महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-046
दिखावट
← आरण्यकपर्व-045 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-046 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-047 → |
अर्जुनस्य पाशुपतास्त्रलाभस्वर्लोकगमनादिश्रवणेन परिखिद्यता धृतराष्ट्रेण संजयाग्रे स्वपुत्रान्प्रति
जनमेजय उवाच। | 3-46-1x |
अत्यद्भुतमिदं कर्म पार्थस्यामिततेजसः। धृतराष्ट्रो महातेजाः श्रुत्वा तत्र किमब्रवीत् ।। | 3-46-1a 3-46-1b |
वैशंपायन उवाच। | 3-46-2x |
शक्रलोकगतं पार्थं श्रुत्वा राजाऽम्बिकासुतः। द्वैपायनादृषिश्रेष्ठात्संजयं वाक्यमब्रवीत् ।। | 3-46-2a 3-46-2b |
श्रुतं मे सूत कार्त्स्न्येन कर्म पार्थस् धीमतः। कच्चित्तवापि विदितं याथातथ्येन सारथे ।। | 3-46-3a 3-46-3b |
प्रमत्तो ग्राम्यधर्मेषु मन्दात्मा पापनिश्चयः। मम पुत्रः सुदुर्बुद्धिः पृथिवीं घातयिष्यति ।। | 3-46-4a 3-46-4b |
यस्य नित्यमृता वाचः स्वैरेष्वपि महात्मनः। त्रैलोक्यमपि तस्य स्याद्योद्धा यस्य धनंजयः ।। | 3-46-5a 3-46-5b |
अस्यतः कर्णिनाराचांस्तीक्ष्णाग्रांश्च शिलाशितान्। नार्जुनस्याग्रतस्तिष्ठेदपि मृत्युर्जरातिगः ।। | 3-46-6a 3-46-6b |
मम पुत्रा दुरात्मानः सर्वे मृत्युवशंगताः। येषां युद्धं दुराधर्षैः पाण्डवैः समुपस्थितम् ।। | 3-46-7a 3-46-7b |
तस्यैव च न पश्यामि युधि गाण्डीवधन्वनः। अनिशं चिन्तयानोऽपि य एनमुदियाद्युधि ।। | 3-46-8a 3-46-8b |
द्रोणकर्णौ प्रतीयातां यदि भीष्मोऽपि वा रणे। महान्स्यात्संशयोलोके न तु पश्यामि नो जयम् ।। | 3-46-9a 3-46-9b |
घृणी कर्णः प्रमादी च आचार्यः स्थविरो गुरुः। अमर्षी बलवान्पार्थः संरम्भी दृढविक्रमः ।। | 3-46-10a 3-46-10b |
भवेत्सुतुमुलं युद्धं सर्वस्याप्यपराजितम्। सर्वे ह्यस्त्रविदः शूराः सर्वे प्राप्ता महद्यशः ।। | 3-46-11a 3-46-11b |
अपि सर्वेश्वरत्वं हि न वाञ्छेरन्पराजिताः। वधे नूनं भवेच्छान्तिरेतेषां फल्गुनस्य वा ।। | 3-46-12a 3-46-12b |
न तु हन्ताऽर्जुनस्यास्ति जेता वाऽस्य न विद्यते। मन्युस्तस्य कथं शाम्येन्मन्दान्प्रति समुत्थितः ।। | 3-46-13a 3-46-13b |
त्रिदशेशसमो वीरः खाण्डवेऽग्निमतर्पयत्। जिगा पार्थिवान्सर्वान्राजसूये महाक्रतौ ।। | 3-46-14a 3-46-14b |
शेषं कुर्याद्गिरेर्वज्रो निपतन्मूर्ध्नि संजय। न तु कुर्युः शराः शेषं क्षिप्तास्तात किरीटिना ।। | 3-46-15a 3-46-15b |
यथा हि किरणा भानोस्तपन्तीह चराचरम्। तथा पार्थभुजोत्सृष्टाः शरास्तप्स्यन्ति मत्सुतान् ।। | 3-46-16a 3-46-16b |
अपि तद्रथघोषेण भयार्था सव्यसाचिनः। प्रतिभाति विदीर्णेव सर्वतो भारती चमूः ।। | 3-46-17a 3-46-17b |
समुद्धरन्प्रवपंश्चैव बाणान् स्ताताऽऽततायी समरे किरीटि। सृष्टोऽन्तकः सर्वहरो विधात्रा भवेद्यथा तद्वदवारणीयः ।। | 3-46-18a 3-46-18b 3-46-18c 3-46-18d |
संजय उवाच। | 3-46-19x |
यदतत्कथितं राजंस्त्वया दुर्योधनं प्रति। सर्वमेतद्यथातत्त्वं नतु मिथ्या महीपते ।। | 3-46-19a 3-46-19b |
मन्युना हि समाविष्टाः पाण्डवास्त्वमितौजसः। दृष्ट्वा कृष्णां सभां नीतां धर्मपत्नीं यशस्विनीं ।। | 3-46-20a 3-46-20b |
दुःशासनस्य ता वाचः श्रुत्वा वै कटुकोदयाः। कर्णस्य च महाराज न स्वप्स्यन्तीति मे मतिः ।। | 3-46-21a 3-46-21b |
