतसत्वाः परासवः ।। | 3-162-21a 3-162-21b |
भग्नः शैलो वयं भग्ना मणिमांस्ते सखा हतः। मानुषेणं कृतं कर्म विधत्स्व यदनन्तरम् ।। | 3-162-22a 3-162-22b |
स तच्छ्रुत्वा तु संक्रुद्धः सर्वयक्षगणाधिपः। कोपसंरक्तनयनः कथमित्यब्रवीद्वचः ।। | 3-162-23a 3-162-23b |
द्वितीयमपराध्यन्तं भीमं श्रुत्वा धनेश्वरः। चुक्रोध यक्षाधिपतिर्युज्यतामिति चाब्रवीत् ।। | 3-162-24a 3-162-24b |
अथाभ्रघनसंकाशं गिरिकूटमिवोच्छ्रितम्। रथं संयोजयामासुर्गर्न्धैवर्हेममालिभिः ।। | 3-162-25a 3-162-25b |
तस्य सर्वगुणोपेता विमलाक्षा हयोत्तमाः। तेजोबलगुणोपेता नानारत्नविभूषिताः। शोभमाना रथे युक्तास्तरिष्यन्त इवाशुगाः ।। | 3-162-26a 3-162-26b 3-162-26c |
`ततस्ते तु महायक्षाः क्रुद्धं दृष्ट्वा धनेश्वरम्'। हर्षयामासुरन्योन्यमिङ्गितैर्विजयावहैः ।। | 3-162-27a 3-162-27b |
स तमास्थाय भगवान्राजराजो महारथम्। प्रययौ देवगनधर्वैः स्तूयमानो महाद्युतिः ।। | 3-162-28a 3-162-28b |
तं प्रयान्तं महात्मानं सर्वे यक्षा धनाधिपम्। `अनुजग्मुर्महात्मानं धनदं घोरदर्शनाः' ।। | 3-162-29a 3-162-29b |
रक्ताक्षा हेमसंकाशा महाकाया महाबलाः। सायुधा बद्धनिस्त्रिंशा यक्षा बहुशतायुधाः ।। | 3-162-30a 3-162-30b |
ते जवेन महावेगाः प्लवमाना विहायसा। गन्धमादनमाजग्मुः प्रकर्षन्त इवाम्बरम् ।। | 3-162-31a 3-162-31b |
तत्केसरिमहाजालं धनाधिपतिपालितम्। `रम्यं चैव गिरेः शृङ्गमासेदुर्यत्रपाण्डवाः' ।। | 3-162-32a 3-162-32b |
कुबेरं च महात्मानं यक्षरक्षोगणावृतम्। ददृशुर्हृष्टरोमाणः पाण्डवाः प्रियदर्शनम् ।। | 3-162-33a 3-162-33b |
कुबेरस्तु महासत्वान्पाण्डोः पुत्रान्महारथान्। आत्तकार्मुकनिस्त्रिंशान्दृष्ट्वा प्रीतोऽभवत्तदा ।। | 3-162-34a 3-162-34b |
`सर्वे चेमे नरव्याघ्राः पुरन्दरसमौजसः।' देवकार्यं करिष्यन्ति हृदयेन तुतोष ह ।। | 3-162-35a 3-162-35b |
ते पक्षिण इवापेतुर्गिरिशृङ्गं महाजवाः। तस्थुस्तेषां सकाशे वै धनेश्वरपुरःसराः ।। | 3-162-36a 3-162-36b |
ततस्तं हृष्टमनसं पाण्डवान्प्रति भारत। समीक्ष्ययक्षगन्धर्वा निर्विकारमवस्थिताः ।। | 3-162-37a 3-162-37b |
पाण्डवाश्च महात्मानः प्रणम्य धनदं प्रभुम्। नकुलः सहदेवश् धर्मपुत्रश्च धर्मवित् ।। | 3-162-38a 3-162-38b |
अपराद्धमिवात्मानं मन्यमाना महारथाः। तस्थुः प्राञ्जलयः सर्वे परिवार्य धनेश्वरम् ।। | 3-162-39a 3-162-39b |
शय्यासनयुतं श्रीमत्पुष्पकं विश्वकर्मणा। विहितं चित्रपर्यन्तमातिष्ठत धनाधिपः ।। | 3-162-40a 3-162-40b |
तमासीनं महाकायाः शङ्कुकर्णा महाजवाः। उपोपविविशुर्यक्षा राक्षसाश् सहस्रशः ।। | 3-162-41a 3-162-41b |
शतशश्चापि गन्धर्वास्तथैवाप्सरसां गणाः। परिवार्योपतिष्ठन्ति यथा देवाः शतक्रतुम् ।। | 3-162-42a 3-162-42b |
काञ्जनीं शिरसा बिभ्रद्भीमसेनः स्रजं शुभाम्। बाणखङ्गधनुष्पाणिरुदैक्षत धनाधिपम् ।। | 3-162-43a 3-162-43b |
न भीर्भीमस्य न ग्लानिर्विक्षतस्यापि राक्षसैः। आसीत्तस्यामवस्तायां कुबेरमपि पश्यतः ।। | 3-162-44a 3-162-44b |
आददानं शितान्बाणान्योद्धुकाममवस्थितम्। दृष्ट्वा भीमं धर्मसुतमब्रवीन्नरवाहनः ।। | 3-162-45a 3-162-45b |
विदुस्त्वां सर्वभूतानि पार्थ भूतहिते रतम्। निर्भयश्चापिशैलाग्रे वस त्वं सह बन्धुभिः ।। | 3-162-46a 3-162-46b |
न च मन्युस्त्वया कार्यो भीमसेनस्य पाण्डव। कालेनैते हताः पूर्वं निमित्तमनुजस्तव ।। | 3-162-47a 3-162-47b |
व्रीडा चात्रन कर्तव्या साहसं यदिदं कृतम्। दृष्टश्चापि सुरैः पूर्वंविनाशो यक्षरक्षसाम् ।। | 3-162-48a 3-162-48b |
