महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-125
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च्यवनस्य यौवनलाभश्रवणहृष्टेन शर्यातिना तदाश्रमाभिगमनम् ।। 1 ।। च्यवनेन शर्यातेर्याजनम् ।। 2 ।। तत्र च्यवनेनाश्विभ्यां स्वप्रतिश्रुतसोमरसदानोद्यमे इन्द्रेण तस्य हननाय बाहुना वज्रोद्यमनम् ।। 3 ।। तद्बाहुसंस्तग्भनपूर्वकं च्यवनसृष्टया कृत्यया शक्रंप्रत्यभिसरणम् ।। 4 ।।
लोमश उवाच। | 3-125-1x |
ततः श्रुत्वा तु शर्यातिर्वयस्थं च्यवनं कृतम्। सुहृष्टः सेनया सार्धमुपायाद्भार्गवाश्रमम् ।। | 3-125-1a 3-125-1b |
च्यवनं च सुकन्यां च दृष्ट्वा देवसुताविव। रेमे सभार्यः शर्यातिः कृत्स्नां प्राप्य महीमिव ।। | 3-125-2a 3-125-2b |
ऋषिणा सत्कृतस्तेन सभार्यः पृथिवीपतिः। उपोपविष्टः कल्याणीः कथाश्चक्रे मनोरमाः ।। | 3-125-3a 3-125-3b |
अथैनं भार्गवो राजन्नुवाच परिसान्त्वयन्। याजयिष्यामि राजंस्त्वां संभारानुपकल्पय ।। | 3-125-4a 3-125-4b |
ततः परमसंहृष्टः शर्यातिरवनीपतिः। च्यवनस्य महाराज तद्वाक्यं प्रत्यपूजयत् ।। | 3-125-5a 3-125-5b |
प्रशस्तेऽहनि यज्ञीये सर्वकामसमृद्धिमत्। कारयामास शर्यातिर्यज्ञायतनमुत्तमम् ।। | 3-125-6a 3-125-6b |
तत्रैनं च्यवनो राजन्याजयामास भार्गवः। अद्भुतानि च तत्रासन्यानि तानि निबोध मे ।। | 3-125-7a 3-125-7b |
अगृह्णाच्च्यवनः सोममश्विनोर्देवयोस्तदा। तमिन्द्रो वारयामास गृह्णानं स तयोर्ग्रहम् ।। | 3-125-8a 3-125-8b |
इन्द्र उवाच। | 3-125-9x |
उभावेतौ न सोमार्हौ नासत्याविति मे मतिः। भिषजौ दिवि देवानां कर्मणा तेन नार्हतः ।। | 3-125-9a 3-125-9b |
च्यवन उवाच। | 3-125-10x |
मावमंस्था महात्मानौ रूपद्रविणवत्तरौ। यौ चक्रतुर्मां मधवन्वृन्दारकमिवाजरम् ।। | 3-125-10a 3-125-10b |
ऋते त्वां विबुधांश्चान्यान्कथं वै नार्हतः सवम्। अश्विनावपि देवेन्द्र देवौ विद्धि पुरंदर ।। | 3-125-11a 3-125-11b |
इन्द्र उवाच। | 3-125-12x |
चिकित्सकौ कर्मकरौ कामरूपसमन्वितौ। लोके चरन्तौ मर्त्यानां कथं सोममिहार्हतः ।। | 3-125-12a 3-125-12b |
लोमश उवाच। | 3-125-13x |
एतदेव तदा वाक्यमाम्रेडयति वासवे। अनादृत्यततः शक्रं ग्रहं जग्राह भार्गवः ।। | 3-125-13a 3-125-13b |
ग्रहीष्यन्तं तु तं सोममश्विनोरुत्तमं तदा। समीक्ष्य बलभिद्देव इदं वचनमब्रवीत् ।। | 3-125-14a 3-125-14b |
आभ्यामर्ताय सोमं त्वं ग्रहीष्यसि यदि स्वयम्। वज्रं ते प्रहरिष्यामि घोररूपमनुत्तमम् ।। | 3-125-15a 3-125-15b |
एवमुक्तः स्मयन्निन्द्रमभिवीक्ष्यस भार्गवः। जग्राह विधिवत्सोममश्विभ्यामुत्तमं ग्रहम् ।। | 3-125-16a 3-125-16b |
ततोऽस्मै प्राहरद्वज्रं घोररूपं शचीपतिः। तस्य प्रहरतो बाहुं स्तम्भयामास भार्गवः ।। | 3-125-17a 3-125-17b |
तं स्तम्भयित्वा च्यवनो जुहुवे मन्त्रतोऽनलम्। कृत्यार्थी सुमहातेजा देवं हिंसितुमुद्यतः ।। | 3-125-18a 3-125-18b |
ततः कृत्याऽथ संजज्ञे मुनेस्तस्य तपोबलात्। मदो नाम महावीर्यो बृहत्कायो महासुरः ।। | 3-125-19a 3-125-19b |
शरीरं यस् निर्देष्टुमशक्यं तु सुरासुरैः। तस्यास्यमभवद्धोरं तीक्ष्णाग्रदशनं महत् ।। | 3-125-20a 3-125-20b |
हनुरेका स्थिता त्वस्य भूमावेका दिवं गता। चतस्रश्चायता दंष्ट्रा योजनानां शतंशतम् ।। | 3-125-21a 3-125-21b |
इतरे तस्य दशना बभूवुर्दशयोजनाः। प्रासादशिखराकाराः शूलाग्रसमदर्शनाः ।। | 3-125-22a 3-125-22b |
बाहू परिघसंकाशावायतावयुतं समौ। नेत्रे रविशशिप्रख्ये वक्रं कालाग्निसंनिभम् ।। | 3-125-23a 3-125-23b |
लेलिहञ्जिह्वया वक्रं विद्युच्चपललोलया। व्यात्ताननो घोरदृष्टिर्ग्रसन्निव जगद्बलात् ।। | 3-125-24a 3-125-24b |
स भक्षयिष्यन्संक्रुद्धः शतक्रतुमुपाद्रवत्। महता घोररूपेण लोकाञ्शब्देन नादयत् ।। | 3-125-25a 3-125-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि प़्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 125 ।। |
3-125-1 वयस्थं युवानम् ।। 3-125-4 संभारान् यज्ञोपकरणानि ।। 3-125-8 ग्रहं सोमस्य। गृह्णानं तयोरर्थे ।। 3-125-11 सवं सोमम् ।। 3-125-12 भैषज्यात्कर्मणो निन्द्याविति क. पाठः ।। 3-125-13 आम्रेड्यति पुनःपुनरावर्तयति ।।
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