महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-216
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धर्मव्याधेन कौशिकंप्रतिसत्वादिगुणत्रयगुणनिरूपणपूर्वकमध्यात्मकथनम् ।। 1 ।।
मार्कण्डेय उवाच। | 3-216-1x |
एवं तु सूक्ष्मे कथिते धर्मव्याधेन भारत। ब्राह्मणः स पुन सूक्ष्मं पप्रच्छ सुसमाहितः ।। | 3-216-1a 3-216-1b |
वृत्त्वस्य रजसश्चैव तमसश्च यथातथम्। वृणांस्तत्त्वेन मे ब्रूहि यथावदिह पृच्छतः ।। | 3-216-2a 3-216-2b |
व्याध उवाच। | 3-216-2x |
दृन्त ते कथयिष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि। एतान्गुणान्पृथक्त्वेन निबोध गदतो मम ।। | 3-216-3a 3-216-3b |
मोहात्मकं तमस्तेषां रज एषां प्रवर्तकम्। प्रकाशबहुलत्वाच्च सत्वं ज्याय इहोच्यते ।। | 3-216-4a 3-216-4b |
अविद्याबहुलो मूढः स्वप्नशीलो विचेतनः। दृर्हृपीकस्तमोध्यस्तः सक्रोधस्तामसोऽलसः ।। | 3-216-5a 3-216-5b |
सुवृत्तवाक्यो मन्त्री च यो नराग्र्योऽनमूयकः। विवित्समानो विप्रर्षे स्तब्धो मानी स राजसः ।। | 3-216-6a 3-216-6b |
प्रकाशबहुलो धीरो निर्विवित्सोऽनसूयकः। अक्रोधनो नरो धीमान्दान्तश्चैवस सात्विकः ।। | 3-216-7a 3-216-7b |
सात्विकस्त्वथ संबुद्धो लोकवृत्तैर्न लिप्यते। यदा बुध्यति बोध्धव्यं लोकवृत्तं जुगुप्सते ।। | 3-216-8a 3-216-8b |
वैराग्यस् च रूपं तु पूर्वमेव प्रवर्तते। मृदुर्भवत्यहंकारः प्रसीदत्यार्जवं च यत् ।। | 3-216-9a 3-216-9b |
ततोऽस् सर्वद्वन्द्वानि प्रशाम्यन्ति परस्परम्। न चास्यासंयमो नाम क्वचिद्भवति कश्चन ।। | 3-216-10a 3-216-10b |
शूद्रयोनौ हि जातस्य सद्गुणानुपतिष्ठतः। वैश्यत्वं भवति ब्रह्मन्क्षत्रियत्वं तथैव च ।। | 3-216-11a 3-216-11b |
आर्जवे वर्तमानस्य ब्राह्मण्यमभिजायते। गुणास्ते कीर्तिताः सर्वे किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। | 3-216-12a 3-216-12b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-216-13x |
पार्थिवं धातुमासाद्य शारीरोऽग्निः कथं भवेत्। अवकाशविशेषेण कथं वर्तयतेऽनिलः ।। | 3-216-13a 3-216-13b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-216-14x |
प्रश्नमेतं समुद्दिष्टं ब्राह्मणेन युधिष्ठिर। व्याधस्तु कथयामास ब्राह्मणाय महात्मने ।। | 3-216-14a 3-216-14b |
मूर्धानमाश्रितो वह्निः शरीरं परिपालयन्। प्राणो मूर्धनि चाग्नौ च वर्तमानो विचेष्टते ।। | 3-216-15a 3-216-15b |
भूं भव्यं भविष्यं च सर्वं प्राणे प्रतिष्ठितम्। श्रेष्ठं तदेव भूतानां ब्रह्मज्योतिरुपास्महे ।। | 3-216-16a 3-216-16b |
स जन्तुः सर्वभूतात्मा पुरुषः स सनातनः। मनोबुद्धिरहंकारो भूतानां विषयश्च सः ।। | 3-216-17a 3-216-17b |
`अव्यक्तं सस्वसंज्ञं च जीवः कालः स चैव हि। प्रकृतिः पुरुषश्चैव प्राण एव द्विजोत्तम ।। | 3-216-18a 3-216-18b |
