महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-120
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बलभद्रेण वृष्णिपाण्डवसभायां भीष्मधृतराष्ट्रादिगर्हणपूर्वकं पाण्डवान्प्रति शोचनम् ।। 1 ।।
जनमेजय उवाच। | 3-120-1x |
प्रभासतीर्थमासाद्यपाण्डवा वृष्णयस्तथा। किमकुर्वन्कथाश्चैषां कास्तत्रासंस्तपोधन ।। | 3-120-1a 3-120-1b |
ते हि सर्वे महात्मानः सर्वशास्त्रविशारदाः। वृष्णयः पाण्डवाश्चैव सुहृदश्चपरस्परम् ।। | 3-120-2a 3-120-2b |
वैशंपायन उवाच। | 3-120-3x |
प्रभासतीर्थं संप्राप्य पुण्यं तीर्थं महोदधेः। वृष्णयः पाण्डवान्वीराः परिवार्योपतस्थिरे ।। | 3-120-3a 3-120-3b |
ततो गोक्षीरकुन्देन्दुमृणआलरजतप्रभः। वनमाली हली रामो बभाषे पुष्करेक्षणम् ।। | 3-120-4a 3-120-4b |
न कृष्ण धर्मश्चरितो भवाय जन्तोरधर्मश्च पराभवाय। युधिष्ठिरो यत्रजटी महात्मा वनाश्रयः क्लिश्यति चीरवासाः ।। | 3-120-5a 3-120-5b 3-120-5c 3-120-5d |
दुर्योधनश्चापि महीं प्रशास्ति न चास्य भूमिर्विवरं ददाति। धर्मादधर्मश्चरितो वरीया- नितीव मन्येत नरोऽल्पबुद्धिः ।। | 3-120-6a 3-120-6b 3-120-6c 3-120-6d |
शङ्का मिथः संजनिता नराणाम् ।। | 3-120-7f |
अयं स धर्मप्रभवो नरेन्द्रो धर्मे धृतः सत्यधृतिः प्रदाता। चलेद्धि राज्याच्च सुखाच्च पार्थो धर्मादपेतस्तु कथं विवर्धेत् ।। | 3-120-8a 3-120-8b 3-120-8c 3-120-8d |
कथं नु भीष्मश्च कृपश्च विप्रो द्रोणश्च राजा च कुलस्य वृद्धः। प्रव्राज्य पार्थान्सुमाप्नुवन्ति धिक्पापबुद्धीन्भरतप्रधानान् ।। | 3-120-9a 3-120-9b 3-120-9c 3-120-9d |
किंनाम वक्ष्यत्यवनिप्रधानः पितृडन्समागम्य परत्र पापः। पुत्रेषु सम्यक्वरितं मयेति पुत्रानपापान्व्यपरोप्य राज्यात् ।। | 3-120-10a 3-120-10b 3-120-10c 3-120-10d |
नासौ धिया संप्रति पश्यति स्म किंनाम कृत्वाऽहमचक्षुरेवम्। जातः पृथिव्यामिति पार्थिवेषु प्रव्राज्यकौन्तेयमिति स्म राज्यात् ।। | 3-120-11a 3-120-11b 3-120-11c 3-120-11d |
नूनं समृद्धान्पितृलोकभूमौ चामीकराभान्क्षितिजान्प्रफुल्लान्। विचित्रवीर्यस्य सुतः सपुत्रः कृत्वा नृशंसं वत पश्यति स्म ।। | 3-120-12a 3-120-12b 3-120-12c 3-120-12d |
व्यूढोत्तरांसान्पृथुलोहिताक्षा- निमाम्स्म पृच्छन्स शृणोति नूनम्। प्रास्थापयद्यत्स वनं सशङ्को युधिष्ठिरं सानुजमात्तशस्त्रम् ।। | 3-120-13a 3-120-13b 3-120-13c 3-120-13d |
योऽयं परषां पृतनां समृद्धां निरायुधो दीर्घभुजो निहन्यात्। श्रुत्वैव शब्दं हि वृकोदरस्य मुञ्चन्ति सैन्यानि शकृत्समूत्रम् ।। | 3-120-14a 3-120-14b 3-120-14c 3-120-14d |
