महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-061
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नलमन्वेषयन्त्या दमयन्त्या वनमध्ये हस्त्यश्वरथसंकुलजनसार्थदर्शनम् ।। 1 ।।
तथा सार्तनाथेन संभावणम् ।। 2 ।।
बृहदश्व उवाच। | 3-61-1x |
सा निहत्य मृगव्याधं प्रतस्थे कमलेक्षणा। वनं प्रतिभयं शून्यं झिल्लिकागणनादितम् ।। | 3-61-1a 3-61-1b |
सिंहद्वीपिरुरुव्याघ्रवराहर्क्षगणैर्युतम्। नानापक्षिगणाकीर्णां म्लेच्छतस्करसेवितम् ।। | 3-61-2a 3-61-2b |
सालवेणुधवाश्वत्थतिन्दुकेङ्गुदिकिंशुकैः। अर्जुनारिष्टसंछन्नं स्यन्दनैश्च सशाल्मलैः ।। | 3-61-3a 3-61-3b |
जम्ब्वाम्रलोध्रखदिरशाकवेत्रसमाकुलम्। पद्मकामलकप्लक्षकदम्बोदुम्बरावृतम् ।। | 3-61-4a 3-61-4b |
बदरीबिल्वसंछन्नं न्यग्रोधैश्च समाकुलम्। प्रियालतालखर्जूरहरीतकिबिभीतकैः ।। | 3-61-5a 3-61-5b |
नानाधातुशतैर्नद्धान्विविधानपि चाचलान्। निकुञ्जान्पक्षिसंघुष्टान्दरीश्चाद्भुतदर्शनाः ।। | 3-61-6a 3-61-6b |
नदी सरांसि वापीश्च विविधांश्चरतो द्विजान्। सा बहून्भीमरूपांश्च पिशाचोरगराक्षसान् ।। | 3-61-7a 3-61-7b |
पल्वलानि तटाकानि गिरिकूटानि सर्वशः। सरित्सरांसि च तदा ददर्शाद्भुतदर्शनाम् ।। | 3-61-8a 3-61-8b |
यूथशो ददृशे चात्र विदर्भाधिपनन्दिनी। महिषान्वराहान्गोमायूनृक्षवानरपन्नगान् ।। | 3-61-9a 3-61-9b |
तेजसा यशसा लक्ष्म्या स्थित्या च परया युता। वैर्दभी विचचारैका नलमन्वेषती तदा ।। | 3-61-10a 3-61-10b |
नाबिभ्यत्सा नृपसुता भैमी तत्राथ कस्यचित्। दारुणामटवीं प्राप्य भर्तृव्यसनकर्शिता ।। | 3-61-11a 3-61-11b |
विदर्भतनया राजन्विललाप सुदुःखिता। भर्तृशोकपरीताङ्गी शिलातलमथाश्रिता ।। | 3-61-12a 3-61-12b |
दमयन्त्युवाच। | 3-61-13x |
सिह्योरस्क महाबाहो निषधानां जनाधिप। क्वनु राजन्गतोसि त्वं त्यक्त्वा मां विजने वने ।। | 3-61-13a 3-61-13b |
अश्वमेधादिभिर्वीर क्रतुभिश्चाप्तदक्षिणैः। कथमिष्ट्वा नरव्याघ्र मयि मिथ्या प्रवर्तसे ।। | 3-61-14a 3-61-14b |
यत्त्वयोक्तं नरश्रेष्ठ मत्समक्षं महाद्युते। कर्तुमर्हसि कल्याण तदृतं पार्थिवर्षभ ।। | 3-61-15a 3-61-15b |
यच्चोक्तं विहगैर्हंसैः समीपे तव भूमिप। मत्सकाशे च तैरुक्तं तदवेक्षितुमर्हसि ।। | 3-61-16a 3-61-16b |
चत्वार एकतो वेदाः साङ्गोपाङ्गाः सविस्तराः। स्वधीता मनुजव्याघ्र सत्यमेकं किलैकतः ।। | 3-61-17a 3-61-17b |
तस्मादर्हसि शत्रुघ्न सत्यं कर्तुं नरेश्वर। उक्तवानसि यद्वीर मत्सकाशे पुरा वचः ।। | 3-61-18a 3-61-18b |
हा वीर ननुनामाहमिष्टा किल तवानघ। अस्यामटव्यां घोरायां किं मां न प्रतिभाषसे ।। | 3-61-19a 3-61-19b |