जागर्ति स्वप्नकाले च स्वप्ने स्वप्नायते च सः। जाग्रत्सु बलमाधत्ते चेष्टत्सु चेष्टयत्यपि ।। | 3-216-19a 3-216-19b |
तस्मिन्निरुद्दे विप्रेन्द्र मृत इत्यभिधीयते। त्यक्त्वा शरीरं भूतात्मा पुनरन्यत्प्रपद्यते ।। | 3-216-20a 3-216-20b |
एष त्वग्निरपानन प्राणेन परिपाल्यते। पृष्ठतस्तु समानन स्वांस्वां गतिमुपाश्रितः ।। | 3-216-21a 3-216-21b |
वस्तुमूले गुदे चैव पावकं समुपाश्रितः। वहन्मूत्रं पुरीषंवाऽप्यपानः परिवर्तते ।। | 3-216-22a 3-216-22b |
प्रयत्ने कर्मणि बले य एकस्त्रिषु वर्तते। उदान इति तं प्राहुरध्यात्मविदुषो जनाः ।। | 3-216-23a 3-216-23b |
सन्धौसन्धौ संनिविष्टः सर्वेष्वपि तथाऽनिलः। शरीरेषु मनुष्याणां व्यान इत्युपदिश्ते ।। | 3-216-24a 3-216-24b |
धातुष्वग्निस्तु विततः स तु वायुसमीरितः। रसान्धातूंश्च दोषांश्च वर्तयन्परिधावति ।। | 3-216-25a 3-216-25b |
प्राणानां संनिपातात्तु सन्निपातः प्रजायते। सोष्मा सोग्निरितिज्ञेयो योऽन्नं पचतिदेहिनां ।। | 3-216-26a 3-216-26b |
अपानोदानयोर्मध्ये प्राणन्यानौ समाहितौ। समन्वितस्त्वधिष्ठानं सम्यक्पचति पावकः ।। | 3-216-27a 3-216-27b |
अस्यापि पायुपर्यन्तस्तथा स्याद्गुदसंज्ञितः। स्रोतांशि तस्माज्जायन्ते सर्वप्राणेषु देहिनाम् ।। | 3-216-28a 3-216-28b |
अग्निवेगवहः प्राणो गुदान्ते प्रतिहन्यते। स ऊर्ध्वमागम्य पुनः समुत्क्षिपति पावकम् ।। | 3-216-29a 3-216-29b |
पक्वाशयस्त्वधोनाभ्या ऊर्ध्वमामाशयः स्थितः। नाभिमध्ये शरीरस्य प्राणाः सर्वे प्रतिष्ठिताः ।। | 3-216-30a 3-216-30b |
प्रवृत्ता हृदयात्सर्वे तिर्यगूर्ध्वमधस्तथा। वहन्त्यन्नरसान्नाड्यो दशप्राणप्रचोदिताः ।। | 3-216-31a 3-216-31b |
योगिनामेष मार्गस्तु येन गच्छन्ति तत्परम्। जितक्लमासनो धीरो मूर्धन्यात्मानमादत् ।। | 3-216-32a 3-216-32b |
एवं सर्वेषु विततौ प्राणापानौ हि देहिषु। `तौ तावदग्निसहितौ विद्धि वै प्राणमात्मनि' ।। | 3-216-33a 3-216-33b |
एकादशविकारात्मा कलासंभारसंभृतः। मूर्तिमन्तं हि तं विद्धि नित्यं योगजितात्मकम्। तस्मिन्यः संस्थितो ह्यग्निर्नित्यं स्थाल्यामिवाहितः ।। | 3-216-34a 3-216-34b 3-216-34c |
आत्मानं तं विजानीहि नित्यं त्यागजितात्मकं ।। | 3-216-35a |
देवो यः संस्थितस्तस्मिन्नब्बिन्दुरिव पुष्करे। क्षेत्रज्ञं तं विजानीहि नित्यं त्यागजितात्मकं ।। | 3-216-36a 3-216-36b |
जीवात्मकं विजानीहि रजः सत्वं तमस्तथा। जीवमात्मगुणं विद्धि तथाऽऽत्मानं परात्मकं ।। | 3-216-37a 3-216-37b |
अचेतनं जीवगुणं वदन्ति सचेष्टते चेष्टयते च सर्वम्। ततः परं क्षेत्रविदो वदन्ति प्राकल्पयद्यो भुवनानि सप्त ।। | 3-216-38a 3-216-38b 3-216-38c 3-216-38d |
एष सर्वेषु भूतेषु भूतात्मा न प्रकाशते। दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया ज्ञानवेदिभिः ।। | 3-216-39a 3-216-39b |
