महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-095
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विदर्भराजेन सन्तानार्थं कन्यां कामयमानायागस्त्याय लोपामुद्राया यथाविधि प्रदानम् ।। 1 ।। अगस्त्येन लोपामुद्राया महार्हवसनाभरणत्याजनेन वल्कलादिग्राहणपूर्वकं स्वाश्रमंप्रत्यानयनम् ।। 2 ।। ऋतुकाले समाहूतया तया महार्हवसनाभरणानि याचितेनागस्त्येन तत्संपादनाय प्रस्थानम् ।। 3 ।।
लोमश उवाच। | 3-95-1x |
यदात्वमन्यतागस्त्यो गार्हस्थ्ये तां क्षमामिति। तदाऽभिगम्य प्रोवाच वैदर्भं पृथिवीपतिम् ।। | 3-95-1a 3-95-1b |
राजन्निवेशे बुद्धिर्मे वर्तते पुत्रकारणात्। वरयेत्वां महीपाल लोपामुद्रां प्रयच्छ मे ।। | 3-95-2a 3-95-2b |
एवमुक्तः स मिनिना महीपालो विचेतनः। प्रत्याख्यानाय चाशक्तः प्रदातुं चैव नैच्छत ।। | 3-95-3a 3-95-3b |
ततः स भार्यामभ्येत्य प्रोवाच पृथिवीपतिः। महर्षिर्वीर्यवानेष क्रुद्धः शापाग्निना दहेत् ।। | 3-95-4a 3-95-4b |
तं तथा दुःखितं दृष्ट्वा सभार्यं पृथिवीपतिम्। लोपामुद्राऽभिगम्येदं काले वचनमब्रवीत् ।। | 3-95-5a 3-95-5b |
न मत्कृते महीपाल पीडामभ्येतुमर्हसि। प्रयच्छ मामगस्त्याय त्राह्यात्मानं मया पितः ।। | 3-95-6a 3-95-6b |
दुहितुर्वचनाद्राजा सोऽगस्त्याय महात्मने। लोपामुद्रां ततः प्रादाद्विधिपूर्वं विशांपते ।। | 3-95-7a 3-95-7b |
प्राप्य भार्यामगस्त्यस्तु लोपामुद्रामभाषत। महार्हाण्युत्सृजैतानि वासांस्याभरणानि च ।। | 3-95-8a 3-95-8b |
ततः सा दर्शनीयानि महार्हाणि तनूनि च। समुत्ससर्ज रम्भोरूर्वसनान्यायतेक्षणा ।। | 3-95-9a 3-95-9b |
ततश्चीराणि जग्राह वल्कलान्यजिनानि च। समानव्रतचर्या च बभूवायतलोचना ।। | 3-95-10a 3-95-10b |
गङ्गाद्वारमथागम्य भगवानृषिसत्तमः। उग्रमातिष्ठत तपः सह पत्न्याऽनुकूलया ।। | 3-95-11a 3-95-11b |
सा प्रीत्या बहुमानाच्च पतिं पर्यचरत्तदा। अगस्त्यश्च परां प्रीतिं भार्यायामगमत्प्रभुः ।। | 3-95-12a 3-95-12b |
ततो बहुतिथे काले लोपामुद्रां विशांपते। तपसा द्योतितां स्नातां ददर्श भगवानृषिः ।। | 3-95-13a 3-95-13b |
स तस्याः परिचारेण शौचेन च दमेन च। श्रिया रूपेण च प्रीतो मैथुनायाजुहाव ताम् ।। | 3-95-14a 3-95-14b |
ततः सा प्राञ्जलिर्भूत्वा लज्जमानेव भामिनी। तदा सप्रणयं वाक्यं भगवन्तमथाब्रवीत् ।। | 3-95-15a 3-95-15b |
असंशयं प्रजाहेतोर्भार्यां पतिरविन्दत। पा तु त्वयि मम प्रीतिस्तामृषे कर्तुमर्हसि ।। | 3-95-16a 3-95-16b |
यथा पितुर्गृहे विप्र प्रासादे शयनं मम। तथाविधे त्वं शयने मामुपैतुमिहार्हसि ।। | 3-95-17a 3-95-17b |
इच्छामि त्वां स्रग्विणं च भूषणैश्च विभूषितम्। उपसर्तुं यथाकामं दिव्याभरणभूषिता ।। | 3-95-18a 3-95-18b |
अन्यथा नोपतिष्ठेयं चीरकाषायवासिनी। नैवापवित्रो विप्रर्षे भूषणोयं कथंचन ।। | 3-95-19a 3-95-19b |
अगस्त्य उवाच। | 3-95-20x |
न ते धनानि विद्यन्ते लोपामुद्रे तथा मम। यथाविधानि कल्याणि पितुस्तव सुमध्यमे ।। | 3-95-20a 3-95-20b |
लोपामुद्रोवाच। | 3-95-21x |
ईशोसि तपसा सर्वं समाहर्तुं तपोधन। क्षणेन जीवलोके यद्वसु किंचन विद्यते ।। | 3-95-21a 3-95-21b |
अगस्त्य उवाच। | 3-95-22x |
एवमेतद्यथाऽऽत्थ त्वं तपोव्ययकरं तु तत्। यथा तु मे न नश्येत तपस्तन्मां प्रयोदय ।। | 3-95-22a 3-95-22b |
लोपामुद्रोवाच। | 3-95-23x |
अल्पावशिष्टः कालोऽयमृतोर्मम तपोधन। न चान्यथाऽहमिच्छामि त्वामुपैतुं कथंचन ।। | 3-95-23a 3-95-23b |
न चापि धर्ममिच्छामि विलोप्तुं ते कथंचन। एवं तु मे यथाकामं संपादयितुमर्हसि ।। | 3-95-24a 3-95-24b |
अगस्तय उवाच। | 3-95-25x |
यद्येष काम सुभगे तव बुद्ध्या विनिश्चितः। हर्तुं गच्छाम्यहं भद्रे चर काममिह स्थिता ।। आरस्ते तेजस्विनी कन्या रोहिणीव दिविप्रभा ।। | 3-95-25a 3-95-25b 3-94-27b |
3-95-2 निवेशे विवाहे ।। 3-95-13 स्नातां ऋताविति शेषः ।। 3-95-14 परिचारेण सेवया ।। 3-95-19 भूषणोयं चीरकाषायादिस्तपस्विनां श्लाघ्योयं सामग्रीकलापो भोगसंपर्केणापवित्रो नैव भवत्विति शेषः ।। 3-95-21 समाहर्तुं ममेप्सितमिति क. ध. पाठः ।। 3-95-23 ऋतोः कालः षोडशदिनानि तेषु अल्पोऽवशिष्टः ।।
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