महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-168
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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अर्जुनेन स्वस्य किरातरूपिणा सह युद्धप्रकारस्य पाशुपताश्रलाभप्रकारस्य च कथनम् ।। 1 ।।
वैशपायन उवाच। | 3-168-1x |
यथागतं गते शक्रे भ्रातृभिः सह संगतः। कृष्णया चैव बीभत्सुर्धर्मराजमपूजयत् ।। | 3-168-1a 3-168-1b |
अभिवादयमानं तं मूर्ध्न्युपाघ्राय पाण्डवम्। हर्षगद्गदया वाचा प्रहृष्टोऽर्जुनमब्रवीत् ।। | 3-168-2a 3-168-2b |
कथमर्जुन कालोऽयं स्वर्गे रव्यतिगतस्तव। कथं चास्त्राण्यवाप्तानि देवराजश्च तोषितः ।। | 3-168-3a 3-168-3b |
सम्यग्वा ते गृहीतानि कच्चिदस्त्राणि पाण्डव। कच्चित्सुराधिपः प्रीतो रुद्रश्चास्त्राण्यदात्तव ।। | 3-168-4a 3-168-4b |
यथा दृष्टश्च ते शक्रो भगवान्वा पिनाकधृत्। यथैवास्त्राण्यवाप्तानि यथैवाराधिताश्च ते ।। | 3-168-5a 3-168-5b |
यथोक्तवांस्त्वां भगवाञ्शतक्रतुररिंदम। कृतप्रियस्त्वयाऽस्मीति तस्य ते किं प्रियं कृतम् ।। | 3-168-6a 3-168-6b |
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण महाद्युते। यथा तुष्टो महादेवो देवराजस्तथाऽनघ ।। | 3-168-7a 3-168-7b |
यच्चापि वज्रपाणेस्तु प्रियं कृतमरिंदम। एतदाख्याहि मे सर्वमखिलेन धनंजय ।। | 3-168-8a 3-168-8b |
अर्जुन उवाच। | 3-168-9x |
शृणु हन्त महाराज विधिना येन दृष्टवान्। शतक्रतुमहं देवं भगवन्तं च शंकरम् ।। | 3-168-9a 3-168-9b |
विद्यामधीत्य तां राजंस्त्वयोक्तामरिमर्दन। भवता च समादिष्टस्तपसे प्रस्थितो वनम् ।। | 3-168-10a 3-168-10b |
भृगुतुन्दमथो गत्वा काम्यकादास्थितस्तपः। एकरात्रोषितः कंचिदपश्यं ब्राह्मणं पथि ।। | 3-168-11a 3-168-11b |
स मामपृच्छत्कौन्तेय क्वासि गन्ता ब्रवीहि मे। तस्मा अवितथं सर्वमब्रवं कुरुनन्दन ।। | 3-168-12a 3-168-12b |
स तथ्यं मम तच्छ्रुत्वा ब्राह्मणो राजसत्तम। अपूजयत मां राजन्प्रीतिमांश्चाभवन्मयि ।। | 3-168-13a 3-168-13b |
ततो मामब्रवीत्प्रीतस्तप आतिष्ठ भारत। तपस्वी नचिरेण त्वं द्रक्ष्यसे विबुधाधिषम् ।। | 3-168-14a 3-168-14b |
ततोऽहं वचनात्तस्य गिरिमारुह्य शैशिरम्। तपोऽतप्यं महाराज मासं मूलफलाशनः ।। | 3-168-15a 3-168-15b |
द्वितीयश्चापि मे मासो जलं भक्षयतो गतः। निराहारस्तृतीयेऽथ मासे पाण्डवनन्दन ।। | 3-168-16a 3-168-16b |
ऊर्ध्वबाहुश्चतुर्थं तु मासमस्मि स्थितस्तदा। न च मे हीयते प्राणस्तदद्भुतमिवाभवत् ।। | 3-168-17a 3-168-17b |
पञ्चमे त्वथ संप्राप्ते प्रथमे दिवसे गते। वराहसंस्थितं भूतं मत्समीपं समागमत् ।। | 3-168-18a 3-168-18b |
निघ्नन्प्रोथेन पृथिवीं विलिखंश्चरणैरपि। संमार्जञ्जठरेणोर्वीं विवर्तंश्च मुहुर्मुहुः ।। | 3-168-19a 3-168-19b |
