महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-112
दिखावट
← आरण्यकपर्व-111 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-112 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-113 → |
विभाण्डकस्यासन्निधाने तदाश्रमं प्रविष्टया वेश्यायुवत्या विलासै र्ऋश्यशृङ्गं प्रलोभ्य पुनः स्वावासगमनम् ।। 1 ।। आगतेन विभाण्डकेन वेश्याविलासमुग्धचेतसं सुतंप्रति मोहकारणप्रश्नः ।। 2 ।।
लोमश उवाच। | 3-112-1x |
सा तु नाव्याश्रमं चक्रे राजकार्यार्थसिद्धये। संदेशाच्चैव नृपतेः स्वबुद्ध्या चैव भारत ।। | 3-112-1a 3-112-1b |
नानापुष्पफलैर्वृक्षैः कृत्रिमैरुपशोभितैः। नानागुल्मलतोपेतैः स्वादुकामफलप्रदैः ।। | 3-112-2a 3-112-2b |
अतीव रमणीयं तदतीव च मनोहरम्। चक्रे नाव्याश्रमं रम्यमद्भुतोपमदेर्शनम् ।। | 3-112-3a 3-112-3b |
ततो निवध्य सा नावमदूरे काश्यपाश्रमात्। चारयामास पुरुषैर्विहारं तस्य वै मुनेः ।। | 3-112-4a 3-112-4b |
ततो दुहितरं वेश्यां समाधायेतिकार्यताम्। दृष्ट्वाऽन्तरं काशय्पस्य प्राहिणोद्बुद्धिसंमताम् ।। | 3-112-5a 3-112-5b |
सा तत्र गत्वा कुशला तपोनित्यस्य संनिधौ। आश्रमं तं समासाद्य ददर्श तमृषेः सुतम् ।। | 3-112-6a 3-112-6b |
वेश्योवाच। | 3-112-7x |
कच्चिन्मुने कुशलं तापसानां कच्चिच्च वो मूलफलं प्रभूतम्। कच्चिद्भवान्रमते चाश्रेऽस्मिं- स्त्वां वै द्रष्टुं सांप्रतमागतास्मि ।। | 3-112-7a 3-112-7b 3-112-7c 3-112-7d |
कच्चित्तपो वर्धते तापसानां पिता च ते कच्चिदहीनतेजाः। कच्चित्त्वया प्रीयतेचैव विप्र कच्चित्स्वाध्यायः क्रियते चर्श्यशृङ्गः ।। | 3-112-8a 3-112-8b 3-112-8c 3-112-8d |
ऋश्यशृङ्ग उवाच। | 3-112-9x |
ऋद्ध्या भवाञ्ज्योतिरिव प्रकाशते मन्ये चाहं त्वामभिवादनीयम्। पाद्यं वै ते संप्रदास्यामि कामा- द्यथाधर्मं फलमूलानि चैव ।। | 3-112-9a 3-112-9b 3-112-9c 3-112-9d |
कौश्यां बृस्यामास्स्व यथोपजोषं कृष्णाजिनेनावृतायां सुखाय। क्व चाश्रमस्तव किं नाम चेदं व्रतंब्रह्मंश्चरसि हि देववत्त्वम् ।। | 3-112-10a 3-112-10b 3-112-10c 3-112-10d |
वेश्योवाच। | 3-112-11x |
ममाश्रमः काश्यपपुत्र रम्य- स्त्रियोजनं शैलमिमं परेण। तत्रस्वधर्मोऽनभिवादनं नो न चोदकं पाद्यमुपस्पृशामः ।। | 3-112-11a 3-112-11b 3-112-11c 3-112-11d |
भवता नाभिवाद्योऽहमभिवाद्यो भवान्मया। व्रतमेतादृशं ब्रह्मन्परिष्वज्यो भवान्मया ।। | 3-112-12a 3-112-12b |
ऋश्यशृङ्ग उवाच। | 3-112-13x |
फलानि पक्वानि ददानि तेऽहं भल्लातकान्यामलकानि चैव। करूषकानीङ्गुदधन्वनानि प्रियालानां काङ्क्षितं वै कुरुष्व ।। | 3-112-13a 3-112-13b 3-112-13c 3-112-13d |
लोमश उवाच। | 3-112-14x |
सा तानि सर्वाणि विसर्जयित्वा भक्ष्याण्यनर्हाणि ददौ ततोऽस्मै। तान्यृश्यशृङ्गाय महारसानि भृशं सुरूपाणि च मोदकानि ।। | 3-112-14a 3-112-14b 3-112-14c 3-112-14d |