चित्तस्य हि प्रसादेन हनति कर्म शुभाशुभम्। प्रसन्नात्मात्मनि स्थित्वा सुखमनन्त्यमश्नुते ।। | 3-216-40a 3-216-40b |
लक्षणं तु प्रसादस्य यथा तृप्तः सुखं स्वपेत्। `सुखदुःखे हि संत्यज्य निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः'। निवाते वा यथा दीपो दीप्येत्कुशलदीपितः ।। | 3-216-41a 3-216-41b 3-216-41c |
पूर्वरात्रेऽपरे चैव युञ्जानः सततं मनः। लध्वाहारो विशुद्धात्मा पश्यत्यात्मानमात्मनि ।। | 3-216-42a 3-216-42b |
प्रदीप्तेनेव दीपेन मनोदीपेन पश्यति। दृष्ट्वाऽऽत्मानं निरात्मानं स तदा विप्रमुच्यते ।। | 3-216-43a 3-216-43b |
सर्वोपायैस्तु लोभस् क्रोधस्य च विनिग्रहः। एतत्पवित्रं यञ्ज्ञानं तपो वै संक्रमो मतः ।। | 3-216-44a 3-216-44b |
नित्यं क्रोधात्तपो रक्षेन्छ्रियं रक्षेच्च मत्सरात्। विद्यां मानापमानाभ्यामात्मानं तु प्रमादतः ।। | 3-216-45a 3-216-45b |
आनृशंस्यं परो धर्मः क्षमा च परमं बलम्। आत्मज्ञानं परं ज्ञानं परं सत्यव्रतव्रतम् ।। | 3-216-46a 3-216-46b |
सत्यस् वचनं श्रेयः सत्यं ज्ञानं हितं भवेत्। यद्बूतहितमत्यन्तं तद्वै सत्यं परं मतम् ।। | 3-216-47a 3-216-47b |
यस् सर्वे समारम्भा निराशीर्बन्धनाः सदा। त्यागे यस् हुतं सर्वं स त्यागी स च बुद्धिमान् ।। | 3-216-48a 3-216-48b |
यदा न गुरुतां चैनं च्यावयेदुपपादयन्। तं विद्याद्ब्राह्मणो योगमयोगं योगसंज्ञितम् ।। | 3-216-49a 3-216-49b |
न हिंस्यात्सर्वभूतानि मैत्रायणगतश्चरेत्। नेदं जीवितमासाद्यवैरं कुर्वीत केनचित् ।। | 3-216-50a 3-216-50b |
आकिंचन्यं सुसंतोषो निराशित्वमचापलम्। एतदेव परं ज्ञानं सदात्मज्ञानमुत्तमम् ।। | 3-216-51a 3-216-51b |
परिग्रहं परित्यज्य भवेद्बुद्ध्या यतव्रतः। अशोकं स्थानमाश्रित् निश्चलं प्रेत्य चेह च ।। | 3-216-52a 3-216-52b |
तपोनित्येन दान्तेन मुनिना संयतात्मना। अजितं जेतुकामेन भाव्यं सङ्गेष्वसङ्गिना ।। | 3-216-53a 3-216-53b |
गुणागुणमनासङ्गमेककार्यमनन्तरम्। एतत्तद्ब्रह्मणो वृत्तमाहुरेकपदं सुखम् ।। | 3-216-54a 3-216-54b |
परित्यजति यो दुःखं सुखं चाप्युभयं नरः। ब्रह्म प्राप्नोति सोत्यन्तमासङ्गं च न गच्छति ।। | 3-216-55a 3-216-55b |
यथाश्रुतमिदं सर्वं समासेन द्विजोत्तम। एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। | 3-216-56a 3-216-56b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि षोडशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। |
3-216-10 नचास्य संशयो नाम इति झ. पाठः ।।
3-216-27 समानोदानयोर्मध्येप्राणपानौ समाहितौ इति झ. पाठः ।।
३-२१६-३४ मूर्तिमन्तं हि तं विद्धि नित्यं कर्मजितात्मकम्।
३-२१६-३५ आत्मानं तं विजानीहि नित्यं योगजितात्मकं ।।
3-216-45 धर्मे रक्षेच्च मत्सरात् इति झ. पाठः ।।
3-216-50 मैत्रं मित्रभावस्तदेवायनं मार्गस्तद्गतश्चरेत् ।।
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