भर्त्सयत्येष मां रौद्रो व्यात्तास्यो दारुणाकृतिः। अरण्यराट् क्षुधाविष्टः किं मां न त्रातुमर्हसि ।। | 3-61-20a 3-61-20b |
न मे त्वदन्या काचिद्धि प्रियाऽस्तीत्यब्रवीस्तदा। तामृतां कुरु कल्याण पुरोक्तां भारतीं नृप ।। | 3-61-21a 3-61-21b |
उन्मत्तां विलपन्तीं मां भार्यामिष्टां नराधिप। ईप्सितामीप्सितोसि त्वं किं मां न प्रतिभाषसे ।। | 3-61-22a 3-61-22b |
कृशां दीनां विवर्णां च मलिनां वसुधाधिप। वस्त्रार्धप्रावृतामेकां विलपन्तीमनाथवत् ।। | 3-61-23a 3-61-23b |
यूथभ्रष्टामिवैकां मां हरिणीं पृथुलोचन। न मानयसि मामार्य रुदन्तीमरिकर्शन ।। | 3-61-24a 3-61-24b |
महाराज महारण्ये मामिहैकाकिनीं सतीम्। आभाषमाणां स्वां पत्नीं किं मां न प्रतिभाषसे ।। | 3-61-25a 3-61-25b |
कुलशीलोपसंपन्नां चारुसर्वाङ्गशोभनाम्। `अनुव्रतां महाराज किं मां न प्रतिभाषसे ।।' | 3-61-26a 3-61-26b |
नाद्यत्वां प्रतिपश्यामि गिरावस्मिन्नरोत्तम। वने चास्मिन्महाधोरे सिंहव्याघ्रनिषेविते ।। | 3-61-27a 3-61-27b |
शयानमुपविष्टं वा स्थितं वा निषधाधिप। प्रस्थितं वा नरश्रेष्ठ मम शोकनिबर्हण ।। | 3-61-28a 3-61-28b |
कं नु पृच्छामि दुःखार्ता त्वदर्थे शोककर्शिता। कच्चिद्दृष्टस्त्वयाऽरण्ये संगत्येति नलो नृपः ।। | 3-61-29a 3-61-29b |
को नु मे कथयेदद्य वनेऽस्मिन्विष्ठितं नृपम्। अभिरूपं महात्मानं परव्यूहविनाशनम् ।। | 3-61-30a 3-61-30b |
यमन्वेपसि राजानं नलं पद्मनिभेक्षणम्। अयंस इति कस्याद्य श्रोष्यामि मधुरां गिरम् ।। | 3-61-31a 3-61-31b |
अरण्यराडयं श्रीमांश्चतुर्दंष्ट्रो महाहनुः। शार्दूलोऽभिमुखोऽभ्येति पृच्छाम्येनमशङ्किता ।। | 3-61-32a 3-61-32b |
भवान्मृगाणामधिपस्त्वमस्मिन्कानने प्रभुः। विदर्भराजतनयां दमयन्तीति विद्धि माम् ।। | 3-61-33a 3-61-33b |
निषधाधिपतेर्भार्यां नलस्यामित्रघातिनः। पतिमन्वेषतीमेकां कृपणां शोककर्शिताम् ।। | 3-61-34a 3-61-34b |
आश्वासय मृगेन्द्रेह यदि दृष्टस्त्वया नलः। `सिंहस्कन्धो महाबाहुः पद्मपत्रनिभेक्षणः ।।' | 3-61-35a 3-61-35b |
अथवाऽरण्यनृपते नलं यदि न शंससि। मां खादय मृगश्रेष्ठ दुःखादस्माद्विमोचय ।। | 3-61-36a 3-61-36b |
श्रुत्वाऽरण्ये विलपितं ममैष मृगराट् स्वयम्। यात्येष मृष्टसलिलामापगां सागरोपमाम् ।। | 3-61-37a 3-61-37b |
इमं शिलोच्चयं पृच्छे शृङ्गैर्बहुभिरुच्छितैः। विराजितं दिवस्पृग्भिर्नैकवर्णैर्मनोरमैः ।। | 3-61-38a 3-61-38b |
नानाधातुसमाकीर्णं विविधोपलभूषितम्। आस्यारण्यस्य महतः केतुभूतमिवोच्छितम् ।। | 3-61-39a 3-61-39b |