अनु तस्यापरं भूतं महत्कैरातसंस्थितम्। धनुर्बाणासिमत्प्राप्तं स्त्रीगणानुगतं तदा ।। | 3-168-20a 3-168-20b |
ततोऽहं धनुरादाय तथाऽक्षय्ये महेषुधी। अताडयं शरेणाथ तद्भूतं रोमहर्षणम् ।। | 3-168-21a 3-168-21b |
युपत्तं किरातस्तु विकृष्य बलवद्धनुः। अभ्याजघ्ने दृढतरं कम्पयन्निव मेदिनीम् ।। | 3-168-22a 3-168-22b |
सतु मामब्रवीद्राजन्मम पूर्वपरिग्रहः। मृगयाधर्ममुत्सृज्य किमर्थं ताडितस्त्वया ।। | 3-168-23a 3-168-23b |
एष ते निशितैर्बाणैर्दर्पं हन्मि स्थिरो भव। संघर्षवान्महाकायस्ततो मामभ्यधावत ।। | 3-168-24a 3-168-24b |
ततो गिरिमिवात्यर्थमावृणोन्मां महाशरैः। तं चाहं शरवर्षेण महता समवाकिरम् ।। | 3-168-25a 3-168-25b |
ततः शरैर्दीप्तमुखैर्यन्त्रितैरनु यन्त्रितैः। प्रत्यविध्यमहं तं तु वज्रैरिव शिलोच्चयम् ।। | 3-168-26a 3-168-26b |
तस्य तच्छतधा रूपमभवच्च सहस्रधा। तानि चास्य शरीराणि शरैरहमताडयम् ।। | 3-168-27a 3-168-27b |
पुनस्तानि शरीराणि एकीभूतानि भारत। अदृश्यन्त महाराज तान्यहं व्यधमं पुनः ।। | 3-168-28a 3-168-28b |
अणुर्बृहच्छिरा भूत्वा बृहच्चाणुशिराः पुनः। एकीभूतस्तदा राजन्सोऽभ्यवर्तत मां युधि ।। | 3-168-29a 3-168-29b |
यदाऽभिभवितुं बाणैर्न च शक्नोमि तं रणे। ततो महास्त्रमातिष्ठं वायव्यं भरतर्षभ ।। | 3-168-30a 3-168-30b |
न चैनमशकं हन्तुं तदद्भुतमिवाभवत्। तस्मिन्प्रतिहते चास्त्रे विस्मयो मे महानभूत् ।। | 3-168-31a 3-168-31b |
तत्रापि च महाराज सविशेषमहं ततः। अस्त्रपूगेन महता रणे भूतमवाकिरम् ।। | 3-168-32a 3-168-32b |
स्थूणाकर्णमथो जालं शरवर्षं शरोल्वणम्। शलभास्त्रमश्मवर्षं समास्थायाहमभ्ययाम् ।। | 3-168-33a 3-168-33b |
जग्रास प्रसभं तानि सर्वाण्यस्त्राणि मे नृप। तेषु सर्वेषु जग्धेषु ब्रह्मास्त्रं महदादिशम् ।। | 3-168-34a 3-168-34b |
ततः प्रज्वलितैर्बाणैः सर्वतश्चोपचीयत। उपचीयमानश्च तदा महास्त्रेण व्यवर्धत ।। | 3-168-35a 3-168-35b |
ततः संतापिता लोका मत्प्रसूतेन तेजसा। क्षणएन हि दिशः स्वं च सर्वतो हि विदीपितं ।। | 3-168-36a 3-168-36b |
तदप्यस्त्रं महातेजाः क्षणेनैव व्यशामयत्। ब्र्हमास्त्रे तु हते राजन्भयं मां महदाविशत् ।। | 3-168-37a 3-168-37b |
ततोऽहं धनुरादाय तथाऽक्षय्ये महेषुधी। सहसाऽभ्यहनं भूतं तान्यप्यस्त्राण्यभक्षयत् ।। | 3-168-38a 3-168-38b |
एतेष्वस्त्रेषु भूतेन भक्षितेष्वायुधेषु च। मम तस् च भूतस्य बाहुयुद्धमवर्तत ।। | 3-168-39a 3-168-39b |
व्यायामं मुष्टिभिः कृत्वा तलैरभिसमाहतौ। अपायच्च तद्भूतमहं चापातयं महीम् ।। | 3-168-40a 3-168-40b |
ततः प्रहस्य तद्भूतं तत्रैवान्तरधीयत। सह स्त्रीभिर्महाराज पश्यतो मेऽद्भुतोपमम् ।। | 3-168-41a 3-168-41b |
