महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-069
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ऋतुपर्णेन दमयन्तीस्वयंवराय बाहुकं सारत्येनियोज्य वार्ष्णेयेन सह विदर्भान्प्रति प्रस्थानम् ।। 1 ।।
वार्ष्णेयेन बाहुके सारथ्यकौशलेन नलत्वसंभावना ।। 2 ।।
बृहदश्व उवाच। | 3-69-1x |
श्रुत्वा वचः सुदेवस्य ऋतुपर्णो नराधिपः। `सारथीन्स समानीय वार्ष्णेयप्रभृतीन्नृपः। कथयामास यद्वृत्तं ब्राह्मणेन श्रुतं तथा ।। | 3-69-1a 3-69-1b 3-69-1c |
बाहुकं च समाहूय दमयन्त्याः स्वयंवरम्'। सान्त्यञ्श्र्लक्ष्णया वाचा बाहुकं प्रत्यभाषत ।। | 3-69-2a 3-69-2b |
विदर्भान्यातुमिच्छामि दमयन्त्याः स्वयंवरम्। एकाह्ना हयतत्त्वज्ञ मन्यसे यदि बाहुक ।। | 3-69-3a 3-69-3b |
एवमुक्तस्य कौन्तेय तेन राज्ञा नलस्य ह। व्यदीर्यत मनो दुःखात्प्रदध्यौ च महामनाः ।। | 3-69-4a 3-69-4b |
दमयन्ती भवेदेवं किंनु दुःखेन मोहिता। अस्मदर्थे भवेद्बाऽयमुपायश्चिन्तितो महान् ।। | 3-69-5a 3-69-5b |
नृशंसं बत वैदर्भी कर्तुकामा तपस्विनी। यया क्षुद्रेण निकृताकृपणा पापबुद्धिना। स्त्रीस्वभावश्चलो लोके मम दोषश्च दारुणः ।। | 3-69-6a 3-69-6b 3-69-6c |
मम शोकेन संविग्ना नैराश्यात्तनुमध्यमा। नैवं सा कर्हिचित्कुर्यात्सापत्या च विशेषतः ।। | 3-69-7a 3-69-7b |
यदत्र सत्यं वाऽसत्यं गत्वा वेत्स्यामि निश्चयम्। ऋतुपर्णस्य वै काममात्मार्थं च करोम्यहम् ।। | 3-69-8a 3-69-8b |
इति निश्चित्य मनसा बाहुको दीनमानसः। कृतालुरुवाचेदमृतुपर्णं जनाधिपम् ।। | 3-69-9a 3-69-9b |
प्रतिजानामि ते वाक्यं गमिष्यामि नराधिप। एकाह्ना पुरुषव्याघ्र विदर्भनगरीं नृप। `तत्रादित्योदये काले श्वो विदर्भान्गमिष्यसि ।। | 3-69-10a 3-69-10b 3-69-10c |
एवमुक्तोऽब्रवीद्राजा बाहुकं प्रहसन्निव। किं ते कामं करोम्यद्य तुष्टोऽस्मि तव बाहुक ।। | 3-69-11a 3-69-11b |
बाहुक उवाच। | 3-69-12x |
यावद्यानमिदं सज्जमृतुपर्ण करोम्यहम्' ।। | 3-69-12a |
ततः परीक्षामश्वानां चक्रे राजन्स बाहुकः। अश्वशालामुपागम्य भागस्वरिनृपाज्ञया ।। | 3-69-13a 3-69-13b |
स त्वर्यमाणो बहुश ऋतुपर्णन बाहुकः। अश्वाञ्जिज्ञासमानो वै विचार्य च पुनःपुनः। अध्यगच्छत्कृशानश्वान्समर्थानध्वनि क्षमान् ।। | 3-69-14a 3-69-14b 3-69-14c |
तेजोबलसमायुक्तान्कुलशीलसमन्वितान्। वर्जिताँल्लक्षणैर्हीनैः पृथुप्रोथान्महाहनून् ।। | 3-69-15a 3-69-15b |
शुद्धान्दशभिरावर्तैः सिन्धुजान्वातरंहसः। `दृश्यमानान्कृशानङ्गैर्जवेनाप्रतिमान्पथि' ।। | 3-69-16a 3-69-16b |
तान्दृष्ट्वा दुर्बलान्नाजा प्राह कोपसमन्वितः। किमिदं प्रार्थितं कर्तुं प्रलब्धव्या न ते वचम् ।। | 3-69-17a 3-69-17b |
कथमल्पबलप्राणा वक्ष्यन्तीमे हया रथम्। महानध्वा स चैकाह्ना गन्तव्यः कथमीदृशैः ।। | 3-69-18a 3-69-18b |
बाहुक उवाच। | 3-69-19x |
[एको ललाटे द्वे मूर्ध्नि द्वौद्वौ पार्श्वोपपार्श्वयोः। द्वौद्वौ वक्षसि विज्ञैर्यौ प्रयाणे चैक एव तु ।।] | 3-69-19a 3-69-19b |