न भीमसेने कोपो मे प्रीतोस्मि भरतर्षभ। कर्मणा भीमसेनस्य मम तुष्टिरभूत्पुरा ।। | 3-162-49a 3-162-49b |
वैशंपायन उवाच। | 3-162-50x |
स एवमुक्त्वा राजानं भीमसेनमभाषत। नैतन्मनसि मे तात वर्तते कुरुसत्तम ।। | 3-162-50a 3-162-50b |
यदिदं साहसं भीम कृष्णार्थे कृतवानसि। मामनादृत्य देवांश्च विनाशं यक्षरक्षसाम् ।। | 3-162-51a 3-162-51b |
स्वबाहुबलमाश्रित्य तेनाहं प्रीतिमांस्त्वयि। शापादद्य विनिर्मुक्तो घोरादस्माद्वृकोदर ।। | 3-162-52a 3-162-52b |
अहं पूर्वमगस्त्येन क्रुद्धेन परमर्षिणा। शप्तोऽपराधे कस्मिंश्चित्तस्यैषा निष्कृतिर्ध्रुवम् ।। | 3-162-53a 3-162-53b |
दृष्टो हि मम संक्लेशः पुरा पाण्डवनन्दन। न तवात्रापराधोस्ति कथंचिदपि पाण्डव ।। | 3-162-54a 3-162-54b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-162-55x |
कथं शप्तोसि भगवन्नगस्त्येन महात्मना। श्रोतुमिच्छाम्यहं देव यथैतच्छापकारणम् ।। | 3-162-55a 3-162-55b |
इदं चाश्चर्यभूतं मे यत्क्रोधात्तस् धीमतः। तदैव त्वं न निर्दग्धः सबलः सपदानुगः ।। | 3-162-56a 3-162-56b |
धनेश्वर उवाच। | 3-162-57x |
देवतानामभून्मन्त्रः कुशावत्यां नरेश्वर ।। | 3-162-57a |
वृतस्तत्राहमगमं महापद्मशतैस्त्रिभिः। यक्षाणआं घोररूपाणां विविधायुधधारिणाम् ।। | 3-162-58a 3-162-58b |
अध्वन्यहमथापश्यमगस्त्यमृपिसत्तमम्। उग्रं तपस्तप्यभानं यमुनातीरमाश्रितम्। नानापक्षिगणाकीर्णं पुष्पितद्रुमशोभितम् ।। | 3-162-59a 3-162-59b 3-162-59c |
तमूर्द्वबाहुं दृष्ट्वैव सूर्यस्याभिमुखे स्थितम्। तेजोराशिं दीप्यमानं हुताशनमिवैधितम् ।। | 3-162-60a 3-162-60b |
राक्षसाधिपतिः श्रीमान्मणिमान्नाम मे सखा। मौर्क्यादज्ञानभावाच्च दर्पान्मोहाच्च पार्थिव ।। | 3-162-61a 3-162-61b |
न्यष्ठीवदाकाशगतो महर्षेस्तस्य मूर्धनि। ततः क्रुद्धः स भगवानुवाचेदं तपोधनः ।। | 3-162-62a 3-162-62b |
मामवज्ञाय दुष्टात्मा यस्मादेष सखा तव। धर्षणां कृतवानेतां पश्यतस्ते धनेश्वर ।। | 3-162-63a 3-162-63b |
त्वं चाप्येभिर्हतैः सैन्यैः क्लेशं प्राप्नुहि दुर्भते। तमेव मानुषं दृष्ट्वाकिल्विषाद्विप्रमोक्ष्यसे ।। | 3-162-64a 3-162-64b |
सैन्यानां तु तवैतेषां पुत्रपौत्रबलान्वितम्। न शापं प्राप्यते घोरं गच्छ तेऽऽज्ञां करिष्यति ।। | 3-162-65a 3-162-65b |
एष शापो मया प्राप्तः प्राक्तस्मादृषिसत्तमात्। स भीमेन महाराज भ्रात्रा तव विमोक्षितः ।। | 3-162-66a 3-162-66b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि यक्षयुद्धपर्वणि द्विषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 162 ।। |
3-162-3 संप्रधार्य रक्षार्थं समर्प्य ।। 3-162-10 मुनेरिव वनवासिनस्ते तवैतत् सदृशं नोचितम्। यत् मृषा निर्निमित्तम्. वधो रक्षसां हिंसा ।। 3-162-16 सहिता मिलिताः ।। 3-162-24 युज्यतां रथ इवि शेषः ।। 3-162-25 अभ्रघनः सजलमेघः। गन्धर्वैर्हयैर्योजयामासुः यक्षा इति शेषः ।। 3-162-26 विमलाक्षाः दशावर्तशुद्धाः ।। 3-162-48 दृष्टो ज्ञातः ।। 3-162-54 मम मया। संक्लेशो भाविदुःखम् ।। 3-162-57 कुशावत्यां कुशस्थलीसंज्ञे देशविशेषे ।। 3-162-60 एधितं समिद्धम् ।। 3-162-61 मौर्ख्यात् विचाराक्षमत्वात्। अतएव अगस्त्योयमित्यज्ञानभावात्। मौर्ख्यमपि दर्पात्संपत्तिगर्वात्। सोपि मोहात् संपत्तेर्नश्वरत्वाज्ञानात् ।। 3-162-62 न्यष्ठीवत् थूत्कृतवान् ।।
आरण्यकपर्व-161 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-163 |