महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-132
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लोमशेन युधिष्ठिरंप्रति सरस्वत्यादिमाहात्म्यकथनम् ।। 1 ।। तथा श्येनकपोतोपाख्यानकथनारम्भः ।। 2 ।।
लोमश उवाच। | 3-132-1x |
इह मर्त्यास्तनूस्त्यक्त्वा स्वर्गं गच्छन्ति भारत। मर्तुकामा नरा राजन्निहायान्ति सहस्रशः ।। | 3-132-1a 3-132-1b |
एवमाशीः प्रयुक्ता हि दक्षेण यजता पुरा। इह ये वै मरिष्यन्ति ते वै स्वर्गजितो नराः ।। | 3-132-2a 3-132-2b |
एषा सरस्वती रम्या दिव्या चौघवती नदी। एतद्विनशनं नाम सरस्वत्या विशांपते ।। | 3-132-3a 3-132-3b |
द्वारं निषादराष्ट्रस्य येषां दोषात्सरस्वती। प्रविष्टा पृथिवीं वीर मा निषादा हि मां विदुः ।। | 3-132-4a 3-132-4b |
एष वै चमसोद्भेदो यत्र दृश्या सरस्वती। यत्रैनामभ्यवर्तन्त दिव्याः पुण्याः समुद्रगाः ।। | 3-132-5a 3-132-5b |
एतत्सिन्धोर्महत्तीर्थं यत्रागस्त्यमरिंदम। लोपामुद्रा समागम्य भर्तारमवृणीत वै ।। | 3-132-6a 3-132-6b |
एतत्प्रकाशते तीर्थं प्रभासं भास्करद्युते। इन्द्रस्य दयितं पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् ।। | 3-132-7a 3-132-7b |
एतद्विष्णुपदं नाम दृश्यते तीर्थमुत्तमम्। एषां रम्या विपाशा च नदी परमपावनी ।। | 3-132-8a 3-132-8b |
अत्र वै पुत्रशोकेन वसिष्ठो भगवानृषिः। बद्ध्वाऽत्मानं निपतितो विपाशः पुनरुत्थितः ।। | 3-132-9a 3-132-9b |
काश्मीरमण्डलं चैतत्सर्वपुण्यमरिंदम। महर्षिभिश्चाध्युषितं पश्येदं भ्रातृभिः सह ।। | 3-132-10a 3-132-10b |
यत्रौत्तराणां सर्वेषामृषीणां नाहुषस्य च। अग्नेश्चैवात्र संवादः काश्यपश्य च भारत ।। | 3-132-11a 3-132-11b |
एतद्द्वारं महाराज मानसस्य प्रकाशते। वर्षमस्य गिरेर्मध्ये रामेण श्रीमता कृतम् ।। | 3-132-12a 3-132-12b |
एष वातिकषण्डो वै प्रख्यातः सत्यविक्रमः। नात्यवर्तत यद्द्वारं विदेहादुत्तरं च यः ।। | 3-132-13a 3-132-13b |
इदमाश्चर्यमपरं देशेऽस्मिन्पुरुषर्षभ। क्षीणे युगे तु कौन्तेय शर्वस्य सह पार्षदैः। सहोमया च भवति दर्शनं कामरूपिणः ।। | 3-132-14a 3-132-14b 3-132-14c |
अस्मिन्सरसि सत्रैर्वै चैत्रे मासि पिनाकिनम्। यजन्ते याजकाः सम्यक् परिवारं शुभार्थिनः ।। | 3-132-15a 3-132-15b |
अत्रोपस्पृश्य सरसि श्रद्दधानो जितेन्द्रियः। क्षीणपापः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुते नात्र संशयः ।। | 3-132-16a 3-132-16b |
एष उज्जानको नाम पावकिर्यत्र शान्तवान्। अरुन्धतीसहायश्च वसिष्ठो भगवानृषिः ।। | 3-132-17a 3-132-17b |
ह्रदश्च कुशवानेष यत्र पद्मं कुशेशयम्। आश्रमश्चैव रुक्मिण्या यत्राशाम्यदकोपना ।। | 3-132-18a 3-132-18b |
समाधीनां समासस्तु पाण्डवेय श्रुतस्त्वया। तं द्रक्ष्यसि महाराज भृगुतुन्दं महागिरिम् ।। | 3-132-19a 3-132-19b |
वितस्तां पश्य राजेन्द्र सर्वपापप्रमोचनीम्। महर्षिभिश्चाध्युषितां शीततोयां सुनिर्मलाम् ।। | 3-132-20a 3-132-20b |
जलां चोपजलां चैव यमुनामभितो नदीम्। उशीनरो वै यत्रेष्ट्वा वासवादत्यरिच्यत ।। | 3-132-21a 3-132-21b |
तां देवसमितिं तस्य वासवश्च विशांपते। अभ्यागच्छन्नृपवरं ज्ञातुमग्निश्च भारत ।। | 3-132-22a 3-132-22b |
जिज्ञासमानौ वरदौ महात्मानमुशीनरम्। इन्द्रः श्येनः कपोतोऽग्निर्भूत्वा यज्ञेऽभिजग्मतुः ।। | 3-132-23a 3-132-23b |
उरुं राज्ञः समासाद्य कपोतः श्येनजाद्भयात्। शरणार्थी तदा राजन्निलिल्ये भयपीडितः ।। | 3-132-24a 3-132-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 132 ।। |
3-132-1 इह मर्त्यास्तपस्तप्त्वेति क. ध. पाठः ।। 3-132-9 वद्वा पाशैरिति शेषः। विपाशः पाशहीनः। अतएव विपाशानाम ।। 3-132-12 वर्षं वसतिस्थानम् ।। 3-132-13 यो रामः प्रख्यातः सत्यविक्रमश्च विदेहादुत्तरं च यद्द्वारं यद्वर्षस्य द्वारं एषोऽनुभूयमानो वातिकषण्डो वातानीतः पद्मादिसमूहो नात्यवर्तत। तेन रामेण कृतमिति पूर्वेणान्वयः। पद्मादेर्वातानीतस्यात्राप्रवेशाद्रामसामर्थ्यं प्रत्यक्षमाश्चर्यमित्यर्थः। एष वाति मृकण्डो वै इति क. ध. पाठः ।। 3-132-14 युगं पञ्चसंवत्सरात्मकं तस्मिन्क्षीणे समाप्ते सति यदा सौरसावनबार्हस्पत्यनाक्षत्रचान्द्राः संवत्सरा एककालं समाप्यन्ते स युगक्षयकालस्तस्मिन्नित्यर्थः ।। 3-132-17 पावकिः स्कन्दः। शान्तवान् शमं प्राप। वसिष्टोपि शान्तवान् एष उज्जीतको नाम यवक्रीर्यत्र शान्तवानिति क. ध. पाठः ।। 3-132-18 कुशवान् जलवान्. अकोपना जितक्रोधा ।। 3-132-19 समासः संक्षेपः। यस्मिन्दृष्टे समाधिफलं भवतीत्यर्थः ।। 3-132-22 देवसमितिं राजसभाम् ।। 3-132-24 निलिल्ये लीनः ।।
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