महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-209
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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तरुतले तपस्यता कौशिकेनात्मोपरि पुरीषोत्सृष्ट्या बलाकायाः सक्रोधनिरीक्षणेन दहनम् ।। 1 ।। तथा भिक्षार्थं पतिव्रतायाः कस्याश्चिद्गृहं प्रविष्टं भिक्षादाने चिरीकरणेन रुष्टं च कौशिकंप्रति तया स्वत्य बलाकावृत्तान्तावगतिसूचनेन स्वशक्तिप्रकाशनपूर्वकं धर्मावगतये धर्मव्याधसमीपगमनचोदना ।। 2 ।।
मार्कण्डेय उवाच। | 3-209-1x |
कश्चिद्द्विजातिप्रवरो वेदाध्यायी तपोधनः। तपस्वी धर्मशीलश्च कौशिको नाम भारत ।। | 3-209-1a 3-209-1b |
साङ्गोपनिषदान्वेदानधीते द्विजसत्तमः। सवृक्षमूले कस्मिंश्चिद्वेदानुच्चारयन्स्थितः ।। | 3-209-2a 3-209-2b |
उपरिष्टाच्च वृक्षस्य बलाका संन्यलीयत। तया पुरीषमुत्सृष्टं ब्राह्मणस्य तदोपरि ।। | 3-209-3a 3-209-3b |
समवेक्ष्यततः क्रुद्धः सममध्यायत द्विजः। `तां बलकां महाराज निलीनां नगमूर्धनि ।। | 3-209-4a 3-209-4b |
भृशं क्रोधाभिभूतेन बलाका सा निरीक्षिता। अपध्याता च विप्रेण न्यपतद्धरणीतले ।। | 3-209-5a 3-209-5b |
बलाकां पतितां दृष्ट्वा गतसत्वामचेतनाम्। कारुण्यादभिसंतप्तः पर्यशोचत तां द्विजः। अकार्यं कृतवानस्मि द्वेषरागबलात्कृतः ।। | 3-209-6a 3-209-6b 3-209-6c |
इत्युक्ताव बहुशो विद्वान्ग्रामं भैक्षाय संश्रितः। ग्रामे शुचीनि प्रचरन्कुलानि भरतर्षभ ।। | 3-209-7a 3-209-7b |
देहीति याचमानोऽसौ तिष्ठेत्युक्तः स्त्रिया ततः। शौचं तु यावत्कुरुते भाजनस्य कुटुम्बिवी ।। | 3-209-8a 3-209-8b |
एतस्मिन्नन्तरे राजन्क्षुधासंपीडितो भृशम्। भर्ता प्रविष्टः सहसा तस्या भरतसत्तम ।। | 3-209-9a 3-209-9b |
सा तु दृष्ट्वा पतिं साध्वी ब्राह्मणं व्यपहाय तम्। पाद्यमाचमनीयं वै ददौ भर्तुस्तथाऽऽसनम् ।। | 3-209-10a 3-209-10b |
प्रह्वा पर्यचरच्चापि भर्तारमसितेक्षणा। आहारेणाथ भक्ष्यैश्च वाक्यैः सुमधुरैस्तथा ।। | 3-209-11a 3-209-11b |
उच्छिष्टं भाविता भर्तुर्भुङ्क्ते नित्यं युधिष्ठिर। दैवतं च पतिं मेने भर्तुश्चित्तानुसारिणी ।। | 3-209-12a 3-209-12b |
कर्मणा मनसा वाचा नात्यश्नान्नापि चापिवत्। तं सर्वभावोपगता पतिशुश्रूषणे रता ।। | 3-209-13a 3-209-13b |
साध्वाचारा शुचिर्दक्षा कुटुम्बस्य हितैषिणी। भर्तुश्चापि हितं यत्तत्सततं साऽनुवर्तते ।। | 3-209-14a 3-209-14b |
देवतातिथिभृत्यानां श्वश्रूश्वशुरयोस्तथा। शुश्रूषणपरा नित्यं सततं संयतेन्द्रिया ।। | 3-209-15a 3-209-15b |
सा ब्राह्मणं तदा दृष्ट्वा संस्थितं भैक्षकाङ्क्षिणम्। कुर्वती पतिशुश्रूषां सस्माराथ शुभेक्षणा ।। | 3-209-16a 3-209-16b |
व्रीडिता साऽभवत्साध्वी तदा भरतसत्तम। भिक्षामादाय विप्राय निर्जगाम यशस्विनी ।। | 3-209-17a 3-209-17b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-209-18x |
