महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-295
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मनसा स्वानुगुणनिर्धारणपूर्वकं वनादागतया सावित्र्या नारदेन सह संभाषमाणस्य पितुरन्तिकमेत्य तयोः पादाभिवादनम् ।। 1 ।।
नारदसंनिधौ पित्रा पृष्टया तथा द्युमस्सेनसूनोः सत्यवतः पठित्वेन मनसा वरणकथनम् ।। 2 ।।
पित्रा नारदवचनात्तस्याल्पायुष्ट्वनिवेदनपूर्वकं वरान्तरवरणं चोदितयापि तया स्वाध्यवसायादनिवर्तनम् ।। 3 ।।
राज्ञापि तस्या निर्वन्धान्नारदवचनाच्च तस्मा एव तस्या दानाध्यवसानम् ।। 4 ।।
मार्कण्डेय उवाच। | 3-295-1x |
अथ मद्राधिपो राजा नारदेन समागतः। उपविष्टः सभामध्ये कथायोगेन भारत ।। | 3-295-1a 3-295-1b |
ततोऽभिगम्य तीर्थानि सर्वाण्येवाश्रमांस्तथा। आजगाम पितुर्वेश्म सावित्री सह मन्त्रिभिः ।। | 3-295-2a 3-295-2b |
नारदेन सहासीनं सा दृष्ट्वा पितरं शुभा। उभयोरेव शिरसा चक्रे पादाभिवादनम् ।। | 3-295-3a 3-295-3b |
नारद उवाच। | 3-295-4x |
क्व गताऽभूत्सुतेयं ते कुतश्चैवागता नृप। किमर्थं युवतीं भद्र न चैनां संप्रयच्छसि ।। | 3-295-4a 3-295-4b |
अश्वपतिरुवाच। | 3-295-5x |
कार्येण खल्वनेनैव प्रेषिताद्यैव चागता। एतस्याः शृणु देवर्षे भर्तारं योऽनया वृतः ।। | 3-295-5a 3-295-5b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-295-6x |
सा ब्रूहि विस्तरेणेति पित्रा संयोदिता शुभा। तदैव तस्य वचनं प्रतिगृह्येदमब्रवीत् ।। | 3-295-6a 3-295-6b |
आसीत्साल्वेषु धर्मात्मा क्षत्रियः पृथिवीपतिः। द्युमत्सेन इति ख्यातः पश्चाच्चान्धो बभूव ह ।। | 3-295-7a 3-295-7b |
विनष्टचक्षुषस्तस्य बालपुत्रस्य धीमतः। सामीप्येन हृतं राज्यं छिद्रेऽस्मिन्पूर्ववैरिणा ।। | 3-295-8a 3-295-8b |
स बालवत्सया सार्धं भार्यया प्रस्थितो वनम्। महारण्यं गतश्चापि पस्तेषे महाव्रतः ।। | 3-295-9a 3-295-9b |
तस्य पुत्रः पुरे जातः संवृद्धश्च तपोवने। सत्यवाननुरूपो मे भर्तेति मनसा वृतः ।। | 3-295-10a 3-295-10b |
नारद उवाच। | 3-295-11x |
अहो वत महत्पापं सावित्र्या नृपते कृतम्। अजानन्त्या यदनया गुणवान्सत्यवान्वृतः ।। | 3-295-11a 3-295-11b |
सत्यं वदत्यस्य पिता सत्यं माता प्रभाषते। तथाऽस् ब्राह्मणाश्चक्रुर्नामैतत्सत्यवानिति ।। | 3-295-12a 3-295-12b |
बालस्याश्वाः प्रियाश्चास्य करोत्यश्वांश्च मृन्मयान्। चित्रेऽपि विलिखत्यश्वांश्चित्राश्व इति चोच्यते ।। | 3-295-13a 3-295-13b |
राजोवाच। | 3-295-14x |
अपीदानीं स तेजस्वी बुद्धिमान्वा नृपात्मजः। क्षमावानपि वा शृरः सत्यवान्पितृवत्सलः ।। | 3-295-14a 3-295-14b |
नारद उवाच। | 3-295-15x |
विवस्वानिव तेजस्वी वृहस्पतिसमो मतौ। महेन्द्र इवन वीरश्च वसुधेव क्षमान्वितः ।। | 3-295-15a 3-295-15b |
अश्वपतिरुवाच। | 3-295-16x |
अपि राजात्मजो दाता ब्रह्मण्यश्चापि सत्यवान्। रूपवानप्युदारो वाऽप्यथवा प्रियदर्शनः ।। | 3-295-16a 3-295-16b |
नारद उवाच। | 3-295-17x |
सांकृते रन्तिदेवस् स्वशक्त्या दानतः समः। ब्रह्मण्यः सत्यवादी च शिबिरौशीनरो यथा ।। | 3-295-17a 3-295-17b |