सिंहशार्दूलमातङ्गवराहर्क्षमृगायुतम्। पतत्रिभिर्बहुविधैः समन्तादनुनादितम् ।। | 3-61-40a 3-61-40b |
किंशुकाशोकबकुलपुन्नागैरुपशोभितम्। [कर्णिकारधवप्लक्षैः सुपुष्पैरुपशोभितम् ।।] | 3-61-41a 3-61-41b |
सरिद्भिः सविहङ्गाभिः शिखरैश्च समाकुलम्। `पृथिव्या रुचिराकारं चूडामणिमिव स्थितम्'। निरिराजमिमं तावत्पृच्छामि नृपतिं प्रति ।। | 3-61-42a 3-61-42b 3-61-42c |
भगवन्नचलश्रेष्ठ दिव्यद्रशन विश्रुत। शरण्य बहुकल्याण नमस्तेऽस्तु महीधर ।। | 3-61-43a 3-61-43b |
प्रणमे त्वाऽभिगम्याहं राजपुत्रीं निबोध माम्। राजस्नुषां राजभार्यां दमयन्तीति विश्रुताम् ।। | 3-61-44a 3-61-44b |
राजा विदर्भाधिपतिः पिता मम महारथः। भीमो नाम क्षितिपतिश्चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता ।। | 3-61-45a 3-61-45b |
राजसूयाश्वमेधानां क्रतूनां दक्षिणावताम्। आहर्ता पार्थिवश्रेष्ठः पृथुचार्वञ्चितेक्षणः ।। | 3-61-46a 3-61-46b |
ब्रह्मण्यः साधुवृत्तश्च सत्यवागनसूयकः। शीलवान्वीर्यसंपन्नः पृथुश्रीर्धर्मविच्छुचिः ।। | 3-61-47a 3-61-47b |
सम्यग्गोप्ता विदर्भाणां निर्जितारिगणः प्रभुः। तस्य मां विद्धि तनयां भगवंस्त्वामुपस्थिताम् ।। | 3-61-48a 3-61-48b |
निषधेषु महाराजः श्वशुरो मे नरोत्तमः। गृहीतनामा विख्यातो वीरसेन इति स्म ह ।। | 3-61-49a 3-61-49b |
तस्य राज्ञः सुतो वीरः श्रीमान्सत्यपराक्रमः। क्रमप्राप्तं पितुः स्वं यो राज्यं समनुशास्ति ह ।। | 3-61-50a 3-61-50b |
नलो नामारिहा श्यामः पुण्यल्को इति श्रुतः। ब्रह्मण्यो वेदविद्वाग्मी पुण्यकृत्सोमपोऽग्निचित् ।। | 3-61-51a 3-61-51b |
यष्टा दाता च योद्धा च सम्यक्चैव प्रशासिता। तस्य मामचलश्रेष्ठ विद्धि भार्यामिहागताम् ।। | 3-61-52a 3-61-52b |
त्यक्तश्रियं भर्तृहीनामनाथां व्यसनान्विताम्। अन्वेषमाणां भर्तारं नलं नरवरोत्तमम् ।। | 3-61-53a 3-61-53b |
खमुल्लिखद्भिरेतैर्हि त्वया शृङ्गशतैर्नृपः। कच्चिद्दृष्टोऽचलश्रेष्ठ वनेऽस्मिन्दारुणे नलः ।। | 3-61-54a 3-61-54b |
विक्रान्तः सत्त्ववान्वीरो भर्ता मम महायशाः। निषधानामधिपतिः कच्चिद्दृष्टस्त्वया नलः ।। | 3-61-55a 3-61-55b |
कं मीं विलपतीमेकां पर्वतश्रेष्ठ विह्वलाम्। गिरा नाश्वासयस्यद्यस्वां सुतामिव दुखितां ।। | 3-61-56a 3-61-56b |
वीर विक्रान्त धर्मज्ञ सत्यसंध महीपते। यद्यस्यस्मिन्वने राजन्दर्शयात्मानमात्मना ।। | 3-61-57a 3-61-57b |
कदा सुस्निग्गम्भीरां जीमूतस्वनसन्निभाम्। श्रोष्यामि नैषधस्याहं वाचं ताममृतोपमाम् ।। | 3-61-58a 3-61-58b |
वैदर्भ्येहीति विस्पष्टां शुभां राज्ञो महात्मनः। आत्माभिधायिनीमृद्धां मम शोकविनाशिनीं ।। | 3-61-59a 3-61-59b |
