महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-220
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मार्कण्डेयेन युधिष्ठिरंप्रत्याङ्गिरसोपाख्यानकथनारम्भः ।। 1 ।। अग्ङिरसःपुत्रस्य बृहस्पतेर्देवैरङ्गिरसो वचनाद्गुरुत्वेन स्वीकरणम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-220-1x |
श्रुत्वेमां धर्मसंयुक्तां धर्मराजः कथां शुभाम्। पुनः पप्रच्छ तमृषिं मार्कण्डेयमिदं तदा ।। | 3-220-1a 3-220-1b |
कथमग्निर्वनं यातः कथं चाप्यङ्गिराः पुरा। नष्टेऽग्नौ हव्यमहवदग्निर्भूत्वा महाद्युतिः ।। | 3-220-2a 3-220-2b |
अग्निर्यदा चैक एव बहुत्वं चास्य कर्मसु। दृश्यते भगवन्सर्वमेतदिच्छामि वेदितुम् ।। | 3-220-3a 3-220-3b |
कुमारश्च यथोत्पन्नो यथा चाग्नेः सुतोऽभवत्। यथा रुद्राच्च संभूतो गङ्गायां कृत्तिकासु च ।। | 3-220-4a 3-220-4b |
एतदिच्छाम्यहं त्वत्तः श्रोतुं भार्गवसत्तम। कौतूहलसमाविष्टो याथातथ्यं महामुने ।। | 3-220-5a 3-220-5b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-220-6x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। यथा क्रुद्धो हुतवहस्तपस्तप्तुं वनं गतः ।। | 3-220-6a 3-220-6b |
यथा च भगवानग्निः स्वयमेवाङ्गेराऽभवत्। संतापयंश्च प्रभया नाशयंस्तिमिरावलिम् ।। | 3-220-7a 3-220-7b |
पुराङ्गिरा महाबाहो चचार तप उत्तमम्। आश्रमस्थो महाभागो हव्यवाहं विशेषयन्। यथाग्निर्भूत्वा तु तदा जगत्सर्वं व्यकाशयत् ।। | 3-220-8a 3-220-8b 3-220-8c |
तपश्चरंस्तु हुतभुक्संतप्तस्तस्य तेजसा। भृशं ग्लानश्चतेजस्वी न च किंचित्प्रजज्ञिवान् ।। | 3-220-9a 3-220-9b |
अथ संचिन्तयामास भगवान्हव्यवाहनः। अन्योऽग्निरिव लोकानां ब्रह्मणा संप्रकल्पितः ।। | 3-220-10a 3-220-10b |
अग्नित्वं विप्रनष्टं हि तप्यमानस् मे तपः। कथमग्निः पुनरहं भवेयमिति चिन्त्य सः ।। | 3-220-11a 3-220-11b |
अपश्यदग्निवल्लोकांस्तापयन्तं महामुनिम्। सोपासर्पच्छनैर्भीतस्तमुवाच तदाङ्गिराः ।। | 3-220-12a 3-220-12b |
शीघ्रमेव भवस्वाग्निस्त्वं पुनर्लोकभावनः। विज्ञातश्चासि लोकेषु त्रिषु संस्थानचारिषु ।। | 3-220-13a 3-220-13b |
त्वमग्ने प्रथमः सृष्टो ब्र्हमणा तिमिरापर्हः। स्वस्थानं प्रतिपद्यस्व शीघ्रमेव तमो नुद ।। | 3-220-14a 3-220-14b |
अग्निरुवाच। | 3-220-15x |
नष्टकीर्तिरहं लोके भवाञ्जातो हुताशनः। भवन्तमेव ज्ञास्यन्ति पावकं न तु मां जनाः ।। | 3-220-15a 3-220-15b |
निक्षिपम्यहमग्नित्वं त्वमग्निः प्रथमो भव। भविष्यामि द्वितीयोऽहं प्राजापत्यक एव च ।। | 3-220-16a 3-220-16b |
अङ्गिरा उवाच। | 3-220-17x |
कुरु पुण्यं प्रजास्वर्ग्यं भवाग्निस्तिमिरापहः। मां च देव कुरुष्वाग्ने प्रथमं पुत्रमञ्जसा ।। | 3-220-17a 3-220-17b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-220-18x |
तच्छ्रुत्वाङ्गिरसो वाक्यं जातवेदास्तथाऽकरोत्। राजन्वृहस्पतिर्नाम तस्याप्यङ्गिरसः सुतः ।। | 3-220-18a 3-220-18b |
ज्ञात्वा प्रथमजं तं तु वह्नेरङ्गिरसं सुतम्। उपेत्य देवाः पप्रच्छुः कारणं तत्र भारत ।। | 3-220-19a 3-220-19b |
स तु पृष्टस्तदा देवैस्तत कारणमब्रवीत्। प्रत्यगृह्णन्त देवाश्च तद्वचोऽङ्गिरसस्तदा ।। | 3-220-20a 3-220-20b |
तत्रनानाविधानग्नीन्प्रवक्ष्यामि महाप्रभान्। कर्मभिर्वहुभिः ख्याताननानार्थान्ब्राह्मणेष्विह ।। | 3-220-21a 3-220-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 220।। |
3-220-13 संस्थानचारिषु स्थावरजंगमेषु। सम्यक् स्थानं गतिनिवृत्तिर्येषु चरणशीलेषु चेति योगात् ।। 3-220-16 प्राजापत्यस्तथैकत इति क. थ. ध. पाठः ।। 3-220-20 प्रत्यगृह्णन् अङ्गिरसो वचः अयं भवतां गुरुरिति अङ्गीकृतवन्तः ।। 3-220-21 यातान्नानात्वं ब्राह्मणेष्वपि इति थ. पाठः ।।
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