महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-178
← आरण्यकपर्व-177 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-178 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-179 → |
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
अर्जुनसमागमानन्तरं युधिष्ठिरेण गन्धमादनादवतरणाध्यवसायः ।। 1 ।।
लोमशेन पाण्डवान्प्रति जयाशीर्वचनपूर्वकं स्वर्गंप्रति गमनम् ।। 2 ।।
जनमेजय उवाच। | 3-178-1x |
तस्मिन्कृतास्त्रे रथिनां प्रवीरे। प्रत्यागते भवनाद्वृत्रहन्तुः। अतः परं किमकुर्वन्त पार्थाः समेत्य शूरेण धनंजयेन ।। | 3-178-1a 3-178-1b 3-178-1c 3-178-1d |
वैशंपायन उवाच। | 3-178-2x |
वनेषु तेष्वेव तु ते नरेन्द्राः सहार्जुनेनेन्द्रसमेन वीराः। तस्मिंश्च शैलप्रवरे सुरम्ये धनेश्वराक्रीडगता विजह्रुः ।। | 3-178-2a 3-178-2b 3-178-2c 3-178-2d |
वेश्मानि तान्यप्रतिमानि पश्यन् क्रीडाश्च नानाद्रुमसन्निबद्धाः। चचार धन्वी बहुधा नरेन्द्रः सोऽस्त्रेषु यत्तः सततं किरीटी ।। | 3-178-3a 3-178-3b 3-178-3c 3-178-3d |
अवाप्य वासं नरदेवपुत्राः प्रसादजं वैश्रवणस्य राज्ञः। न प्राणिनां ते स्पृहयन्ति राज- ञ्शिवश् कालः स बभूव तेषाम् ।। | 3-178-4a 3-178-4b 3-178-4c 3-178-4d |
समेत्य पार्थेन यथैकरात्र- मूषुः समास्तत्रतथा चतस्रः। पूर्वाश्च षट् ता दश पाण्डवानां शिवा बभूवुर्वसतां वनेषु ।। | 3-178-5a 3-178-5b 3-178-5c 3-178-5d |
ततोऽब्रवीद्वायुसुतस्तरस्वी जिष्णुश्च राजानमुपोपविश्य। यमौ च वीरौ सुरराजकल्पा- वेकान्तमास्थाय हितं प्रियं च ।। | 3-178-6a 3-178-6b 3-178-6c 3-178-6d |
तव प्रतिज्ञां कुरुराज सत्यां चिकीर्षमाणास्त्वदनुप्रियं च। ततो न गच्छाम वनान्यपास्य सुयोधनं सानुचरं निहन्तुम् ।। | 3-178-7a 3-178-7b 3-178-7c 3-178-7d |
एकादशं वर्षमिदं वसामः सुयोधनेनात्तसुखाः सुखार्हाः। तं वञ्चयित्वाऽधमबुद्धिशील- मज्ञातवासं सुखमाप्नुयाम ।। | 3-178-8a 3-178-8b 3-178-8c 3-178-8d |
तवाज्ञया पार्थिव निर्विशङ्का विहाय मानं विचरामो वनानि। समीपवासेन विलोभितास्ते ज्ञास्यन्ति नास्मानपकृष्टदेशान् ।। | 3-178-9a 3-178-9b 3-178-9c 3-178-9d |
संवत्सरं तत्र विहृत्य गूढं नराधमं तं सुखमुद्धरेम। निर्यात्य वैरं सफलं सपुष्पं तस्मै नरेन्द्राधमपूरुषाय ।। | 3-178-10a 3-178-10b 3-178-10c 3-178-10d |
सुयोधनायानुचरैर्वृताय ततो महीं प्राप्नुहि धर्मराज। स्वर्गोपमं देशमिमं चरद्भिः शक्यो विहन्तुं नरदेव शोकः ।। | 3-178-11a 3-178-11b 3-178-11c 3-178-11d |
कीर्तिस्तु ते भारत पुण्यगन्धा नश्येद्धि लोकेषु चराचरेषु। तत्प्राप्य राज्यंकुरुपुङ्गवानां शक्यं महत्प्राप्तुमथ क्रियाश्च ।। | 3-178-12a 3-178-12b 3-178-12c 3-178-12d |
इदं तु शक्यं सततं नरेन्द्र प्राप्तुं त्वया यल्लभसे कुबेरात्। कुरुष्व बुद्धिं द्विषतां वधाय कृतागसां भारत निग्रहे च ।। | 3-178-13a 3-178-13b 3-178-13c 3-178-13d |
