महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-308
पठन सेटिंग्स
← आरण्यकपर्व-307 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-308 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-309 → |
कुन्त्या सङ्गमन्तरा दुश्शकानुनये भास्करे कृच्छ्रात्तदङ्गीकरणम् ।। 1 ।।
सूर्येण पुनः कन्यात्वलाभरूपवरदानपूर्वकं तस्यां गर्भाधानम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-308-1x |
सा तु कन्या बहुविधं ब्रुवन्ती मधुरं वचः। अनुनेतुं सहस्रांशुं न शशाक मनस्विनी ।। | 3-308-1a 3-308-1b |
न शशाक यदा बाला प्रत्याख्यातुं तमोनुदम्। भीता शापात्ततो राजन्दध्यौ दीर्घमथान्तरम् ।। | 3-308-2a 3-308-2b |
अनागसः पितुः शापो ब्राह्मणस्य तथैव च। मन्निमित्तः कथं न स्यात्क्रुद्धादस्माद्विभावसोः ।। | 3-308-3a 3-308-3b |
बालेनापि सता मोहाद्भृशं सापह्नवान्यपि। नाऽभ्यासादयितव्यानि तेजांसि च तपांसि च।। | 3-308-4a 3-308-4b |
साहमद्य भृशं भीता गृहीत्वा च करे भृशम्। कथं त्वकार्यं कुर्यां वै प्रदानं ह्यात्मनः स्वयम् ।। | 3-308-5a 3-308-5b |
सा वै शापपरित्रस्ता बहु चिन्तयती हृदा। मोहेनाभिपरीताङ्गी स्मयमाना पुनःपुनः ।। | 3-308-6a 3-308-6b |
तं देवमब्रवीद्भीता बन्धूनां राजसत्तम। व्रीडाविह्वलया वाचा शापत्रस्ता विशांपते ।। | 3-308-7a 3-308-7b |
पिता मे ध्रियते देव माता चान्ये च बान्धवाः। न तेषु ध्रियमाणएषु विदिलोपो भवेदयम् ।। | 3-308-8a 3-308-8b |
त्वया तु संगमो देव यदि स्याद्विधिवर्जितः। मन्निमित्तं कुलस्यास्य लोकेऽकीर्तिर्न संशयः ।। | 3-308-9a 3-308-9b |
अथवा धर्ममेतं त्वं मन्यसे तपतांवर। ऋते प्रदानाद्बन्धुभ्यस्तव कामं करोम्यहम् ।। | 3-308-10a 3-308-10b |
आत्मप्रदानं दुर्धर्ष तव कृत्वासती त्वहम्। त्वयि धर्मो यशश्चैव कीर्तिरायुश्च देहिनाम् ।। | 3-308-11a 3-308-11b |
सूर्य उवाच। | 3-308-12x |
न ते पिता न ते माता गुरवो वा शुचिस्मिते। प्रभवन्ति प्रदाने ते भद्रं ते शृणु मे वचः ।। | 3-308-12a 3-308-12b |
सर्वान्कामयते यस्मात्कनेर्धातोश्च भामिनि। तस्मात्कन्येह सुश्रोणी स्वतन्त्रा वरवर्णिनि ।। | 3-308-13a 3-308-13b |
नाधर्मश्चरितः कश्चित्त्वया भवति भामिनि। अधर्मंकुत एवाहं वरेयं लोककाम्यया ।। | 3-308-14a 3-308-14b |
अनावृताः स्त्रियः सर्वा नराश्च वरवर्णिनि। स्वभाव एष लोकानां विकारोऽन्य इति स्मृतः ।। | 3-308-15a 3-308-15b |
सा मया सहसंगम्य पुनः कन्या भविष्यसि। पुत्रश्च ते महावाद्दुर्भविष्यति न संशयः ।। | 3-308-16a 3-308-16b |
कुन्त्युवाच। | 3-308-17x |
यदि पुत्रो मम भवेत्त्वत्तः सर्वतमोनुद। कुण्डली कवची शूरो महाबाहुर्महाबलः। `अस्तु मे सङ्गमो देव अनेन समयेन ते' ।। | 3-308-17a 3-308-17b 3-308-17c |