मुख्यं कृत्वा स भगवांस्ततोऽन्यद्रूपमात्मनः। दिव्यमेव महाराज वरानोऽद्भुतमम्बरम् ।। | 3-168-42a 3-168-42b |
हित्वा किरातरूपं च भगवांस्त्रिदशेश्वरः। स्वरूपं दिव्यमास्थाय तस्यौ महेश्वरः ।। | 3-168-43a 3-168-43b |
सोऽदृश्यत ततः साक्षाद्भगवान्गोवृषध्वजः। धनुर्गृह्यतदा पाणौ बहुरूपः पिनाकधृत् ।। | 3-168-44a 3-168-44b |
स मामभ्येत्य समरे तथैवाभिमुखं स्थितम्। शूलपाणिरथोवाच तुष्टोस्मीति परंतप ।। | 3-168-45a 3-168-45b |
ततस्तद्धनुरादाय तूणौ चाक्षय्यसायकौ। प्रादान्ममैव भगवान्वरयस्वेति चाब्रवीत् ।। | 3-168-46a 3-168-46b |
तुष्टोस्मि तव कौन्तेय ब्रूहि किं करवाणि ते। मनोगतं वीर यत्ते तद्ब्रूहि वितराम्यहम्। अमरत्वमपाहाय ब्रूहि यत्ते मनोगतम् ।। | 3-168-47a 3-168-47b 3-168-47c |
ततः प्राञ्डलिरेवाहमस्त्रेषु कृतमानसः। प्रणम्य शिरसा शर्वं ततो वचनमाददे ।। | 3-168-48a 3-168-48b |
भगवानमे प्रसन्नश्चेदीप्सितोऽयं वरो मम। अस्त्राणीच्छाम्यहं ज्ञातुं यानि देवेषु कानिचित् ।। | 3-168-49a 3-168-49b |
ददानीत्येव भगवानब्रवीत्र्यम्बकश्च माम्। रौद्रमस्त्रं मदीयं त्वामुपस्थास्यति पाण्डव ।। | 3-168-50a 3-168-50b |
प्रददौ च मम प्रीतः सोऽस्त्रं पाशुपतं प्रभुः। उवाच च महादेवो दत्त्वा मेऽस्त्रं सनातनम् ।। | 3-168-51a 3-168-51b |
न प्रयोज्यंभवेदेतन्मानुषेषु कथंचन। [जगद्विनिर्दहेदेवमल्पतेजसि पातितम् ।। | 3-168-52a 3-168-52b |
पीड्यमानन बलवत्प्रयोज्यंस्याद्धनंजय। अस्त्राणां प्रतिघाते च सर्वथैव प्रयोजयेः ।। | 3-168-53a 3-168-53b |
ततोऽप्रतिहतं दिव्यं सर्वास्त्रप्रतिषेधनम्। मूर्तिमन्मे स्थितं पार्श्वे प्रसन्ने गोवृषध्वजे ।। | 3-168-54a 3-168-54b |
उत्सादनममित्राणां परसेनानिकर्तनम्। दुरासदं दुष्प्रसहं सुरदानवराक्षसैः ।। | 3-168-55a 3-168-55b |
अनुज्ञातस्त्वहं तेन तत्रैव समुपाविशम्। प्रेक्षतश्चैवमे देवस्तत्रैवान्तरधीयत ।। | 3-168-56a 3-168-56b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि अष्टषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 168 |
3-168-2 प्रहृष्टो धर्मपुत्रः ।। 3-168-9 हन्तेत्यव्ययं वाक्यारम्भे हर्षे वा ।। 3-168-15 शैशिरं हिममयम् ।। 3-168-17 प्राणो बलम् ।। 3-168-18 चतुर्थे मास्यतिक्रान्ते इति ध. पाठः। वराहवत् संस्थितं आकारो यस्य ।। 3-168-19 प्रोथेन मुखाग्रेण पोत्राख्येन। विवर्तन् विषमेण भावेन वर्तमानः इतस्ततः पर्यटन्वा ।। 3-168-26 अनुपश्चात् यन्त्रितैः दृढाकृष्टैः ।। 3-168-33 स्थूणाकर्ण इति शङ्कुकर्णाख्यो रुद्रावतारभेदस्तद्दैवत्यमस्रम्। जालं जलमयं वारुणम्। शैलास्त्रमश्मवर्षं च इति ध. पाठः ।। 3-168-40 व्यायामं संघटनम् ।। 3-168-44 गोवृषो बलीवर्दश्रेष्ठः ।।
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