तेजस्तवोग्रं न सहेत राजन् समेत्य साक्षादपि वज्रपाणिः। न हि व्यथां जातु करिष्यतस्तौ समेत्य देवैरपि धर्मराज ।। | 3-178-14a 3-178-14b 3-178-14c 3-178-14d |
तवार्थसिद्ध्यर्थमपि प्रवृत्तौ सुपर्णकेतुश्च शिनेश्च नप्ता। यथैव कृष्णोऽप्रतिमो बलेन तथैव राजन्स शिनिप्रवीरः ।। | 3-178-15a 3-178-15b 3-178-15c 3-178-15d |
तवार्थसिद्ध्यर्थमभिप्रपन्नो यथैव कृष्णः सह यादवैस्तैः। तथैव चेमौ नरदेववर्य यमौ च वीरौ कृतिनौ प्रयोगे ।। | 3-178-16a 3-178-16b 3-178-16c 3-178-16d |
त्वदर्थयोगप्रभवप्रधानाः शमं करिष्याम परान्समेत्य ।। | 3-178-17a 3-178-17b |
वैशंपायन उवाच | 3-178-18x |
ततस्तदाज्ञाय मतं महात्मा तेषां च धर्मस्य सुतो वरिष्ठः। प्रदक्षिणं स्थानमुपेत्य राजा पर्याक्रमद्वैश्रवणस्य राज्ञः ।। | 3-178-18a 3-178-18b 3-178-18c 3-178-18d |
संप्रार्थयामास नगेन्द्रवर्यम् ।।] | 3-178-19f |
समाप्तकर्मा सहितः सुहृद्भि- र्जित्वा सपत्नान्प्रतिलभ्य राज्यम्। शैलेन्द्र भूयस्तपसे जितात्मा द्रष्टा तवास्मीति मतिं चकार ।। | 3-178-20a 3-178-20b 3-178-20c 3-178-20d |
वृतश्च सर्वैरनुजैर्द्विजैश्च तेनैव मार्गेण पुनर्निवृत्तः। उवाह चैनान्गणशस्तथैव घटोत्कचः पर्वतनिर्झरेषु ।। | 3-178-21a 3-178-21b 3-178-21c 3-178-21d |
तान्प्रस्थितान्प्रीतमना महर्षिः पितेव पुत्राननुशिष्य सर्वान्। स लोमशो दिवमेवोर्जितश्री- र्जगाम तेषां विजयं तदोक्त्वा ।। | 3-178-22a 3-178-22b 3-178-22c 3-178-22d |
तेनार्ष्टिषेणेन तथानुशिष्टा- स्तीर्तानि रम्याणि तपोवनानि। महान्ति चान्यानि सरांसि पार्थाः कसंपश्यमानाः प्रययुर्नराग्र्याः ।। | 3-178-23a 3-178-23b 3-178-23c 3-178-23d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि आजगरपर्वणि अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 178 ।। |
3-178-1 वृत्रहन्तुरिन्द्रस्य ।। 3-178-2 आक्रीडं उद्यानम् ।। 3-178-4 वासं स्थानम्। प्राणिनां भूमिस्तानामैश्वर्यमिति शेषः ।। 3-178-5 पूर्वाश् षट् समाः ।। 3-178-9 अपकृष्टदेशान् दूरस्थान् न ज्ञास्यन्ति अपितु समीपस्थानेव ।। 3-178-10 निर्यात्य प्रत्यर्प्य। अपकारिणेऽपकारं कृत्वेत्यर्थः। फलं राज्यप्राप्तिः। पुष्पं शत्रुवधः ।। 3-178-13 निग्रहे च बन्धने वा। भ्रातृत्वाद्वधेऽप्रवृत्तिश्चेदिति भावः ।। 3-178-14 समेत्य युद्धं प्राप्य ।। 3-178-15 सुपर्णकेतुः कृष्णः। शिनेर्नप्ता सात्यकिः। एतयोर्वीर्यं हितकारित्वं चाह। तथैवेति। तथैव कृष्णोऽप्रतिमो बलेन तथैव चाहं नरदेव वर्य। इति झ. पाठः। तत्र कृष्णोऽर्जुनः। अहं भीमसेन इत्यर्थः ।। 3-178-16 प्रयोगेऽस्त्रप्रयोगे कृतिनौ कुशलौ ।। 3-178-17 त्वदर्थयोगप्रभवप्रधानाः तव अर्थयोगो धनलाभः प्रभव ऐश्वर्योत्कर्षस्तद्द्वयं प्रधानं तेषां ते तथा ।। 3-178-20 इति प्रार्थयामासेति पूर्वेण संबन्धः। मतिं चकार। गमने इति शेषः ।।
आरण्यकपर्व-177 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-179 |