ददौ च माल्यानि सुगन्धवन्ति चित्राणि वासांसि च भानुमन्ति। पेयानि चाग्र्याणि ततो मुमोद चिक्रीड चैव प्रजहास चैव ।। | 3-112-15a 3-112-15b 3-112-15c 3-112-15d |
सा कन्दुकेनारमतास्य मूले विभज्यमाना फलिता लतेव। गात्रैश्च गात्राणि निषेवमाणा समाश्लिषच्चासकृदृश्यशृङ्गम् ।। | 3-112-16a 3-112-16b 3-112-16c 3-112-16d |
सर्जानशोकांस्तिलकांश्च वृक्षा- न्सुपुष्पितानवनाम्यावभज्य। विलज्जमानेव मदाभिभूता प्रोभयामास सुतं महर्षेः ।। | 3-112-17a 3-112-17b 3-112-17c 3-112-17d |
अथर्श्यशृङ्गं विकृतंसमीक्ष्य पुनः पुनः पीञ्य च कायमस्य। अवेक्ष्यमाणा शनकैर्जगाम कृत्वाऽग्निहोत्रस्य तदाऽपदेशम् ।। | 3-112-18a 3-112-18b 3-112-18c 3-112-18d |
तस्यां गतायां मदनेन मत्तो विचेतनश्चाभवदृश्यशृङ्गः। तामेव भावेन गतेन शून्ये विनिःश्वसन्नार्तरूपो बभूव ।। | 3-112-19a 3-112-19b 3-112-19c 3-112-19d |
ततो मुहूर्ताद्धरिपिङ्गलाक्षः प्रवेष्टितो रोमभिरानखाग्रात्। स्वाध्यायवान्वृत्तसमाधियुक्तो विभाण्डकः काश्यपः प्रादुरासीत् ।। | 3-112-20a 3-112-20b 3-112-20c 3-112-20d |
सोऽपश्यदासीनमुपेत्य पुत्रं ध्यायन्तमेकं विपरीतचित्तम्। विनिःश्वसन्तं मुहुरूर्ध्वदृष्टिं विभाण्कः पुत्रमुवाच दीनम् ।। | 3-112-21a 3-112-21b 3-112-21c 3-112-21d |
न कल्पिताः समिधः किंनु तात कच्चिद्धुतं चाग्निहोऽत्रं त्वयाऽद्य। `न संसृष्टं क्रियते द्वारभागे सुवृक्षाणा खण्डने कः प्रवृत्तः' ।। | 3-112-22a 3-112-22b 3-112-22c 3-112-22d |
सुनिर्णिक्तं स्रुक्स्रुवं होमधेनुः कच्चित्सवत्साद्यकृता त्वया च। `कोप्यागतः शुश्रूषणायेह पुत्र कुतश्चित्रं माल्यमिदं प्रवृद्धम्' ।। | 3-112-23a 3-112-23b 3-112-23c 3-112-23d |
न वै यथापूर्वमिवासि पुत्र चिन्तापरश्चासि विचेतनश्च। दीनोतिमात्रं किमिवाद्य खिन्नः पृच्छामि त्वां क इहाद्यागतोऽभूत् ।। | 3-112-24a 3-112-24b 3-112-24c 3-112-24d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः ।। 112 ।। |
3-112-1 सा तु नार्याश्रमं चक्रे इति क. ध.पाठः। नाव्याश्रमं नावा तार्यमाश्रमम् ।। 3-112-4 मुनेर्विभाण्डकस्य विहारं बहिर्गमनं चारयामास चारैरधिगतवती ।। 3-112-5 समाधाय बोधयित्वा। इतिकार्यातां इतिकर्तव्यताम्। अन्तरं असान्निध्यम् ।। 3-112-10 कौश्यां बृस्यामास्व कुशासने उपविश। यथोपजोषं यथासुखम् ।। 3-112-14 अनर्हाणि अमूल्यानि ।। 3-112-16 मूले समीपे। विभज्यमाना अङ्गमोटनादीनि कुर्वाणा ।। 3-112-18 कायं देहं पीड्य आलिङ्ग्येत्यर्थः। अपदेशं छलम् ।। 3-112-19 भावेनाभिप्राये ।। 3-112-20 प्रवेष्टितो व्याप्तः ।। 3-112-23 निर्णिक्तं प्रक्षालितम्। सवत्सा कृता। दोहनायेति शेषः ।।
आरण्यकपर्व-111 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-113 |