महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-196
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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मार्कण्डेयेन सुखदुःखनिरूपकबकशक्रसंवादानुवाः ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-196-1x |
मार्कण्डेयमृषयो ब्राह्मणा युधिष्ठिरश्च। पर्यपृच्छन्नृषिः केन दीर्घायुरासीद्बकः ।। | 3-196-1a 3-196-1b |
मार्कण्डेयस्तु तान्सर्वान्प्रत्युवाच महातपाः। दीर्घायुश्च बकोराजन्नृषिर्नात्र विचारणा ।। | 3-196-2a 3-196-2b |
एतच्छ्रुत्वा तु कौन्तेयो भ्रातृभिः सह भारत। मार्कण्डेयं पर्यपृच्छद्धर्मराजो युधिष्ठिरः ।। | 3-196-3a 3-196-3b |
बकदाल्भ्यौ महात्मानौ श्रूयेते चिरजीविनौ। सखायौ देवराजस् यतावृषी लोकसंमतौ ।। | 3-196-4a 3-196-4b |
एतदिच्छामि भगवन्बकशक्रसमागमम्। सुखदुःखसमायुक्तं तत्त्वेन कथितं त्वया ।। | 3-196-5a 3-196-5b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-196-6x |
वृत्ते देवासुरे राजन्संग्रामे रोमहर्षणे। त्रयाणामपि लोकानामिन्द्रो लोकाधिपोऽभवत् ।। | 3-196-6a 3-196-6b |
सम्यग्वर्षति पर्जन्ये सस्यसंपद उत्तमाः। निरामयाः सुधर्मिष्ठाः प्रजा धर्मपरायणाः। मुदितश्च जनः सर्वः स्वधर्मेषु व्यवस्थितः ।। | 3-196-7a 3-196-7b 3-195-7c |
ताः प्रजा मुदिताः सर्वा दृष्ट्रा बलनिषूदनः। ततस्तु मुदितोराजन्देवराजः शतक्रतुः ।। | 3-196-8a 3-196-8b |
ऐरावतं समास्थाय अपश्यन्मुदिताः प्रजाः। आश्रमांश्च विचित्रांश् नदीश्च विविधाः शुभाः ।। | 3-196-9a 3-196-9b |
नगराणि समृद्धानि घेटाञ्जनपदांस्तथा। प्रजापालनदक्षांश्च नरेन्द्रान्धर्मचारिणः ।। | 3-196-10a 3-196-10b |
उदपानं प्रपा वापी तटाकानि सरांसि च। नानाब्रह्रह्मसमाचारैः सेवितानि द्विजोततमैः ।। | 3-196-11a 3-196-11b |
ततोऽवतीर्य रम्यायां पृथ्व्यां राजञ्छतक्रतुः। तत्र रम्ये शिवे देशे बहुवृक्षसमाकुले ।। | 3-196-12a 3-196-12b |
पूर्वस्यां दिशि रम्यायां समुद्राभ्याशतो नृप। तत्राश्रमपदं रम्यं मृगद्विजनिषेवितम्। तत्राश्रमपदे रम्ये बकं पश्यति देवराट् ।। | 3-196-13a 3-196-13b 3-196-13c |
बकस्तु दृष्ट्वा देवेन्द्रं दृढं प्रीतमनाऽभवत्। पाद्यासनार्थदानेन फलमूलैरथार्चयत् ।। | 3-196-14a 3-196-14b |
सुखोपविष्टो वरदस्ततस्तु बलसूदनः। ततः प्रश्नं बकं देवं उवाच त्रिदशेश्वरः ।। | 3-196-15a 3-196-15b |
शतं वर्षसहस्राणि मुने जातस्य तेऽनघ। समाख्याहि मम ब्रह्मन्किं दुःखं चिरजीविनाम् ।। | 3-196-16a 3-196-16b |
बक उवाच। | 3-196-17x |
अप्रियैः सह संवासः प्रियैश्चापि विनाभवः। असद्भिः संप्रयोगश्च तद्दुःखं चिरजीविनाम् ।। | 3-196-17a 3-196-17b |
पुत्रदारविनाशोऽत्र ज्ञातीनां सुहृदामपि। परेष्वायत्तता कृच्छ्रं किंनु दुःखतरं ततः ।। | 3-196-18a 3-196-18b |