सूर्य उवाच। | 3-308-18x |
भविष्यति महाबाहुः कुण्डली दिव्यवर्मभृत्। उभयं चामृतमयं तस् भद्रे भविष्यति ।। | 3-308-18a 3-308-18b |
कुन्त्युवाच। | 3-308-19x |
यद्यतदमृतादस्ति कुण्डले वर्म चोत्तमम्। मम पुत्रस्य यं वै त्वं मत्त उत्पादयिष्यसि ।। | 3-308-19a 3-308-19b |
अस्तु मे सङ्गमो देव यथोक्तं भगवंस्त्वया। त्वद्वीर्यरूपसत्वौजा धऱ्मयुक्तो भवेत्स च ।। | 3-308-20a 3-308-20b |
सूर्य उवाच। | 3-308-21x |
अदित्या कुण्डले राज्ञि दत्ते मे मत्तकाशिनि। तस्मै दास्यामि वामोरु वर्म चैवेदमुत्तमम् ।। | 3-308-21a 3-308-21b |
वैशंपायन उवाच। | 3-308-22x |
परमं भगवन्नेवं सङ्गमिष्ये त्वया सह। यदि पुत्रो भवेदेवं यथा वदसि गोपते ।। | 3-308-22a 3-308-22b |
वैशंपायन उवाच। | 3-308-23x |
तथेत्युक्त्वा तु तां कुन्तीमाविवेश विहंगमः। स्वर्भानुशत्रुर्योगात्मा नाभ्यां पस्पर्श चैव ताम् ।। | 3-308-23a 3-308-23b |
तत सा विह्वलेवासीत्कन्या सूरय्स् तेजसा। पपात चाथ सा देवी शयने मूढचेतना ।। | 3-308-24a 3-308-24b |
सूर्य उवाच। | 3-308-25x |
साधयिष्यामि सुश्रोणि पुत्रं वै जनयिष्यसि। सर्वशस्त्रभृतांश्रेष्ठं कन्या चैव भविष्यसि ।। | 3-308-25a 3-308-25b |
वैशंपायन उवाच। | 3-308-26x |
ततः सा व्रीडिता बाला तदा सूर्यमथाब्रवीत्। एवमस्त्विति राजेन्द्रप्रस्थितं भूरिवर्चसम् ।। | 3-308-26a 3-308-26b |
इतिस्मोक्ता कुन्तिराजात्मजा सा विवस्वन्तं याचमाना सलज्जा। तस्मिन्पुण्ये शयनीये पपात मोहाविष्टा वेपमाना लतेव ।। | 3-308-27a 3-308-27b 3-308-27c 3-308-27d |
तिग्मांशुस्तां तेजसा मोहयित्वा योगेनाविश्यात्मसंस्थां चकार। न चैवैनां दूषयामास भानुः संज्ञां लेभे भूय एवात बाला ।। | 3-308-28a 3-308-28b 3-308-28c 3-308-28d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि कुण्डलाहरणपर्वणि रअष्टाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।। 308 ।। |
3-308-2 दध्यौ चिन्तितवती। अन्तरं कालम् ।। 3-308-4 बालेनाल्पवयसापि सता साधुना मोहाच्चित्तपारवश्यात् तेजासि सूर्यादीनि तपांसि दुर्वासआदीनि नाभ्यासादयितव्यान्यत्यन्तं प्रत्यासत्तिविषयाणि न कर्तव्यानि ।। 3-308-7 बन्धूनां बन्धुभ्य इत्यर्थः ।। 3-308-8 ध्रियते जीवति ।। 3-308-12 प्रभवन्ति स्वाम्यमर्हन्ति ।। 3-308-13 कामयते सर्वानिति कन्येति कन्याशब्दनिर्वचनम् ।। 3-308-14 तत्रहेतुः लोककाम्यया लोकप्रियया कामवत्तया ।। 3-308-15 अन्यो विवाहनियमादिर्विकारः ।। 3-308-18 अमृतमयं सहजं वर्म ।। 3-308-26 प्रस्थितं संगमायोपक्रन्तम् 3-308-28 आत्मसंस्थांवचनवशाम्। एनां न दूषयामास। कन्यात्वस्थापनेनेति शेषः ।।
आरण्यकपर्व-307 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-309 |