महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-301
दिखावट
← आरण्यकपर्व-300 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-301 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-302 → |
सूर्येण स्वप्ने कर्णंप्रति इन्द्रेण रपाण्डवप्रियचिकीर्षया भाविकवचकुणअडलयाचनानिवेदनपूर्वकं तदानप्रतिपेधवचनम् ।। 1 ।। कर्णेन सूर्यंप्रति हेतूक्तिपूर्वकमिन्द्राय तद्दानप्रतिज्ञानम् ।। 2 ।।
जनमेजय उवाच। | 3-301-1x |
यत्तत्तदा महद्ब्रह्मँल्लोमशो वाक्यमब्रवीत्। इन्द्रस्य वचनादेव पाण्डुपुत्रं युधिष्ठिरम् ।। | 3-301-1a 3-301-1b |
यच्चापि ते भयं तीव्रं न च कीर्तयसे क्वचित्। तच्चाप्यपहरिष्यामि धनंजय इतो गते ।। | 3-301-2a 3-301-2b |
किंनु रतज्जपतांश्रेष्ठ कर्णं प्रति महद्भयम्। आसीन्न च स धर्मात्मा कथयामास कस्यचित् ।। | 3-301-3a 3-301-3b |
वैशंपायन उवाच। | 3-301-4x |
अहं ते राजशार्दूल कथयामि कथामिमाम्। पृच्छतो भरतश्रेष्ठ शुश्रूषस्व गिरं मम ।। | 3-301-4a 3-301-4b |
द्वादशे समतिक्रान्ते वर्षे प्राप्ते त्रयोदशे। पाण्डूनां हितकृच्छक्रः कर्णं भिक्षितुमुद्यतः ।। | 3-301-5a 3-301-5b |
अभिप्रायमथो ज्ञात्वा महेन्द्रस्य विभावसुः। कुण्डलार्थे महाराज सूर्यः कर्णमुपागतः ।। | 3-301-6a 3-301-6b |
महार्हे शयने वीरं स्पर्द्ध्यास्तरणसंवृते। शयानमतिविश्वस्तं ब्रह्मण्यं सत्यवादिनम् ।। | 3-301-7a 3-301-7b |
स्वप्नान्ते निशि राजेन्द्र दर्शयामास रश्मिवान्। कृपया परयाऽऽविष्टः पुत्रस्नेहाच्च भारत ।। | 3-301-8a 3-301-8b |
ब्राह्मणो वेदविद्भूत्वा सूर्यो योगर्द्धिरूपवान्। हितार्थमब्रवीत्कर्णं सान्त्वपूर्वमिदं वचः ।। | 3-301-9a 3-301-9b |
कर्ण मद्वचनं तात शृणु सत्यभृतांवर। ब्रुवतोऽद्य महाबाहो सौहृदात्परमं हितम् ।। | 3-301-10a 3-301-10b |
उपायास्यति शक्रस्त्वां पाण्डवानां हितेप्सया। ब्राह्मणच्छद्मना कर्ण कुण्डलोपजिहीर्षया ।। | 3-301-11a 3-301-11b |
विदितं तेन शीलं ते सर्वस्य जगतस्तथा। यथा त्वं भिक्षितः सद्भिर्ददास्येव न याचसे ।। | 3-301-12a 3-301-12b |
त्वं हि तात ददास्येव ब्राह्मणेभ्यः प्रयाचितम्। वित्तं यच्चान्यदप्याहुर्न प्रत्याख्यासि कस्यचित् ।। | 3-301-13a 3-301-13b |
त्वां तु चैवंविधं ज्ञात्वा स्वयं वै पाकशासनः। आगन्ता रकुण्डलार्थाय कवचं चैव भिक्षितुम् ।। | 3-301-14a 3-301-14b |
तस्मै प्रयाचमानाय न देये कुण्डले त्वया। अनुनेयः परं शक्त्या श्रेय एतद्धि ते परम् ।। | 3-301-15a 3-301-15b |
कुण्डलार्थेऽब्रुवंस्तात कारणैर्बहुभिस्त्वया। अन्यैर्बहुविधैर्वित्तैः सन्निवार्यः पुनःपुनः ।। | 3-301-16a 3-301-16b |
रत्नैः स्त्रीभिस्तथा गोभिर्धनैर्बहुविधैरपि। निदर्शनैश्च बहुभिः कुण्डलेप्सुः पुरंदरः ।। | 3-301-17a 3-301-17b |
यदि दास्यसि कर्ण त्वं सहजे कुण्डले शुभे। आयुषः प्रक्षयं गत्वा मृत्योर्वशमुपैष्यसि ।। | 3-301-18a 3-301-18b |
कवचेन समायुक्तः कुण्डलाभ्यां च मानद। अवध्यस्त्वं रणेऽरीणामिति विद्धि वचो मम ।। | 3-301-19a 3-301-19b |
अमृतादुत्थितं ह्येतदुभयं रत्नसंमितम्। तस्माद्रक्ष्यं त्वया कर्ण जीवितं चेत्प्रियं तव ।। | 3-301-20a 3-301-20b |