ययातिरिव चोदारः सोमवत्प्रियदर्शनः। रूपेणान्यतमोऽश्विभ्यां द्युमत्सेनसुतो बली ।। | 3-295-18a 3-295-18b |
`स वदान्यः स तेजस्वीधीमांश्चैव क्षमान्वितः'। स दान्तः स मृदुः शूरः स सत्यः संयतेन्द्रियः। सन्मैत्रः सोनसूयश्च स ह्रीमान्द्युतिमांश्च सः ।। | 3-295-19a 3-295-19b 3-295-19c |
नित्यशश्चार्जवं तस्मिन्धृतिस्तत्रैव च ध्रुवा। संक्षेपतस्तपोवृद्धैः शीलवृद्धैश्च कथ्यते ।। | 3-295-20a 3-295-20b |
अश्वपतिरुवाच। | 3-295-21x |
गुणैरुपेतं सर्वैस्तं भगवन्प्रब्रवीषि मे। दोषानप्यस्य मे ब्रूहि यदि सन्तीह केचन ।। | 3-295-21a 3-295-21b |
नारद उवाच। | 3-295-22x |
एक एवास्य दोषो हि गुणानाक्रम्य तिष्ठति। स च दोषः प्रयत्नेन न शक्यमतिवर्तितुम् ।। | 3-295-22a 3-295-22b |
एको दोषोऽस्ति नान्योऽस्य सोद्यप्रभृति सत्यवान्। संवत्सरेण क्षीणायुर्देहन्यासं करिष्यति ।। | 3-295-23a 3-295-23b |
राजोवाच। | 3-295-24x |
एहि सावित्रि गच्छस्व अन्यं वरय शोभने। तस्य दोषो महानेको गुणानाक्रम्य च स्थितः ।। | 3-295-24a 3-295-24b |
यथा मे भगवानाह नारदो देवसत्कृतः। संवत्सरेण सोऽल्पायुर्देहन्यासं करिष्यति ।। | 3-295-25a 3-295-25b |
सावित्र्युवाच। | 3-295-26x |
सकृदंशो निपतति सकृत्कन्या प्रदीयते। स कृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सकृत्सकृते ।। | 3-295-26a 3-295-26b |
दीर्घायुरथवाऽल्पायुः सगुणो निर्गुणोऽपि वा। सकृद्वृतो मया भर्ता न द्वितीयं वृणोम्यहम् ।। | 3-295-27a 3-295-27b |
मनसा निश्चयं कृत्वाततो वाचाऽभिधीयते। क्रियते कर्मणा पश्चात्प्रमाणं मे मनस्ततः ।। | 3-295-28a 3-295-28b |
नारद उवाच। | 3-295-29x |
स्थिरा बुद्धिर्नरश्रेष्ठ सावित्र्या दुहितुस्तव। नैषा वारयितुं शक्या धर्मादस्मात्कथंचन ।। | 3-295-29a 3-295-29b |
नान्यस्मिन्पुरुषे सन्ति ये सत्यवति वै गुणाः। प्रदानमेव तस्मान्मे रोचते दुहितुस्तव ।। | 3-295-30a 3-295-30b |
राजोवाच। | 3-295-31x |
अविचाल्यमेतदुक्तं तथ्यं च भवता वचः। करिष्याम्येतदेवं च गुरुर्हि भगवान्मम ।। | 3-295-31a 3-295-31b |
नारद उवाच। | 3-295-32x |
अविघ्नमस्तु सावित्र्याः प्रदाने दुहितुस्तव। साधयिष्याम्यहं तावत्सर्वेषां भद्रमस्तु वः ।। | 3-295-32a 3-295-32b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-295-33x |
एवमुक्त्वा स्वमुत्पत्य नारदस्त्रिदिवं गतः। राजाऽपि दुहितुः सज्जं वैवाहिकमकारयत् ।। | 3-295-33a 3-295-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि पतिव्रतामाहात्म्यपर्वणि पञ्चनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 295 ।। |
3-295-1 कथायोगेन कथाप्रसङ्गेन ।। 3-295-8 सामीप्येन समीपवासिना। छिद्रे अन्धत्वे सति ।। 3-295-10 स्यवान्नामतः ।। 3-295-14 तेजस्वी प्रभाववान् ।। 3-295-17 सांकृतेः संकृतिपुत्रस्य ।। 3-295-22 आक्रम्य अभिभूय ।। 3-295-26 अंशः काष्ठपाषाणादेः शकलः सकृन्निपतति। कृतस्य करणं नास्तीत्यर्थः ।। 3-295-31 एतत् सावित्र्या वचनं अविचाल्यं भवता च तथ्यं उक्तम् ।। 3-295-32 साधयिष्यामि गमिष्यामि ।।
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