महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-117
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रामेण रेणुकायां मानसिकव्यभिचारदर्शिनः पितुर्जमदग्नेर्नियोगात्कुठारेण तस्याः कण्ठच्छेदनम् ।। 1 ।। जमदग्निना पुत्रप्रार्थनया रेणुकायाः पुनरुज्जीवनम् ।। 2 ।। रामासंनिधाने जमदग्न्याश्रममुपागतेन कार्तवीर्यार्जुनेन तदीयहोमधेनुवत्साहरणपूर्वकं तदाश्रमपीडनम् ।। 3 ।। तत आगतेन रामेण कार्तवीर्ये युधि निहते तदीयै रामासंनिधाने जमदग्नेर्वधः ।। 4 ।।
अकृतव्रण उवाच। | 3-117-1x |
स वेदाध्ययने युक्तो जमदग्निर्महातपाः। तपस्तेपे ततो देवान्नियमाद्वशमानयत् ।। | 3-117-1a 3-117-1b |
स प्रसेनजितं राजन्नधिगम्य नराधिपम्। रेणुकां वरयामास स च तस्मै ददौ नृपः ।। | 3-117-2a 3-117-2b |
रेणुकां त्वथ संप्राप्य भार्यां भार्गवनन्दनः। आश्रमस्थस्तया सार्धं तपस्तेपेऽनुकूलया ।। | 3-117-3a 3-117-3b |
तस्याः कुमाराश्चत्वारो जज्ञिरे रामपञ्चमाः। सर्वेषामजघन्यस्तु राम आसीञ्जघन्यजः ।। | 3-117-4a 3-117-4b |
फलाहारेषु सर्वेषु गतेष्वथ सुतेषु वै। रेणुका स्नातुमगमत्कदाचिन्नियतव्रता ।। | 3-117-5a 3-117-5b |
सा तु चित्ररथं नाम मार्तिकावतकं नृपम्। ददर्श रेणुका राजन्नागच्छन्ती यदृच्छया ।। | 3-117-6a 3-117-6b |
क्रीडन्तं सलिले दृष्ट्वा सभार्यं पद्ममालिनम्। ऋद्धिमन्तं ततस्तस्य स्पृहयामास रेणुका ।। | 3-117-7a 3-117-7b |
व्यभिचाराच्च तस्मात्सा क्लिन्नाम्भसि विचेतना। `अन्तरिक्षान्निपतिता नर्मदायां महाह्रदे ।। | 3-117-8a 3-117-8b |
उतीर्य चापि सा यत्नाज्जगाम भरतर्षभ'। प्रविवेशाश्रमं त्रस्ता तां वै भर्तान्वबुध्यत ।। | 3-117-9a 3-117-9b |
स तां दृष्ट्वाच्युतांधैर्याद्ब्राह्म्या लक्ष्म्या विवर्जिताम्। श्रिक्शब्देन महातेजा गर्हयामास वीर्यवान् ।। | 3-117-10a 3-117-10b |
ततो ज्येष्ठो जामदग्न्यो रुमण्वान्नाम नामतः। आजगाम सुषेणश्च वसुर्विश्वावसुस्तथा ।। | 3-117-11a 3-117-11b |
तानानुपूर्व्याद्भगवान्वधे मातुरचोदयत्। न च ते जातसंमोहाः किंचिदूचुर्विचेतसः ।। | 3-117-12a 3-117-12b |
ततः शशाप तान्क्रोधात्ते शप्ताश्चैतनां जहुः। मृगपक्षिसधर्माणः क्षिप्रमासञ्जडोपमाः ।। | 3-117-13a 3-117-13b |
ततो रामोऽभ्ययात्पश्चादाश्रमं परवीरहा। तमुवाच महामन्युर्जमदग्निर्महातपाः ।। | 3-117-14a 3-117-14b |
जहीमां मातरं पापां मा च पुत्र व्यथां कृथाः। तत आदाय परशुं रामो मातु शिरोऽहरत् ।। | 3-117-15a 3-117-15b |
ततस्तस्य महाराज जमदग्नेर्महात्मनः। कोपोऽभ्यगच्छत्सहसा प्रसन्नश्चाब्रवीदिदम् ।। | 3-117-16a 3-117-16b |
ममेदं वचनात्तात कृतं ते कर्म दुष्करम्। वृणीष्व कामान्धर्मज्ञ यावतो वाञ्छसे हृदा ।। | 3-117-17a 3-117-17b |
स वव्रे मातुरुत्थानमस्मृतिं च वधस्य वै। पापेन तेन चास्पर्शं भ्रातॄणां प्रकृतिं तथा ।। | 3-117-18a 3-117-18b |
अप्रतिद्वन्द्वतां युद्धे दीर्घमायुश्च भारत। ददौ च सर्वान्कामांस्ताञ्जमदग्निर्महातपाः ।। | 3-117-19a 3-117-19b |
कदाचित्तु तथैवास्य विनिष्क्रान्ताः सुताः प्रभो। अथानूपपतिर्वीरः कार्तवीर्योऽभ्यवर्तत ।। | 3-117-20a 3-117-20b |
तमाश्रमपदं प्राप्तमृषिरर्ध्यात्समार्चयत्। स युद्धमदसंमत्तो नाभ्यनन्दत्तथाऽर्चनम् ।। | 3-117-21a 3-117-21b |
प्रमथ्य चाश्रमात्तस्माद्धोमधेनोस्ततोबलात्। जहार वत्सं क्रोशन्त्या बभञ्ज च महाद्रुमान् ।। | 3-117-22a 3-117-22b |
आगताय च रामाय तदाचष्ट पिता स्वयम्। गां च रोरुदतीं दृष्ट्वा कोपो रामं समाविशत्। स मन्युवशमापन्नः कार्तवीर्यमुपाद्रवत् ।। | 3-117-23a 3-117-23b 3-117-23c |
तस्याथ युधि विक्रम्य भार्गवः परवीरहा। चिच्छेद निशितैर्भल्लैर्बाहून्परिघसंनिभान् ।। | 3-117-24a 3-117-24b |
सहस्रसंमितान्राजन्प्रगृह्य रुचिरं धनुः। अभिभूतः स रामेण संयुक्तः कालधर्मणा ।। | 3-117-25a 3-117-25b |
अर्जुनस्याथ दायादा रामेण कृतमन्यवः। आश्रमस्थं विना रामं जमदग्निमुपाद्रवन् ।। | 3-117-26a 3-117-26b |
ते तं जघ्नुर्महावीर्यमयुध्यन्तं तपस्विनम्। असकृद्रामरामेति विक्रोशन्तमनाथवत् ।। | 3-117-27a 3-117-27b |
कार्तवीर्यस्य पुत्रास्तु जमदग्निं युधिष्ठिर। घातयित्वा शरैर्जग्मुर्यथागतमरिंदमाः ।। | 3-117-28a 3-117-28b |
अपक्रान्तेषु वै तेषु जमदग्नौ तथा गते। समित्पाणिरुपागच्छदाश्रमं भृगुनन्दनः ।। | 3-117-29a 3-117-29b |
स दृष्ट्वा पितरं वीरस्तदा मृत्युवशं गतम्। अनर्हं तं तथाभूतं विललाप सुदुःखितः ।। | 3-117-30a 3-117-30b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः ।। 117 ।। |
3-117-7 ततस्तस्य स्पृहयामास तमैच्छत्। सभार्यं हेममालिनमिति क. ध. पाठः ।। 3-117-25 कालधर्मणा मृत्युना ।।
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