महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-150
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हनुमता भीमंप्रति समग्ररामकथाकथनम् ।। 1 ।।
हनूमानुवाच। | 3-150-1x |
हृतदारः सह भ्रात्रा पत्नीं मार्गन्स राघवः। दृष्टवाञ्शैलशिखरे सुग्रीवं वानरर्षभम् ।। | 3-150-1a 3-150-1b |
तेन तस्याभवत्सख्यं राघवस्य महात्मनः। स हत्वा वालिनं राज्ये सुग्रीवं प्रत्यपादयत् ।। | 3-150-2a 3-150-2b |
स राज्यं प्राप्य सुग्रीवः सीतायाः परिमार्गणे। वानरान्प्रेषयामास शतशोऽथ सहस्रशः ।। | 3-150-3a 3-150-3b |
ततो वानरकोटीभिः सहितोऽहं नरर्षभ। सीतां मार्गन्महाबाहो प्रस्थितो दक्षिणां दिशम् ।। | 3-150-4a 3-150-4b |
ततः प्रवृत्तिः सीताया गृध्रेण सुमहात्मना। संपातिना समाख्याता रावणस्य निवेशने ।। | 3-150-5a 3-150-5b |
ततोऽहं कार्यसिद्ध्यर्थं रामस्याक्लिष्टकर्मणः। शतयोजनविस्तारमर्णवं सहसा प्लुतः ।। | 3-150-6a 3-150-6b |
अहं स्ववीर्यादुत्तीर्य सागरं मकरालयम्। सुतां जनकराजस्य सीतां सुररसुतोपमाम् ।। | 3-150-7a 3-150-7b |
दृष्टवान्भरतश्रेष्ठ रावणस्य निवेशने। समेत्य तामहं देवीं वैदेहीं राघवप्रियाम् ।। | 3-150-8a 3-150-8b |
दग्ध्वा लङ्कामशेषेण सादृप्राकारतोरणाम्। प्रत्यागतश्चास्य पुनर्नाम तत्रप्रकाश्य वै ।। | 3-150-9a 3-150-9b |
मद्वाक्यं चावधार्याशु रामो राजीवलोचनः। अबद्धपूर्वमन्यैश्च बद्ध्वा सेतुं महोदधौ। वृतो वानरकोटीभिः समुत्तीर्णो महार्णवम् ।। | 3-150-10a 3-150-10b 3-150-10c |
ततो ररामेण वीर्येण हत्वा तान्सर्वराक्षसान्। रणे तु राक्षसगणं रावणं लोकरावणम् ।। | 3-150-11a 3-150-11b |
निशाचरेनद्रं हत्वा तु सभ्रातृसुतबान्धवम्। राज्येऽभिषिच्य लङ्कायां राक्षसेन्द्रं विभीषणम् ।। | 3-150-12a 3-150-12b |
धार्मिकं भक्तिमन्तं च भक्तानुगतवत्सलः। प्रत्याहृत्य ततः सीतां नष्टां वेदश्रुतिं यथा ।। | 3-150-13a 3-150-13b |
तयैव सहितः साध्व्या पत्न्या रामो महायशाः। गत्वा ततोऽतित्वरितः स्वां पुरीं रघुनन्दनः। अध्यावसत्ततोऽयोध्यामयोध्यां द्विषतां प्रभुः ।। | 3-150-14a 3-150-14b 3-150-14c |
ततः प्रतिष्ठितो राज्ये रामो नृपतिसत्तमः। वरं मया याचितोऽसौ रामो राजीवलोचनः ।। | 3-150-15a 3-150-15b |
यावद्रामकथेयं ते भवेल्लोकेषु शत्रुहन्। तावज्जीवेयमित्येवं तथाऽस्त्विति च सोब्रवीत् ।। | 3-150-16a 3-150-16b |
सीताप्रसादाच्च सदा मामिहस्थमरिंदम। उपतिष्ठन्ति दिव्या हि भोगा भीम यथेप्सिताः ।। | 3-150-17a 3-150-17b |
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च। राज्यं कारितवान्रामस्ततः स्वभवनं गतः ।। | 3-150-18a 3-150-18b |
तदिहाप्सरसस्तात गन्धर्वाश्च सदाऽनघ। तस्य वीरस्य चरितं गायन्त्यो रमयन्ति माम् ।। | 3-150-19a 3-150-19b |
अयं च मार्गो मर्त्यानामगम्यः कुरुनन्दन। ततोऽहं रुद्धवान्मार्गं तवेमं देवसेवितम् ।। | 3-150-20a 3-150-20b |
`त्वामनेन पथा यान्तं यक्षो वा राक्षसोपि वा'। धर्षयेद्वा शपेद्वाऽपि मा कश्चिदिति भारत ।। | 3-150-21a 3-150-21b |
दिव्यो देवपथो ह्येष नात्र गच्छन्ति मानुषाः। यदर्थमागतश्चासि अत एव सरश्च तत् ।। | 3-150-22a 3-150-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 150 ।। |
3-150-8 समेत्य विदित्वा संभाषणादिना निश्चित्येत्यर्थः ।। 3-150-9 अस्य रामस्य। तत्र लङ्कायाम् ।। 3-150-10 अवधार्य निश्चित्य ।। 3-150-11 लोकरावणं लोकपीडाकरम् ।। 3-150-14 अयोध्यां योद्धुमशक्याम् ।। 3-150-18 कारितवान् कृतवान्। स्वार्थे णिच्। स्वभवनं वैकुण्ठम् ।।
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