नान्यद्दुःखतरं किंचिल्लोकेषु प्रतिभाति मे। अर्थैर्विहीनः पुरुषः एरैः संपरिभूयते ।। | 3-196-19a 3-196-19b |
अकुलानां कुले भावं कुलीनानां कुलक्षयम्। संयोगं विप्रयोगं च पश्यन्ति चिरजीविनः ।। | 3-196-20a 3-196-20b |
अपिप्रत्यक्षमेवैतत्तव देघ शतक्रतो। अकुलानां समृद्धानां कथं कुलविपर्ययः ।। | 3-196-21a 3-196-21b |
देवदानवगन्धर्वमनुष्योरगराक्षसाः। प्राप्नुवन्ति विपर्यासं किंनु दुःखतरं ततः ।। | 3-196-22a 3-196-22b |
कुले जाताश् क्लिश्यन्ते दौष्कुलेयवशानुगाः। आढ्यैर्दरिद्राऽवमताः किंनु दुःखतरं ततः ।। | 3-196-23a 3-196-23b |
लोके वैधर्म्यमेतत्तु दृश्ते बहुविस्तरम्। हीनज्ञानाश्च हृष्यन्ते क्लिश्यन्ते प्राज्ञकोविदाः। बहुदुःखपरिक्लेशं मानुष्यमिह दृश्यते ।। | 3-196-24a 3-196-24b 3-196-24c |
इन्द्र उवाच। | 3-196-25x |
पुनरेव महाभाग देवर्षिगणसेवित। समाख्याहि मम ब्रह्मन्किं सुखं चिरजीविनाम् ।। | 3-196-25a 3-196-25b |
बक उवाच। | 3-196-26x |
अष्टमे द्वादशे वाऽपि शाकं यः पचते गृहे। कुमित्राण्यनपाश्रित् किं वै सुखतरं ततः ।। | 3-196-26a 3-196-26b |
यत्राहानि न गण्यन्ते नैनमाहुर्महाशनम्। अपि शाकं पचानस्य सुखं वै मघवन्गृहे ।। | 3-196-27a 3-196-27b |
आर्जितं स्वेन वीर्येण नाप्यपाश्रित्य कंचन। फलशाकमपि श्रेयो भोक्तुं ह्यकृपणं गृहे ।। | 3-196-28a 3-196-28b |
परस्य तु गृहे भोक्तुः परिभूतस् नित्यशः। सुमृष्टमपि न श्रेयो विकल्पोऽयमतः सताम् ।। | 3-196-29a 3-196-29b |
श्ववद्धि लोलुपो यस्तु परान्नं भोक्तुमिच्छति। धिगस्तु तस्य तद्भुक्तं कृपणस् दुरात्मनः ।। | 3-196-30a 3-196-30b |
यो दत्त्वाऽतिथिभृत्येभ्यः पितृभ्यश्च द्विजोत्तमः। शिष्टान्यन्नानि यो भुङ्क्ते किं वै सुखतरं ततः ।। | 3-196-31a 3-196-31b |
अतो मृष्टतरं नान्यत्पूतं किंचितच्छतक्रतो। दत्त्वा यस्त्वतिथिभ्योऽन्नं भुङ्क्ते तेनैव नित्यशः ।। | 3-196-32a 3-196-32b |
तावतां गोसहस्राणां फलं प्राप्नोति दायकः। यदेनो यौवनकृतंतत्सर्वं नश्यते ध्रुवम् ।। | 3-196-33a 3-196-33b |
रसदक्षिणस् भुक्तस् द्विजस्य तु करे गतम्। यद्वारि वारिणा सिञ्चेत्तद्ध्येनस्तरते क्षणात् ।। | 3-196-34a 3-196-34b |
एताश्चान्याश्च वै बह्वीः कथयित्वा कथाः शुभाः। बकेन सह देवेन्द्र आपृच्छ्य त्रिदिवं गतः ।। | 3-196-35a 3-196-35b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि षणअणवत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 196 ।। |
3-196-1 ऋषिर्बकः किल भवतो दीर्घायुरासीच्चेति ध. पाठः ।। 3-196-12 यह्नोत्सववतीं रम्यां पृध्वीं राजञ्शतक्रतुरिति ध. पाठः ।। 3-196-21 आकुलानां समृद्धानां कथं कालविपर्ययः इति ध. पाठः ।। 3-196-34 द्विजस्य तु करे हुतमिति ध. पाठः ।।
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