श्रुतं हि ते महाराज यथा पार्थेन संयुगे। एकादशतनुः स्थाणुर्धेनुषा परितोषितः ।। | 3-46-22a 3-46-22b |
कैरातं वेषमास्थाय योधयामास फल्गुनम्। जिज्ञासुः सर्वदेवेशः कपर्दी भगवान्स्वयम् ।। | 3-46-23a 3-46-23b |
`लेभे पाशुपतं चापि परमास्त्रं महाद्युतिः।' तत्रैनं लोकपालास्ते दर्शयामासुरर्जुनम्। अस्त्रहेतोः पराक्रान्तं तपसा कौरवर्षभम् ।। | 3-46-24a 3-46-24b 3-46-24c |
नैतदुत्सहते चान्यो लब्धुमन्यत्र फल्गुनात्। साक्षाद्दर्शनमेतेषामीश्वराणां नरो भुवि ।। | 3-46-25a 3-46-25b |
महेश्वरेण यो राजन्न जीर्णो ग्रस्तमूर्तिमान्। कस्तमुत्सहते वीरो युद्धे जरयितुं पुमान् ।। | 3-46-26a 3-46-26b |
आसादितमिदं घोरं तुमुलं रोमहर्षणम्। द्रौपदीं परिकर्षद्भिः कोपयद्भिश्च पाण्डवान् ।। | 3-46-27a 3-46-27b |
यत्र विस्फुरमाणौष्ठो भीमः प्राह वचोऽर्थवत्। दृष्ट्वा दुर्योधनेनोरू द्रौपद्या दर्शितावुभौ ।। | 3-46-28a 3-46-28b |
ऊरुं भेत्स्यामि ते पाप गदया वज्रकल्पया। त्रयोदशानां वर्षाणामन्ते दुर्द्यूतदेविनः ।। | 3-46-29a 3-46-29b |
सर्वे प्रहरतां श्रेष्ठाः सर्वेचामिततेजसः। सर्वेसर्वास्त्रविद्वांसो देवैरपि सुदुर्जयाः ।। | 3-46-30a 3-46-30b |
मन्ये मन्युसमुद्भूताः पुत्राणां तव संयुगे। अन्तं पार्थाः करिष्यन्ति वीर्यामर्षसमन्विताः ।। | 3-46-31a 3-46-31b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 3-46-32x |
किं कृतं सूत कर्णेन वदता परुषं वचः। पर्याप्तं वैरमेतावद्यत्कृष्णा सा सभां गता ।। | 3-46-32a 3-46-32b |
अपीदानीं मम सुतास्तिष्ठेरन्मन्दचेतसः। येषां भ्राता गुरुर्ज्येष्ठो विनये नावतिष्ठते ।। | 3-46-33a 3-46-33b |
ममापि वचनं सूत न शुश्रूषति मन्दभाक्। दृष्ट्वा मां चक्षुषा हीनं निर्विचेष्टमचेतसम् ।। | 3-46-34a 3-46-34b |
ये चास्य सचिवा मन्दाः कर्णसौबलकादयः। ते तस्य भूयसो दोषान्वर्धयन्ति विचेतसः ।। | 3-46-35a 3-46-35b |
स्वैरं मुक्ता ह्यपि शराः पार्थेनामिततेजसा। निर्दहेयुर्मम सुतान्किंपुनर्मन्युनेरिताः ।। | 3-46-36a 3-46-36b |
पार्थबाहुबलोत्सृष्टा महाचापविनिःसृताः। दिव्यास्त्रमन्त्रमुदिताः सादयेयुः सुरानपि ।। | 3-46-37a 3-46-37b |
यस्य मन्त्री च गोप्ता च सुहृच्चैव जनार्दनः। हनिस्त्रैलोक्यनाथः स किंनु तस् न निर्जितम् ।। | 3-46-38a 3-46-38b |
इदं हि सुमहच्चित्रमर्जुनस्येह संजय। महादेवेन बाहुभ्यां यत्समेत इति श्रुतिः ।। | 3-46-39a 3-46-39b |
प्रत्यक्षं सर्वलोकस्य खाण्डवे यत्कृतं पुरा। फल्गुनेन सहायार्थे वह्नेर्दामोदरेण च ।। | 3-46-40a 3-46-40b |
सर्वथा न हि मे पुत्राः सहामात्याः सबान्धवाः। क्रुद्धे पार्थे च भीमे च वासुदेवे च सात्वते ।। | 3-46-41a 3-46-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि |
3-46-5 ऋताः सत्याः ।। 3-46-9 प्रतीयातां प्रतिगच्छेताम् ।। 3-46-10 धृणी दयालुः। प्रमादी अनवहितः। संरम्भी उद्यमी ।। 3-46-18 प्रवपन् प्रेरयन्। स्थाता स्थास्यति ।। 3-46-25 नैतदुत्पत्स्यतेऽन्यो हि इति क. ध. पाठः ।। 3-46-26 न जीर्णो न क्षीणः ।। 3-46-31 अन्तं नाशम्। भार्यामर्षसमन्विताः इति झ. पाठः ।। 3-46-33 विनये नीतौ ।। 3-46-41 नहि सन्तीति शेषः ।।
आरण्यकपर्व-045 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-047 |