महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-238
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कर्णशकुनिभ्यां दुर्योधनं प्रति स्ववैभवप्रदर्शनेन पाण्डवानां दुःखजननाय द्वैतवनगमनचोदना ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-238-1x |
धृतराष्ट्रस्य तद्वाक्यं निशम्य शकुनिस्तदा। दुर्योधनमिदं काले कर्णेन सहितोऽब्रवीत् ।। | 3-238-1a 3-238-1b |
प्रव्राज्य पाण्डवान्वीरान्स्वेन वीर्येण भारत। भुङ्क्ष्वेमां पृथिवीमेको दिवि शम्बरहायथा ।। | 3-238-2a 3-238-2b |
`तवाद्यपृथिवी राजन्नखिला सागराम्बरा। सपर्वतवनाकारा सहस्थावरजङ्गमा' ।। | 3-238-3a 3-238-3b |
प्राच्याश्च दाक्षिणात्याश्च पतीच्योदीच्यवासिनः। कृताः करप्रदाः सर्वे राजानस्ते नाराधिप ।। | 3-238-4a 3-238-4b |
या हि सा दीप्यमानेव पाण्डवान्भजते पुरा। साऽद्यलक्ष्मीस्त्वया राजन्नवाप्ता भ्रातृभिः सह ।। | 3-238-5a 3-238-5b |
इन्द्रप्रस्थगते यां तां दीप्यमानां युधिष्ठिरे। अपश्याम श्रियं राजन्सुचिरं शोककर्शिताः ।। | 3-238-6a 3-238-6b |
सा तु बुद्धिबलेनेयं राज्ञस्तस्मात्तथाविधात्। त्वयाक्षिप्ता महाबाहो दीप्यमानेव दृश्यते ।। | 3-238-7a 3-238-7b |
तथैव तव राजेन्द्रराजानः परवीरहन्। शासनेऽधिष्ठिताः सर्वेकिं कुर्म इति वादिनः ।। | 3-238-8a 3-238-8b |
ते वयं पृथिवी राजन्निखिला सागराम्बरा। सपर्वतवना देवी सग्रामनगराकरा ।। | 3-238-9a 3-238-9b |
नानावनोद्देशवती पत्तनैरुपशोभिता। `नानाजनपदाकीर्णा स्फीतराष्ट्रा महाहला' ।। | 3-238-10a 3-238-10b |
नन्द्यमानो द्विजै राजन्भासि नक्षत्रराडिव। पौरुषाद्दिवि देवेषु भ्राजसे रश्मिवानिव ।। | 3-238-11a 3-238-11b |
रुद्रैरिव यमो राजा मरुद्भिरिव वासवः। कुरुभिस्त्वं वृतो राजन्भासि नक्षत्रराडिव ।। | 3-238-12a 3-238-12b |
यैः स्म ते नाद्रियेताज्ञा न च ये शासने स्थिताः। पश्यामस्ताञ्श्रिया हीनान्पाण्डवान्वनवासिनः ।। | 3-238-13a 3-238-13b |
श्रूयते हि महाराजसरो द्वैतवनं प्रति। वसन्तः पाण्डवाः सार्धं ब्राह्मणैर्वनवासिभिः ।। | 3-238-14a 3-238-14b |
सप्रयाहि महाराज श्रिया परमया युतः। तापयन्पाण्डुपुत्रांस्त्वं रश्मिवानिव तेजसा ।। | 3-238-15a 3-238-15b |
स्तितोराज्येऽच्युतान्राज्याच्छियाहीनाञ्छ्रियावृतः असमृद्धान्समृद्धार्थः पश्य पाण्डुसुतान्नृप ।। | 3-238-16a 3-238-16b |
महाभिजनसंपन्नं भद्रे महति संस्थितम्। पाण्डवास्त्वाऽभिवीक्षन्तु ययातिमिव नाहुषां ।। | 3-238-17a 3-238-17b |
यां श्रियं सुहृदश्चैव दुर्हृदश्च विशांपते। पश्यन्ति पौरुषैर्दीप्तां सा समर्था भवत्युत ।। | 3-238-18a 3-238-18b |
समस्थो विषमस्थान्हि दुर्हृदो योऽभिवीक्षते। जगतीस्थनिवाद्रिस्थः किमतः परमं सुखम् ।। | 3-238-19a 3-238-19b |
न पुत्रधनलाभेन न राज्येनापि विन्दति। प्रीतिं नृपतिशार्दूल याममित्राधदर्शनात् ।। | 3-238-20a 3-238-20b |
किंनु तस्य सुखं न स्यादाश्रमे यो धनंजयम्। अभिवीक्षेत सिद्धार्थो वल्कलाजिनवाससम् ।। | 3-238-21a 3-238-21b |
सुवाससो हि ते भार्या वल्कलाजिनसंवृताम्। पश्यन्तु दुःखितां कृष्णां सा च निर्विद्यतां पुनः ।। | 3-238-22a 3-238-22b |
विनिन्दतां तथाऽत्मानं जीवितं च धनच्युतम्। `दाराणां ते श्रियं दृष्ट्वा दीप्तामद्य जनाधिपा' ।। | 3-238-23a 3-238-23b |
न तथा हि सभामध्ये तस्या भवितुमर्हति। वैमनस्यं यथा दृष्ट्वा तव भार्याः स्वलंकृताः ।। | 3-238-24a 3-238-24b |
वैशंपायन उवाच। | 3-238-25x |
एवमुक्त्वा तु राजानं कर्णः शकुनिना सह। तूष्णीं बभूवतुरुभौ वाक्यान्ते जनमेजय ।। | 3-238-25a 3-238-25b |
।। इति श्रीमन्महाबारते अरण्यपर्वणि घोषयात्रापर्वणि अष्टत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 238 ।। |
3-238-4 प्रतीच्या उदीच्याश्च देशास्तद्वासिनः। ते त्वया ।। 3-238-13 नाद्रियेत नादृता ।। 3-238-17 त्वा त्वाम् ।। 3-238-18 समर्था सुहृदां हर्षं शत्रूणां च शोकं दातुमिति शेषः ।। 3-238-20 अघं दुःखम् ।। 3-238-22 निर्विद्यतां जीवितादपि विरक्ता भवतु ।।
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