स क्षुत्पिपासाध्वकृशस्तरस्वी समेत्य नानायुधबाणपाणिः। वने स्मरन्वासमिमं सुघोरं शेषं न कुर्यादिति निश्चितं मे ।। | 3-120-15a 3-120-15b 3-120-15c 3-120-15d |
न ह्यस् वीर्येण बलेन कश्चि- त्समः पृथिव्यामपि विद्यतेऽन्यः। स शीतवातातपकर्शिताङ्गो न शेषमाजावसुहृत्सु कुर्यात् ।। | 3-120-16a 3-120-16b 3-120-16c 3-120-16d |
प्राच्यां नृपानेकरथेन जित्वा वृकोदरः सानुचरान्रणेषु। स्वस्त्यागमद्योऽतिरथस्तरस्वी सोयं वने क्लिश्यति चीरवासाः ।। | 3-120-17a 3-120-17b 3-120-17c 3-120-17d |
यः सिन्धुकूले व्यजयन्नृदेवा- न्समागतान्दाक्षिणात्यान्महीपान्। तं पश्यतेमं सहदेवमद्य तरस्विनं तापसवेषरूपम् ।। | 3-120-18a 3-120-18b 3-120-18c 3-120-18d |
यः पार्थिवानेकरथेन वीरो दिशं प्रतीचीं प्रत्नियुद्धशौण्डः। जिग्ये रणे तं नकुलं वनेऽस्मि- न्संपश्यतैनं मलदिग्धगात्रम् ।। | 3-120-19a 3-120-19b 3-120-19c 3-120-19d |
सत्रे समृद्धेऽतिरथस्य राज्ञो वेदीतलादुत्पतिता सुता या। सेयं वने वासमिमं सुदुःखं कथं सहत्यद्य सती सुखार्हा ।। | 3-120-20a 3-120-20b 3-120-20c 3-120-20d |
त्रिवर्गमुख्यस् समीरणस्य देवेश्वरस्याप्यथवाऽश्विनोश्च। एषां सुराणां तनयाः कथंनु वने चरन्त्यस्तसुखाः सुखार्हाः ।। | 3-120-21a 3-120-21b 3-120-21c 3-120-21d |
जिते हि धर्मस्य सुते सभार्ये सभ्रातृके सानुचरे निरस्ते। दुर्योधने चापि विवर्धमाने कथं न सीदत्यवनिः सशैला ।। | 3-120-22a 3-120-22b 3-120-22c 3-120-22d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 120 ।। |
3-120-5 भवाय अभ्युदयाय ।। 3-120-6 विवरं शरीरगूहृनाय न ददातीत्यर्थः ।। 3-120-7 मिथः शङ्काधर्माधर्मयोः किं बलीय इति शास्त्रानुभवयोर्विरोधात्संशयः ।। 3-120-8 राज्याच्च सुखाच्च चलेत् नतु धर्मादिति शेषः। तत्र हेतुः धर्मादिति ।। 3-120-10 अवनिप्रधानो धृतराष्ट्रः ।। 3-120-11 किंनाम पापं कृत्वाऽहमचक्षुर्जातः कौन्तेयं प्रव्राज्य कीदृशो भविष्यामीति धिया नासौ पश्यतीत्यध्याहृत्य योज्यम् ।। 3-120-12 चामीकराभान् कनकप्रभान्। एतन्मरणचिह्नम्। नृशंसं निन्द्यं कर्स ।। 3-120-15 शेषं न कुर्यात् निऋशेषमेव नाशयेदित्यर्थः ।। 3-120-17 खस्ति क्षेमेण आगमत् आगतः ।। 3-120-18 यो दन्तकूटे त्वजयत्समेतानिति ध. पाठः ।। 3-120-20 राज्ञः द्रुपदस्य ।। 3-120-21 त्रिवर्गमुख्यस् धर्मस्य ।।
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