महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-063
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दमयन्तीं परित्यज्याटव्यामटन्तं नलंप्रति वनवह्निवेष्टितेन कर्कोटकेनात्मपरिरक्षणप्रार्थना ।। 1 ।।
नलेन दावाग्नितो मोचितेन कर्कोटकेन नलगात्रे दंशनेन वैरूप्यापादनम् ।। 2 ।।
तथा निजरूपाविष्करणेच्छायां स्वस्मरणेन वासोवसनविधानपूर्वकं वस्त्रप्रदानम् ।। 3 ।।
बृहदश्व उवाच। | 3-63-1x |
उत्सृज्य दमयन्तीं तु नलो राजा विशांपते। ददर्श दावं दह्यन्तं महान्तं गहने वने ।। | 3-63-1a 3-63-1b |
तत्र सुश्राव शब्दंवै मध्ये भूतस्य कस्यचित्। अभिधाव नलेत्युच्चैः पुण्यश्लोकेति चासकृत् ।। | 3-63-2a 3-63-2b |
मा भैरिति नलश्चोक्त्वा मध्यमग्नेः प्रविश्य तम्। दद्रश नागराजानं शयानं कुण्डलीकृतम् ।। | 3-63-3a 3-63-3b |
स नागः प्रञ्जलिर्भूत्वा वेपमानो नलं तदा। उवाच मां विद्धिराजन्नागं कर्कोटकं नृप ।। | 3-63-4a 3-63-4b |
मया प्रलब्धो ब्रह्मर्षिरनागाः सुमहातपाः। तेन मन्युपरीतेन शप्तोस्मि मनुजाधिप ।। | 3-63-5a 3-63-5b |
तिष्ठ त्वं स्थावर इव यावदेति नलः क्वचित्। इतो नेतासि तत्स त्वं शापान्मोक्ष्यसि मत्कृतात् ।। | 3-63-6a 3-63-6b |
तस्य शापान्न शक्नोमि पदाद्विचलितुं पदम्। उपदेक्ष्यामि ते श्रेयस्त्रातुमर्हति मां भवान् ।। | 3-63-7a 3-63-7b |
सखा च ते भविष्यामि मत्समो नास्ति पन्नगः। लघुश्च ते भविष्यामि शीघ्रमादाय गच्छ माम् ।। | 3-63-8a 3-63-8b |
एवमुक्त्वा स नागेन्द्रो बभूवाङ्गुष्ठमात्रकः। दं गृहीत्वा नलः प्रायाद्देशं दावविवर्जितम् ।। | 3-63-9a 3-63-9b |
आकाशदेशमासाद्य विमुक्तं कृष्णवर्त्मना। उत्स्रष्टुकामं तं नागः पुनः कर्कोटकोऽब्रवीत् ।। | 3-63-10a 3-63-10b |
पदानि गणयन्गच्छ स्वानि नैषध कानिचित्। तत्रतेऽहं महाबाहो श्रेयो धास्यामि यत्परम् ।। | 3-63-11a 3-63-11b |
ततः संख्यातुमारब्धमदशद्दशमे पदे। तस्य दष्टस्य तद्रूपं क्षिप्रमन्तरधीयत ।। | 3-63-12a 3-63-12b |
स दृष्ट्वा विस्मितस्तस्थावात्मानं विकृतं नलः। स्वरूपधारिणं नागं ददर्श स महीपतिः ।। | 3-63-13a 3-63-13b |
ततः कर्कोटको नागः सान्त्वयन्नलमब्रवीत्। मया तेऽन्तर्हितं रूपं न त्वां विद्युर्जना इति ।। | 3-63-14a 3-63-14b |
यत्कृते चासि निकृतो दुःखेन महता नल। विषेण स मदीयेन त्वयि दुःखं निवत्स्यति ।। | 3-63-15a 3-63-15b |
विषेण संवृतैर्गात्रैर्यावत्त्वां न विमोक्ष्यति। तावत्तु त्वां महाराज क्लेशेऽस्मिन्स नियोक्ष्यति ।। | 3-63-16a 3-63-16b |
अनागा येन निकृतस्त्वमनर्हो जनाधिप। क्रोधादसूययित्वा तं रक्षा मे भवतः कृता ।। | 3-63-17a 3-63-17b |
न ते भयं नरव्याघ्र दंष्ट्रिभ्यः शत्रुतोपि वा। ब्रह्मवित्त्वं च भविता मत्प्रसादान्नराधिप ।। | 3-63-18a 3-63-18b |
राजन्विषनिमित्ता च न ते पीडा भविष्यति। संग्रामेषु न राजेन्द्रशश्वज्जयमवाप्स्यसि ।। | 3-63-19a 3-63-19b |
गच्छ राजन्नितः सूतो बाहुकोऽहमिति ब्रुवन्। समीपमृतुपर्णस्य स हि वेदाक्षनैपुणम् ।। | 3-63-20a 3-63-20b |
अयोध्यां नगरीं रम्यामद्य वै निषधेश्वर। स तेऽक्षहृदयं दाता राजाऽश्वहृदयेन वै ।। | 3-63-21a 3-63-21b |
इक्ष्वाकुकुलजः श्रीमान्मित्रं चैव भविष्यति। भविष्यसि यदाऽक्षज्ञः श्रेयसा योक्ष्यसे तदा ।। | 3-63-22a 3-63-22b |
संयोक्ष्यसे स्वदारैस्त्वं मा स्म शोके मनः कृथाः। राज्येन तनयाभ्यां च सत्यमेतद्ब्रवीमि ते ।। | 3-63-23a 3-63-23b |
स्वं रूपं च यदा द्रष्टुमिच्छेथास्त्वं नराधिप। संस्मर्तव्यस्तदा तेऽहंवासश्चदं विवासयेः ।। | 3-63-24a 3-63-24b |
अनेन वाससाच्छन्नः स्वं रूपं प्रतिपत्स्यसे। इत्युक्त्वा प्रददौ तस्मै दिव्यं वासोयुगं तदा ।। | 3-63-25a 3-63-25b |
एवं नलं च संदिश्य वासो दत्ताव च कौरव। नागराजस्ततो राजंस्तत्रैवान्तरधीयत ।। | 3-63-26a 3-63-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि त्रिषष्टितमोऽध्यायः ।। 63 ।। |
3-63-8 लघुगुरुत्वरहितः ।। 3-63-9 दावविवर्जितं बह्निहीनम् ।। 3-63-12 दशेत्युक्तेऽदशत्। आज्ञां विना नागो न दशतीति भावः 3-63-15 स कलिः। इदं दमयन्त्या दत्तस्य शापस्य फलं कलिर्भुङ्क्ते इति भावः ।। 3-63-17 अनागाः निरपराधः। निकृतो वञ्चितः। मे मया ।। 3-63-18 ब्रह्मविद्भ्यश्च भवितेति झ. पाठः ।। 3-63-21 अक्षहृदयं द्यूते जयावहम्। अश्वहृदयेन विद्यया विद्यां परिवर्तयेदित्यर्थः ।। 3-63-24 निवासयेः परिधेहि ।।
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