कर्ण उवाच। | 3-301-20x |
को मामेवं भवान्प्राह दर्शयन्सौहृदं परम्। कामया भगवन्ब्रूहि को भवान्द्विजवेषधृक् ।। | 3-301-21a 3-301-21b |
ब्रह्मण उवाच। | 3-301-22x |
अहं तात सहस्रांशुः सौहृदात्त्वां निदर्शये। कुरुष्वैतद्वयो मे त्वमेतच्छ्रेयः परं हि ते ।। | 3-301-22a 3-301-22b |
कर्ण उवाच। | 3-301-23x |
श्रेय एव ममात्यन्तं यस्य मे गोपतिः प्रभुः। प्रवक्ताऽद्य हितान्वेषी शृणु चेदं वचो मम ।। | 3-301-23a 3-301-23b |
प्रसादये त्वां वरदं प्रणयाच्च ब्रवीम्यहम्। न निवार्यो व्रतादस्मादहं यद्यस्मि ते प्रियः ।। | 3-301-24a 3-301-24b |
व्रतं वै मम लोकोऽयं वेत्ति कृत्स्नं विभावसो। यथाऽहं द्विजमुख्येभ्यो दद्यां प्राणानपिध्रुवम् ।। | 3-301-25a 3-301-25b |
यद्यागच्छति मां शक्रो ब्राह्मणच्छद्मना वृतः। हितार्थं पाण्डुपुत्राणां खेचरोत्तम भिक्षितुम् ।। | 3-301-26a 3-301-26b |
दास्यामि विबुधश्रेष्ठ कुण्डले वर्म चोत्तमम्। न मे कीर्तिः प्रणश्येत त्रिषु लोकेषु विश्रुता ।। | 3-301-27a 3-301-27b |
मद्विधस्यायशस्यं हि न युक्तं प्राणरक्षणम्। युक्तं हि यशसा युक्तं मरणं लोकसंमतम् ।। | 3-301-28a 3-301-28b |
सोहमिन्द्राय दास्यामि कुण्डले सह वर्मणा। यदि मां बलवृत्रघ्नो भिक्षार्थमुपयास्यति ।। | 3-301-29a 3-301-29b |
हितार्थं पाण्डुपुत्राणां कुण्डले मे प्रयाचितुम्। तन्मे कीर्तिकरं लोके तस्याकीर्तिर्भविष्यति ।। | 3-301-30a 3-301-30b |
वृणोमि कीर्तिं लोके हि जीवितेनापि भानुमन्। कीर्तिमानश्नुते स्वर्गं हीनकीर्तिस्तु नश्यति ।। | 3-301-31a 3-301-31b |
कीर्तिर्हि पुरुषं लोके संजीवयति मातृवत्। अकीर्तिर्जीवितं हन्ति जीवतोपि शरीरिणः ।। | 3-301-32a 3-301-32b |
अयंपुराणः श्लोको हि स्वयं गीतो विभावसो। धात्रा लोकेश्वर यथा कीर्तिरायुर्नरस्य ह ।। | 3-301-33a 3-301-33b |
पुरुषस्य परे लोके कीर्तिरेव परायणम्। इह लोके विशुद्धा च कीर्तिरायुर्विवर्धनी ।। | 3-301-34a 3-301-34b |
सोहं शरीरजे दत्त्वा कीर्तिं प्राप्स्यामि शाश्वतीम्। दत्त्वा च विधिवद्दानं ब्राह्मणेभ्यो यथाविधि ।। | 3-301-35a 3-301-35b |
हुत्वा शरीरं रसंग्रामे कृत्वा कर्म सुदुष्करम्। विजित्य च परानाजौ यशः प्राप्स्यामि केवलम् ।। | 3-301-36a 3-301-36b |
भीतानामभयं दत्त्वा संग्रामे जीवितार्थिनाम्। वृद्धान्वालान्द्विजातींश्च मोक्षयित्वा महाभयात् ।। | 3-301-37a 3-301-37b |
प्राप्स्यामि परमं लोके यशः स्वर्ग्यमनुत्तमम्। जीवितेनापि मे रक्ष्या कीर्तिस्तद्विद्वि मे व्रतम् ।। | 3-301-38a 3-301-38b |
सो हं दत्त्वा मघवते भिक्षामेतामनुत्तमाम्। ब्राह्मणच्छद्मिने देव लोके गन्ता परां गतिम् ।। | 3-301-39a 3-301-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि कुण्डलाहरणपर्वणि एकाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।। 301 ।। |
3-301-6 विभावसुः विशिष्टा भाः दीप्तिः सैव वसु धनं यस् तादृशः सूर्यः ।। 3-301-7 स्पर्ध्यं विमर्दसहं स्पृहणीयं वा ।। 3-301-8 स्वप्रान्ते स्वाप्नमध्ये ।।
आरण्यकपर्व-300 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-302 |