इतिसा तं गिरिश्रेष्ठमुक्त्वा पार्थिवनन्दिनी। दमयन्ती ततो भूयो जगाम दिशमुत्तराम् ।। | 3-61-60a 3-61-60b |
सा गत्वा त्रीनहोरात्रान्ददर्श परमाङ्गना। तापसारण्यमतुलं दिव्यकाननशोभितम् ।। | 3-61-61a 3-61-61b |
वसिष्ठभृग्वत्रिसमैस्तापसैरुपशोभितम्। नियतैः संयताहारैर्दमशौचसमन्वितैः ।। | 3-61-62a 3-61-62b |
अब्भक्षैर्वायुभक्षैश्च पत्राहारैस्तथैव च। जितेन्द्रियैर्महाभागैः स्वर्गमार्गदिदृक्षुभिः ।। | 3-61-63a 3-61-63b |
वल्कलाजिनसंवीतैर्मुनिभिः संयतेन्द्रियैः। तापसाध्युषितं रम्यं ददर्शाश्रममण्डलम् ।। | 3-61-64a 3-61-64b |
नानामृगगणैर्जुष्टं शाखामृगगणायुतम्। तापसैः समुपेतं च सा दृष्ट्वैव समाश्वसत् ।। | 3-61-65a 3-61-65b |
सुभ्रूः सुकेशी सुश्रोणी सुकुचा सुद्विजानना। वर्चस्विनी सुप्रतिष्ठा स्वसितायतलोचना ।। | 3-61-66a 3-61-66b |
सा विवेशाश्रमपदं वीरसेनसुतप्रिया। योषिद्रत्नं महाभागा दमयन्ती तपस्विनी ।। | 3-61-67a 3-61-67b |
साऽभिवाद्य तपोवृद्धान्विनयावनता स्थिता। स्वागतं त इतिप्रोक्ता तैः सर्वैस्तापसोत्तमैः ।। | 3-61-68a 3-61-68b |
पूजां चास्या यथान्यायं कृत्वा तत्रतपोधनाः। आस्यतामित्यथोचुस्ते ब्रूहि किं करवामहे ।। | 3-61-69a 3-61-69b |
तानुवाच वरारोहा कच्चिद्भगवतामिह। तपःस्वग्निषु धर्मेषु मृगपक्षिषु चानघाः ।। | 3-61-70a 3-61-70b |
कुशलं वो महाभागाः स्वधर्माचरणेषु च। तैरुक्ता कुशलं भद्रे सर्वत्रेति यशस्विनी ।। | 3-61-71a 3-61-71b |
ब्रूहि सर्वानवद्याङ्गि का त्वं किंच चिकीर्षसि। दृष्ट्वैव ते परंरूपं द्युतिं च परमामिह ।। | 3-61-72a 3-61-72b |
विस्मयो नः समुत्पन्नः समाश्वसिहि मा शुचः। अस्यारण्यस्य देवी त्वमुताहोऽस्य महीभृतः। अस्याश्च नद्याः कल्याणि वद सत्यमनिन्दिते ।। | 3-61-73a 3-61-73b 3-61-73c |
साऽब्रवीत्तानृपीन्नाहमरण्यस्यास्य देवता। न चाप्यस्य गिरर्विप्रा नैव नद्याश्च देवता ।। | 3-61-74a 3-61-74b |
मानुषीं मां विजानीत यूयं सर्वेतपोधनाः। विस्तरेणाभिधास्यामि तन्मे शृणुत सर्वशः ।। | 3-61-75a 3-61-75b |
विदर्भेपु महीपालो भीमो नाम महीपतिः। तस्य मां तनयां सर्वे जानीत द्विजसत्तमाः ।। | 3-61-76a 3-61-76b |
निपधाधिपतिर्धीमान्नलो नाम महायशाः। वीरः संग्रामजिद्विद्वान्मम भर्ता विशांपतिः ।। | 3-61-77a 3-61-77b |
देवताभ्यर्चनपरो द्विजातिजनवत्सलः। गोप्ता निपधवंशस्य महातेजा महाबलः ।। | 3-61-78a 3-61-78b |
सत्यवान्धर्मवित्प्राज्ञः सत्यसंधोऽरिमर्दनः। ब्रह्मण्यो दैवतपरः श्रीमान्परपुरंजयः ।। | 3-61-79a 3-61-79b |
