महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-097
दिखावट
← आरण्यकपर्व-096 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-097 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-098 → |
इल्वलेनागस्त्याय मेषीकृतवातापिमांसपरिवेषणम् ।। 1 ।। इल्वलेन वातापेराह्नानेऽगस्त्येन स्वेन तस्य जीर्णीकरणोक्ति ।। 2 ।। भीतेनेल्वलेनागस्त्याय धनदानपूर्वकं तज्जिधांसया तदनुगमनम् ।। 3 ।। अगस्त्येन हुङ्कारेणेल्वलस्य भस्मीकरणपूर्वकं लोपामुद्रायै बहुधनदानेन तस्यां गुणवदेकापत्योत्पादनम् ।। 4 ।।
लोमश उवाच। | 3-97-1x |
इल्वलस्तान्विदित्वा तु महर्षिसहितान्नृपान्। उपस्थितान्सहामात्यो विषयान्ते ह्यपूजयत् ।। | 3-97-1a 3-97-1b |
तेषां ततोऽसुरश्रेष्ठस्त्वातिथ्यमकरोत्तदा। सुसंस्कृतेन कौरव्य भ्रात्रा वातापिना तदा ।। | 3-97-2a 3-97-2b |
ततो राजर्षयः सर्वे विषण्णा गतचेतसः। वातापिं संस्कृतं दृष्ट्वा मेषभूतं महासुरम् ।। | 3-97-3a 3-97-3b |
अथाब्रवीदगस्त्यस्तान्राजर्षीनृषिसत्तमः। विषादो वो न कर्तव्यो ह्यहं भोक्ष्ये महासुरम् ।। | 3-97-4a 3-97-4b |
धुर्यासनमथासाद्य निषसाद महानृषिः। तं पर्यवेषद्दैत्येन्द्र इल्वलः प्रहसन्निव ।। | 3-97-5a 3-97-5b |
अगस्त्य एव कृत्स्नं तु वातापिं बुभुजे ततः। `बह्वन्नाशापि ते मेऽस्तीत्यवदद्भक्षयन्स्वयम्' ।। | 3-97-6a 3-97-6b |
भुक्तवत्यसुरोऽह्वानमकरोत्तस्य चेल्वलः। `वातापे प्रतिबुध्यस्व दर्शयन्बलतेजसी। तपसा दुर्जयो यावदेष त्वां नातिवर्तते ।। | 3-97-7a 3-97-7b 3-97-7c |
ततस्तस्योदरं भेत्तुं वातापिर्वेगमाहरत्। तमबुध्यत तेजस्वी कुम्भयोनिर्महातपाः ।। | 3-97-8a 3-97-8b |
स वीर्यात्तपसोग्रस्तु ननर्द भगवानृषिः। एष जीर्णोसि वातापे मया लोकस्य शान्तये ।। | 3-97-9a 3-97-9b |
इत्युक्त्वा स्वकराग्रेण उदरं समताडयत्। त्रिरेवं प्रतिसंरब्धस्तेजसा प्रज्वलन्निव'।। | 3-97-10a 3-97-10b |
ततो वायुः प्रादुरभूदधस्तस्य महात्मनः। शब्देन महता तात गर्जन्निव यथा घनः ।। | 3-97-11a 3-97-11b |
वातापे निष्क्रमस्वेति पुनः पुनरुवाच ह। तं प्रहस्याब्रवीद्राजन्नगस्त्यो मुनिसत्तमः। कुतो निष्क्रमितुं शक्तो मया जीर्णस्तु सोसुरः ।। | 3-97-12a 3-97-12b 3-97-12c |
इल्वलस्तु विषण्णोऽभूद्दृष्ट्वा जीर्णं महासुरम्। प्राञ्जलिश्च सहामात्यैरिदं वचनमब्रवीत्। किमर्थमुपयाताः स्थ ब्रूत किं करवाणि वः ।। | 3-97-13a 3-97-13b 3-97-13c |
प्रत्युवाच ततोऽगस्त्यः प्रहसन्निल्वलं तदा। ईशोस्यसुर विद्मस्त्वां वयं सर्वे धनेश्वरम् ।। | 3-97-14a 3-97-14b |
एते च नातिधनिनो धनाशा महती मम। यथाशक्त्यविहिंस्यान्यान्संविभागं प्रयच्छ नः ।। | 3-97-15a 3-97-15b |
ततोऽवमत्य तमृषिमिल्वलो वाक्यमब्रवीत्। दित्सितं यदि वेत्सि त्वंततो दास्यामि ते वसु ।। | 3-97-16a 3-97-16b |
अगस्त्य उवाच। | 3-97-17x |
गवां दशसहस्राणि राज्ञामेकैकशोऽसुर। तावदेव सुवर्णस्य दित्सितं ते महासुर ।। | 3-97-17a 3-97-17b |
मह्यं ततो वै द्विगुणं रथश्चैव हिरण्मयः। मनोजवौ वाजिनौ च दित्सितं ते महासुर ।। | 3-97-18a 3-97-18b |
`लोमश उवाच। | 3-97-19x |
उल्वलस्तु मुनिं प्राह सर्वमस्ति यथाऽऽत्थ माम्। सर्वमेतत्प्रदास्यामि हिरण्यं गाश्च यद्धनम्। रथं तु यदवोचो मां नैतं विद्म हिरण्मयम् ।। | 3-97-19a 3-97-19b 3-97-19c |