किमिदं भवति त्वं मां तिष्ठेत्युक्त्वा वराङ्गने। उपरोधं कृतवती न विसर्जितवत्यसि ।। | 3-209-18a 3-209-18b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-209-19x |
ब्राह्मणं क्रोधसंतप्तं ज्वलन्तमिव तेजसा। दृष्ट्वा साध्वी मनुष्येन्द्रसान्त्वपूर्वं वचोऽब्रवीत् ।। | 3-209-19a 3-209-19b |
`क्षमस्वविप्रप्रवर क्षमस्व स्त्रीजडात्मताम्। प्रसीद भगवन्मह्यं कृपां कुरु मयि द्विज' ।। | 3-209-20a 3-209-20b |
क्षन्तुमर्हसि मे विद्वन्भर्ता मे दैवतं महत्। स चापि क्षुधितः श्रान्तः प्राप्तः शुश्रूषितोमया ।। | 3-209-21a 3-209-21b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-209-22x |
ब्राह्मणआ न गरीयांसो गरीयांस्ते पतिः कृतः। गृहस्थधर्मे वर्तन्ती ब्राह्मणानवमन्यसे ।। | 3-209-22a 3-209-22b |
इन्द्रोऽप्येषां प्रणमते किं पुनर्मानवो भुवि। अवलिप्ते न जानीषे वृद्धानां न श्रुतं त्वया ।। | 3-209-23a 3-209-23b |
ब्राह्मणा ह्यग्निसदृशा दहेयुः पृथिवीमपि। `सपर्वतवनद्वीपां क्षिप्रमेवावमानिताः' ।। | 3-209-24a 3-209-24b |
स्त्र्युवाच। | 3-209-25x |
[नाहं बलाका विप्रर्षे त्यज क्रोधं तपोधन। अनया क्रुद्धया दृष्ट्या क्रुद्धः किं मां करिष्यसि] | 3-209-25a 3-209-25b |
नावजानाम्यहं विप्रान्देवैस्तुल्यान्मनस्विनः। अपराधमिमं विप्र क्षन्तुमर्हसि मेऽनघ ।। | 3-209-26a 3-209-26b |
जानामि तेजो विप्राणआं महाभाग्यं च धीमताम्। अपेयः सागरः क्रोधात्कृतो हि लवणोदकः ।। | 3-209-27a 3-209-27b |
तथैव दीप्ततपसां मुनीनां भावितात्मनाम्। येषां क्रोधाग्निरद्यापि समुद्रे नोपशाम्यति। `कस्तान्परिभवेन्मूढो ब्राह्मणानमितौजसः' ।। | 3-209-28a 3-209-28b 3-209-28c |
ब्राह्मणानां परिभवाद्वातापिः सुदुरात्मवान्। अगस्त्यमृषिमासाद्य जीर्णः क्रूरो महासुरः ।। | 3-209-29a 3-209-29b |
बहुप्रभावाः श्रूयन्ते ब्राह्मणानां महात्मनाम्। क्रोधः सुविपुलो ब्रह्मन्प्रसादश्च महात्मनाम्। अस्मिंस्त्वतिक्रमे ब्रह्मन्क्षन्तुमर्हसि मेऽनघ ।। | 3-209-30a 3-209-30b 3-209-30c |
पतिशुश्रूषया धर्मो य स मे रोचते द्विज। दैवतेष्वपि सर्वेषु भर्ता मे दैवतं परम् ।। | 3-209-31a 3-209-31b |
अविशेषेण तस्याहं कुर्यां धर्मं द्विजोत्तम। शुश्रूषायाः फलं पश्य पत्युर्ब्राह्मण यादृशम् ।। | 3-209-32a 3-209-32b |
बलाका हि त्वया दग्धा रोषात्तद्विदितं मया। क्रोधः शत्रुः शरीरस्थो मनुष्याणां द्विजोत्तम ।। | 3-209-33a 3-209-33b |
`मास्म क्रुध्यो बलाकेव न वध्याऽस्मि पतिव्रता'। यः क्रोधमोहौ त्यजति तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। | 3-209-34a 3-209-34b |
यो वदेदिह सत्यानि गुरुं संतोषयेत च। हिंसितश्च त हिंसेत तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। | 3-209-35a 3-209-35b |