नलो नाम नृपश्रेष्ठो देवराजसमद्युतिः। मम भर्ता विशालाक्षः पूर्णेन्दुवदनोऽरिहा ।। | 3-61-80a 3-61-80b |
आहर्ता क्रतुमुख्यानां वेदवेदाङ्गपारगः। सपत्नानां मृधे हन्ता रविसोमसमप्रभः ।। | 3-61-81a 3-61-81b |
स कैश्चिन्निकृतिप्रज्ञैरनार्यैरकृतात्मभिः। आहृय पृथिवीपालः सत्यधर्मपरायणः। देवनेकुशलैर्जिह्मैर्जितो राज्यं वसूनि च ।। | 3-61-82a 3-61-82b 3-61-82c |
तस्य मामवगच्छध्वं भार्यां राजर्पभस्य वै। दमयन्तीति विख्यातां भर्तुर्दर्शनलालसाम् ।। | 3-61-83a 3-61-83b |
सा वनानि गिरींश्चैव सरांसि सरितस्तथा। पल्वलानि च सर्वाणि तथाऽरण्यानि सर्वशः ।। | 3-61-84a 3-61-84b |
अन्वेपमाणआ भर्तारं नलं रणविशारदम्। महात्मानं कृतास्त्रं च विचरामीह दुःखिता ।। | 3-61-85a 3-61-85b |
कच्चिद्भगवतां रम्यं तपोवनमिदं नृपः। भवेत्प्राप्तो नलो नाम निपधानां जनाधिपः ।। | 3-61-86a 3-61-86b |
यत्कृतेऽहमिदं दुःखं प्रपन्ना भृशदारुणम्। वनं प्रतियं धोरं शार्दूलमृगसेवितम् ।। | 3-61-87a 3-61-87b |
यदि कैश्चिदहोरात्रैर्न द्रक्ष्यामि नलं नृपम्। आत्मानं श्रेयसा योक्ष्ये देहस्यास्य विमोक्षणात् ।। | 3-61-88a 3-61-88b |
कोनु मे जीवितेनार्थस्तमृते पुरुषर्षभम्। कथं भविष्याम्यद्याहं भर्तृशोकाभिपीडिता ।। | 3-61-89a 3-61-89b |
तथा विलपतीमेकामरण्ये भीमनन्दिनीम्। दमयन्तीमथोचुस्ते तापसाः सत्यवादिनः ।। | 3-61-90a 3-61-90b |
उदर्कस्तव कल्याणि कल्याणो भविता शुभे। वयं पश्याम तपसा क्षिप्रं द्रक्ष्यसि नैषधम् ।। | 3-61-91a 3-61-91b |
निपधानामधिपतिं नलं रिपुनिपातिनम्। भैमि धर्मभृतां श्रेष्ठं द्रक्ष्यसे विगतज्वरम् ।। | 3-61-92a 3-61-92b |
विमुक्तं सर्वपापेभ्यः सर्वरत्नसमन्वितम्। तदेव नगरं श्रेष्ठं प्रशासतमरिन्दमम् ।। | 3-61-93a 3-61-93b |
द्विपतां भयकर्तारं सुहृदां शोकनाशनम्। पतिमेष्यसि कल्याणि कल्याणाभिजनं नृपम् ।। | 3-61-94a 3-61-94b |
एवमुक्त्वा नलस्येष्टां महिषीं पार्थिवात्मजाम्। अन्तर्हितास्तापसास्ते साग्निहोत्राश्रमास्तथा ।। | 3-61-95a 3-61-95b |
सा दृष्ट्वा महदाश्चर्यं विस्मिता ह्यभवत्तदा। दमयन्त्यनवद्याङ्गी वीरसेननृपस्नुषा ।। | 3-61-96a 3-61-96b |
`चिन्तयामास वैदर्भी किमेतद्दृष्टवत्यहम्' ।। | 3-61-97a |
किंनु स्वप्नो मया दृष्टः कोऽयंविधिरिहाभवत्। क्वनु ते तापसाः सर्वे क्व तदाश्रममण्डलम् ।। | 3-61-98a 3-61-98b |
क्व सा पुण्यजला रम्या नदी द्विजनिषेविता। क्वनु ते ह नगा हृद्याः फलपुष्पोपशोभिताः ।। | 3-61-99a 3-61-99b |
`इत्येवं नरशार्दूल विस्मिता कमलेक्षणा।' ध्यात्वा चिरं भीमसुता दमयन्ती शुचिस्मिता। भर्तृशोकपरा दीनाविवर्णवदनाऽभवत् ।। | 3-61-100a 3-61-100b 3-61-100c |