आगस्त्य उवाच। | 3-97-20x |
न मे वागनृता काचिदुक्तपूर्वा महाऽसुर। विज्ञायतां रथः साधु व्यक्तमस्ति हिरण्मयः ।। | 3-97-20a 3-97-20b |
लोमश उवाच। | 3-97-21x |
विज्ञायमानः स रथः कौन्तेयासीद्धिरण्मयः'। ततः प्रव्यथितो दैत्यो ददावभ्यधिकं वसु ।। | 3-97-21a 3-97-21b |
विवाजी च सुवाजी च तस्मिन्युक्तौ रथे हयौ। ऊहतुः स वसूनाशु तावगस्त्याश्रमं प्रति। सर्वान्राज्ञः सहागस्त्यान्निमेषादिव भारत ।। | 3-97-22a 3-97-22b 3-97-22c |
`इल्वलस्त्वनुगम्यैनमगस्त्यं हन्तुमैच्छत। भस्म चक्रे महातेजा हुङ्कारेण महाऽसुरम्' ।। | 3-97-23a 3-97-23b |
अगस्त्येनाभ्यनुज्ञाता जग्मू राजर्षयस्तदा। कृतवांश् मुनिः सर्वं लोपामुद्राचिकीर्षितम् ।। | 3-97-24a 3-97-24b |
लोपामुद्रोवाच। | 3-97-25x |
कृतवानसि तत्सर्वं भगवन्मम काङ्क्षितम्। उत्पादय सकृन्मह्यमपत्यं वीर्यवत्तरम् ।। | 3-97-25a 3-97-25b |
अगस्त्य उवाच। | 3-97-26x |
तुष्टोऽहमस्मि कल्याणि तव वृत्तेन शोभने। विचारणामपत्ये तु तव वक्ष्यामि तां शृणु ।। | 3-97-26a 3-97-26b |
सहस्रं तेऽस्तु पुत्राणआं शतं वा तत्समं तव। दश वा शततुल्याः स्युरेको वाऽपि सहस्रजित् ।। | 3-97-27a 3-97-27b |
लोपामुद्रोवाच। | 3-97-28x |
सहस्रसंमितः पुत्र एकोप्यस्तु तपोधन। एको हि बहुभिः श्रेयान्विद्वान्साधुरसाधुभिः ।। | 3-97-28a 3-97-28b |
स तथेति प्रतिज्ञाय तया समगमन्मुनिः। समये समशीलिन्या श्रद्धावान्श्रद्दधानया ।। | 3-97-29a 3-97-29b |
तत आधाय गर्भं तमगमद्वनमेव सः। तस्मिन्वनगते गर्भो ववृधे सप्त शारदान् ।। | 3-97-30a 3-97-30b |
सप्तमेऽब्दे गते चापि प्राच्यवत्स महाकविः। ज्वलन्निव प्रभावेन दृढस्युर्नाम भारत ।। | 3-97-31a 3-97-31b |
साङ्गोपनिषदान्वेदाञ्जपन्नेव महातपाः। तस्य पुत्रोऽभवदृषेः स तेजस्वी महानृषिः ।। | 3-97-32a 3-97-32b |
स बाल एवतेजस्वी पितुस्तस्य निवेशने। इध्मानां भारमाजह्रे इध्मवाहस्ततोऽभवत् ।। | 3-97-33a 3-97-33b |
तथायुक्तं तु तं दृष्ट्वा मुमुदे स मुनिस्तदा। एवं स जनयामास भारतापत्यमुत्तमम्। लेभिरे पितरश्चास्य लोकान्राजन्यथेप्सितान् ।। | 3-97-34a 3-97-34b 3-97-34c |
अगस्त्यस्याश्रमश्चायमत ऊर्ध्वं विशांपते। ख्यातो भुवि महाराज तेजसा तस्य धीमतः ।। | 3-97-35a 3-97-35b |
प्राह्लादिरेवं वातापिर्ब्रह्मघ्नो दुष्टचेतनः। एवं विनाशितो राजन्नगस्त्येन महात्मना। तस्यायमाश्रमो राजन्रमणीयैर्गुणैर्युतः ।। | 3-97-36a 3-97-36b 3-97-36c |
एषा भागीरथी पुण्या देवगन्धर्वसेविता। वातेरिता पताकेव विराजति नभस्तले ।। | 3-97-37a 3-97-37b |
प्रतार्यमाणा कूटेषु यथा निम्नेषु नित्यशः। शिलातलेषु संत्रस्ता पन्नगेन्द्रवधूरिव ।। | 3-97-38a 3-97-38b |
दक्षिणां वै दिशं सर्वां प्लावयन्ती च मातृवत्। पूर्वं शंभोर्जटाभ्रष्टा समुद्रमहिषी प्रिया। अस्यां नद्यां मुपुण्यायां यथेष्टमवगाह्यताम् ।। | 3-97-39a 3-97-39b 3-97-39c |
3-97-16 ईप्सितं यदिह ब्रूहि तद्धि दास्यामि ते वसु इति क. पाठः दित्सितं मया युष्मभ्यं दातुमिष्टम् ।। 3-97-31 प्रच्यवदुदरान्निर्गतोऽभवदित्यर्थः ।। 3-97-34 युक्तमध्ययनेध्यवाहनादौ ।। 3-97-36 प्राह्लादिः प्रह्नादगोत्रोद्भवः ।।
आरण्यकपर्व-096 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-098 |