महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-176
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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अर्जुनेन युधिष्ठिरंप्रति इन्द्रेण स्वस्मै सानुग्रहं कवचकिरीटादिदानकथनम् ।। 1 ।।
तथा युधिष्ठिरेण दिव्यास्त्रप्रदर्शनचोदनायां श्वःप्रदर्शनप्रतिज्ञानम् ।। 2 ।।
अर्जुन उवाच। | 3-176-1x |
ततो मामिविश्वस्तं संरूढशरविक्षतम्। देवराजोऽनुगृह्येदं काले वचनमब्रवीत् ।। | 3-176-1a 3-176-1b |
दिव्यान्यस्त्राणि सर्वाणि त्वयि तिष्ठन्ति भारत। न त्वाऽभिभवितुं शक्तो मानुषो भुवि कश्चन ।। | 3-176-2a 3-176-2b |
भीष्मो द्रोणः कृपः कर्णः शकुनिः सह राजभिः। संग्रामस्थस्य ते पुत्र कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।। | 3-176-3a 3-176-3b |
इदं च मे तनुत्राणं प्रायच्छन्मघवान्प्रभुः। अभेद्यं कवचं दिव्यं स्रजं चैव हिरण्मयीम् ।। | 3-176-4a 3-176-4b |
देवदत्तं च मे शङ्खं देवः प्रादान्महारवम्। दिव्यं चेदं किरीटं मे स्वयमिन्द्रो युयोज ह ।। | 3-176-5a 3-176-5b |
ततो दिव्यानि वस्त्राणि दिव्यान्याभरणानि च। प्रादाच्छक्रो ममैतानि रुचिराणि बृहन्ति च ।। | 3-176-6a 3-176-6b |
एवं संपूजितस्तत्रसुखमस्म्युषितो नृप। इन्द्रस् भवने पुण्ये गन्धर्वशिशुभिः सह ।। | 3-176-7a 3-176-7b |
ततो मामब्रवीच्छक्रः प्रीतिमानमरैः सह। समयोऽर्जुन गन्तुं ते भ्रातरो हि स्मरन्ति ते ।। | 3-176-8a 3-176-8b |
एवमिन्द्रस्य भवने पञ्चवर्षाणि भारत। उषितानि मया राजन्स्मरता द्यूतजं कलिम् ।। | 3-176-9a 3-176-9b |
ततो भवन्तमद्राक्षं भ्रातृभिः परिवारितम्। गन्धमादनमासाद्य पर्वतस्यास्य मूर्धनि ।। | 3-176-10a 3-176-10b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-176-11x |
दिष्ट्या धनंजयास्त्राणि त्वया प्राप्तानि भारत। दिष्ट्या चाराधितो राजा देवानामीश्वरः प्रभुः ।। | 3-176-11a 3-176-11b |
दिष्ट्या च भगवन्स्थाणुर्देव्या सह परंतपः। साक्षाद्दृष्टः स्वयुद्धेन तोषितश् त्वयाऽनघ ।। | 3-176-12a 3-176-12b |
दिष्ट्या च लोकपालैस्त्वं समेतो भरतर्षभ। दिष्ट्या वर्धामहे पार्थ दिष्ट्याऽसि पुनरागतः ।। | 3-176-13a 3-176-13b |
अद्य कृत्स्नामिमां देवीं विजितां पुरमालिनीम्। `पश्यामि भूमिं कौन्तेय त्वया मे प्रतिपादिताम्'। मन्ये च धृतराष्ट्रस्य पुत्रानपि वशीकृतान् ।। | 3-176-14a 3-176-14b 3-176-14c |
इच्छामि तानि चास्त्राणि द्रष्टुं दिव्यानि भारत। यैस्तथा वीर्यवन्तस्ते निवातकवचा हताः ।। | 3-176-15a 3-176-15b |
अर्जुन उवाच। | 3-176-16x |
सः प्रभाते भवान्द्रष्टा दिव्यान्यस्त्राणि सर्वशः। निवातकवचा घोरा यैर्मया विनिपातिताः ।। | 3-176-16a 3-176-16b |
वैशंपायन उवाच। | 3-176-17x |
एवमागमनं तत्र कथयित्वा धनंजयः। भ्रातृभिः सहितः सर्वै रजनीं तामुवास ह ।। | 3-176-17a 3-176-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि षट्सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 176 ।। |
3-176-1 अतिविश्वस्तं अति अत्यन्तं विश्वस्तं शत्रून् जेष्यतीति विश्वासो यस्मिंस्तम्। संरूढा देहे निमग्नाः शरास्तैर्विक्षतम् ।। 3-176-2 त्वा त्वाम् ।।
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