सा गत्वाऽथापरां भूमिं बाष्पसंदिग्धया गिरा। विललापाश्रुपूर्णाक्षी दृष्ट्वाऽशोकतरुं ततः ।। | 3-61-101a 3-61-101b |
उपगम्य तरुश्रेष्ठमशोकं पुष्पितं वने। पल्लवापीडितं हृद्यं विहङ्गैरनुनादितम् ।। | 3-61-102a 3-61-102b |
अहो बतायमगमः श्रीमानस्मिन्वनान्तरे। आपीडैर्बहुभिर्भाति श्रीमान्पर्वतराडिव ।। | 3-61-103a 3-61-103b |
विशोकां कुरु मां क्षिप्रमशोक प्रियदर्शन। वीतशोकभयाबाधं कच्चित्त्वं दृष्टवान्नृपम् ।। | 3-61-104a 3-61-104b |
नलं नामारिदमनं नमयन्त्याः प्रियं पतिम्। निमधानामधिपतिं दृष्टवानसि मे प्रियम् ।। | 3-61-105a 3-61-105b |
एकवस्त्रार्धसंवीतं सुकुमारतनुत्वचम्। व्यसनेनार्दितं वीरमरण्यमिदमागतम् ।। | 3-61-106a 3-61-106b |
यथा विशोका गच्छेयमशोकनग तत्कुरु। सत्यनामा भवाशोक मम शोकविनाशनात् ।। | 3-61-107a 3-61-107b |
एवंसाऽशोकवृत्तं तमार्ता वै परिगम्य ह। जगाम दारुणतरं देशं भैमी वराङ्गना ।। | 3-61-108a 3-61-108b |
सा ददर्श नगान्नैकान्नैकाश्च सरितस्तथा। नैकांश्च पर्वतान्रम्यान्नैकांश्च मृगपक्षिणः ।। | 3-61-109a 3-61-109b |
कन्दरांश्च नितम्बांश्च नदीश्चाद्भुतदर्शनाः। ददर्श तान्भीमसुता पतिमन्वेषती तदा ।। | 3-61-110a 3-61-110b |
गत्वा प्रकृष्टमध्वानं दमयन्ती शुचिस्मिता। ददर्शाथ महासार्थं हस्त्यश्वरथसंकुलम् ।। | 3-61-111a 3-61-111b |
उत्तरन्तं नदीं रम्यां प्रसन्नसलिलां शुभाम्। सुशीततोयां विस्तीर्णां ह्रदिनीं वेतसैर्वृताम् ।। | 3-61-112a 3-61-112b |
प्रोद्धुष्टां क्रौञ्चकुररैश्चक्रबाकोपकूजिताम्। कूर्मग्राहझवाकीर्णां विपुलद्वीपशोभिताम् ।। | 3-61-113a 3-61-113b |
सा दृष्ट्वैव महासार्थं नलपत्नी यशस्विनी। उपसर्प्य वरारोहा जनमध्यं विवेश ह ।। | 3-61-114a 3-61-114b |
उन्मत्तरूपा शोकार्ता तथा वस्त्रार्धसंवृता। कृशा विवर्णा मलिना पांसुध्वस्तशिरोरुहा ।। | 3-61-115a 3-61-115b |
तां दृष्ट्वा तत्रमनुजाः केचिद्भीताः प्रदुद्रुवुः। केचिच्चिन्तापरास्तस्थुः केचित्तत्रविचुक्रुशुः ।। | 3-61-116a 3-61-116b |
प्रहसन्ति स्म तां केचिदभ्यसूयन्ति चापरे। कुर्वन्त्यस्यांदयांकेचित्पप्रच्छुश्चापि भारत ।। | 3-61-117a 3-61-117b |
काऽसि कस्यासि कल्याणि किं वा मृगयसे वने। त्वां दृष्ट्वा व्यथिताः स्मेह कच्चित्त्वमसिं मानुषी ।। | 3-61-118a 3-61-118b |
वद सत्यं वनस्यास्य पर्वतस्याथवा दिशः। देवता त्वं हि कल्याणि त्वां वयं शरणं गताः ।। | 3-61-119a 3-61-119b |
यक्षी वा राक्षसी वा त्वमुताहोसि सुराङ्गना। सर्वथाकुरु नः स्वस्ति रक्ष चास्माननिन्दिते ।। | 3-61-120a 3-61-120b |