जितेन्द्रियो धर्मपरः स्वाध्यायनिरतः शुचिः। कामक्रोधौ वशौ यस्य तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। | 3-209-36a 3-209-36b |
यस्य चात्मसमो लोको धर्मज्ञस्य मनस्विनः। सर्वधर्मेषु चरतस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। | 3-209-37a 3-209-37b |
योऽध्यापयेदधीयीत यजेद्वा याजयीत वा। दद्याद्वाऽपि यथाशक्ति तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। | 3-209-38a 3-209-38b |
ब्राह्मचारी वदान्यो योप्यधीयाद्द्विजपुङ्गवः। स्वाध्यायवानमत्तो वै तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। | 3-209-39a 3-209-39b |
यद्ब्राह्मणानां कुशलं तदेषां परिकीर्तयेत्। सत्यं तथा व्याहरतां नानृते रमते मनः ।। | 3-209-40a 3-209-40b |
धनं तु ब्राह्मणस्याहुः स्वाध्यायं दममार्जवम्। इन्द्रियाणां निग्रहं च शाश्वतं द्विजसत्तम ।। | 3-209-41a 3-209-41b |
सत्यार्जवे धर्ममाहुः परं धर्मविदो जनाः। दुर्ज्ञेयः शाश्वतो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः ।। | 3-209-42a 3-209-42b |
श्रुतिप्रमाणो धर्मः स्यादिति वृद्धानुशासनम्। बहुधा दृश्यते धर्मः सूक्ष्म एव द्विजोत्तम ।। | 3-209-43a 3-209-43b |
भगवानपि धर्मज्ञः स्वाद्यायनिरतः शुचिः। न तु तत्त्वेन भगवन्दर्मं वेत्सीति मे मतिः ।। | 3-209-44a 3-209-44b |
यदि विप्र न जानीषे धर्मं परमकं द्विज। धर्मव्याधं तत पृच्छ गत्वा तु मिथिलां पुरीम् ।। | 3-209-45a 3-209-45b |
मातापितृभ्यां शुश्रूपुः सत्यवादी जितेन्द्रियः। मिथिलायां वसेद्व्याधः स ते धर्मान्प्रवक्ष्यति ।। | 3-209-46a 3-209-46b |
तत्र गच्छस्व भद्रं ते यथाकामं द्विजोत्तम। `व्याधः परमधर्मात्मा स ते छेत्स्यति संशयम्' ।। | 3-209-47a 3-209-47b |
अत्युक्तमपि मे सर्वं क्षन्तुमर्हस्यनिन्दित। स्त्रियो ह्यवध्याः सर्वेषां ये धर्ममभिविन्दते ।। | 3-209-48a 3-209-48b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-209-49x |
प्रीतोस्मि तव भद्रं ते गतः क्रोधश्च शोभने। उपालम्भस्त्वया प्रोक्तो मम निश्रेयसं परम् ।। | 3-209-49a 3-209-49b |
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि साधयिष्यामि शोभने। `धन्या त्वमसि कल्याणि यस्याः स्याद्वृत्तमीदृशम्। | 3-209-50a 3-209-50b |
मारक्ण्डेय उवाच। | 3-209-51x |
तया विसृष्टो निर्गत्य स्वमेव भवनं ययौ। विनिन्दन्स स्वमात्मानं कौशिको द्विजसत्तमः ।। वस्त्रिणो वस्त्रदा यान्ति अवस्त्रा यान्त्यवस्त्रदाः ।। | 3-209-51a 3-209-51b 3-203-51b |
3-209-28 दण्डकेनोपशाम्यति इति झ. पाठः ।। 3-209-48 अभिविन्दते जानन्तीत्यर्थः ।। 3-209-50 साधयिष्यामि स्वकार्यमिति शेषः ।।
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