यथाऽयंसर्वथा सार्थः क्षेमी शीघ्रमितो व्रजेत्। तथा विधत्स्व कल्याणि यथा श्रेयो हि नो भवेत् ।। | 3-61-121a 3-61-121b |
तथोक्ता तेन सार्थेन दमयन्ती नृपात्मजा। प्रत्युवाच ततः साध्वी भर्तृव्यसनपीडिता ।। | 3-61-122a 3-61-122b |
सार्तवाहं च सार्थं च जना ये चात्र केचन। युवस्थविरबालाश् सार्थस्य च पुरोगमाः ।। | 3-61-123a 3-61-123b |
मानुषीं मां विजानीत मनुजाधिपतेः सुताम्। नृपस्नुषां राजभार्यां भर्तृदर्शनलालसाम् ।। | 3-61-124a 3-61-124b |
विदर्भराण्मम पिता भर्ता राजा च नैषधः। नलोनाम महाभागस्तं मार्गाम्यपराजितम् ।। | 3-61-125a 3-61-125b |
यदि जानीत नृपतिं क्षिप्रं शंसत मे प्रियम्। नलं पुरुषशार्दूलममित्रगणसूदनम् ।। | 3-61-126a 3-61-126b |
तामुवाचानवद्याङ्गीं सार्थस्य महतः प्रभुः। सार्थवाहः शुचिर्नाम शृणु कल्याणि मद्वचः ।। | 3-61-127a 3-61-127b |
अहं सार्थस्य नेता वै सार्थवाहः शुचिस्मिते। मनुष्यं नलनामानं न पश्यामि यशस्विनि ।। | 3-61-128a 3-61-128b |
कुञ्जरद्वीपिमहिषशार्दूलर्क्षमृगानपि। पश्याम्यस्मिन्वने कृत्स्ने ह्यमनुष्यनिषेविते ।। | 3-61-129a 3-61-129b |
ऋते त्वां मानुषीं मर्त्यं न पश्यामि महावने। तथा नो यक्षराडद्य मणिभद्रः प्रसीदतु ।। | 3-61-130a 3-61-130b |
साऽब्रवीद्वणिजः सर्वान्सार्थवाहं च तं ततः। क्वनु यास्यति सार्थोऽयमेतदाख्यातुमर्हसि ।। | 3-61-131a 3-61-131b |
सार्तवाह उवाच। | 3-61-132x |
सार्थोऽयं चेदिराजस्य सुबाहोः सत्यदर्शिनः। क्षिप्रं जनपदं गन्ता लाभाय मनुजात्मजे ।। | 3-61-132a 3-61-132b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि एकषष्टितमोऽध्यायः । 61 |
3-61-1 प्रतिभयं भीषणम्। झिल्लिका तीक्ष्णशब्दः पतङ्गविशेषः ।। 3-61-47 ब्रह्मण्यः ब्रह्मणि ब्राह्मणजातौ वेदे वैदिककर्मणि परमात्मनि वा साधुः ।। 3-61-66 सुद्विजानना शोभनदन्तयुक्तमुखी। सुप्रतिष्ठा सुजघना ।। 3-61-67 वीरसेनसुतस्य नलस्य प्रिया ।। 3-61-82 सधूतैर्निकृतिप्रज्ञैरकल्याणैर्नराधमैरिति क. पाठः ।। 3-61-88 श्रेयसा मोक्षेण योक्ष्ये योजयिष्ये। योगबलेन देहे त्यक्त्वा मोक्षं प्राप्स्ये इत्यर्तः ।। 3-61-91 उदर्कः उत्तरकालः ।। 3-61-102 पल्लवैः आपीडितं भूषितम् ।। 3-61-103 अगमः वृक्षः। आपीडैः पुष्पफलादिरूपैरलंकारैः ।। 3-61-111 महासार्थं महान्तं जनसमूहम् ।। 3-61-114 वरारोहा विस्तीर्णजघना ।। 3-61-115 पांसुयुक्ताः ध्वस्ताः मुक्तबन्धाश्च शिरोरुहाः केशा यस्याः ।। 3-61-125 मार्गामि अन्वेषयामि ।।
आरण्यकपर्व-060 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-062 |