एते हया गमिष्यन्ति विदर्भान्नात्र संशयः। यानन्यान्मन्यसे राजन्ब्रूहि तान्योजयामिते ।। | 3-69-20a 3-69-20b |
ऋतुपर्ण उवाच। | 3-69-21x |
त्वमेव हयतत्त्वज्ञः कुशलो ह्यसि बाहुक। यान्मन्यसे समर्थास्त्वं क्षिप्रं तानेव योजय ।। | 3-69-21a 3-69-21b |
ततः सदश्वांश्चतुरः कुलशीलसमन्वितान्। योजयामास कुशलो जवयुक्तान्रथे नलः ।। | 3-69-22a 3-69-22b |
ततो युक्तं रथं राजा समारोहत्त्वरान्वितः। अथ पर्यपतन्भूमौ जानुभिस्ते हयोत्तमाः ।। | 3-69-23a 3-69-23b |
ततो नरवरः श्रीमान्नलो राजा विशांपते। सान्त्वयामास तानश्वांस्तेजोबलसमन्वितान् ।। | 3-69-24a 3-69-24b |
रश्मिभिश्च समुद्यम्य नलो यातुमियेष सः। सूतमारोप्य वार्ष्णेयं जवमास्थाय वै परम् ।। | 3-69-25a 3-69-25b |
ते चोद्यमाना विधिवद्बाहुकेन हयोत्तमाः। समुत्पेतुरिवाकाशं रथिनं मोहयन्ति च ।। | 3-69-26a 3-69-26b |
तथा तु दृष्ट्वा तानश्वान्वहतो वातरंहसः। अयोध्याधिपतिः श्रीमान्विस्मयं परमं ययौ ।। | 3-69-27a 3-69-27b |
रथघोषं तु तं श्रुत्वा हयसंग्रहणं च तत्। वार्ष्णेयश्चिन्तयामास बाहुकस्य हयज्ञताम् ।। | 3-69-28a 3-69-28b |
किंनु स्यान्मातलिरयं देवराजस्य सारथिः। तथा तल्लक्षणं वीरे बाहुके दृश्यते महत् ।। | 3-69-29a 3-69-29b |
शालिहोत्रोऽथ किंतु स्याद्धयानां कुलतत्त्ववित्। मानुपं समनुप्राप्तो वपुः परमशोभनम् ।। | 3-69-30a 3-69-30b |
उताहोस्विद्भवेद्राजा नलः परपुरंजयः। सोयं नृपतिरायात इत्येवं समचिन्तयत् ।। | 3-69-31a 3-69-31b |
अथवाऽयंनलात्प्राप्तो विद्यां तामेव बाहुकः। तुल्यं हि लक्षये ज्ञानं बाहुकस्य नलस्य च ।। | 3-69-32a 3-69-32b |
अपिचेदं वयस्तुल्यं बाहुकस्य नलस्य च। नायं नलो महावीर्यस्तद्विद्यश्च भविष्यति ।। | 3-69-33a 3-69-33b |
प्रच्छन्ना हि महात्मानश्चरन्ति पृथिवीमिमाम्। दैवेन विधिना युक्ताः शास्त्रोक्तैश्च निरूपणैः ।। | 3-69-34a 3-69-34b |
भवेन्न मतिभेदो मे गात्रवैरूप्यता प्रति। प्रमाणात्परिहीनस्तु भवेदिति मतिर्मम ।। | 3-69-35a 3-69-35b |
वयःप्रमाणं तत्तुल्यं रूपेण तु विपर्ययः। नलं सर्वगुणैर्युक्तं मन्ये बाहुकमन्ततः ।। | 3-69-36a 3-69-36b |
एवं विचार्य बहुशो वार्ष्णोयः पर्यचिन्तयत्। हृदयेन महाराज पुण्यश्लोकस्य सारथिः ।। | 3-69-37a 3-69-37b |
ऋतुपर्णश्च राजेनद्रो बाहुकस्य हयज्ञताम्। चिन्तयन्मुमुदे राजा सहवार्ष्णेयसारथिः ।। | 3-69-38a 3-69-38b |
ऐकाग्र्यं च तथोत्साहं हयसंग्रहणं च तत्। कौशलं चापि संप्रेक्ष्य परां सुदमवाप ह ।। | 3-69-39a 3-69-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ।। 69 ।। |
3-69-7 सापत्या अपत्यसहिता ।। 3-69-15 प्रोथं नासिका। हनुः अधरं मुखफलकम् ।। 3-69-16 सिन्धुजान् सिन्धुदेशजान् ।। 3-69-18 बलं भारसहिष्णुता। प्राणो वेगवत्ता। वक्ष्यन्ति वह्नं करिष्यन्ति ।। 3-69-19 प्रयाणे पृष्ठभागे ।। 3-69-30 शालिहोत्रः अश्वशास्त्रप्रणेता आचार्यः ।। 3-69-34 विधिना युक्ताः संयुक्ताश्च विरूपणैरिति क. पाठः ।। 3-69-35 भवेत्तु मतिभेदो मे इति क. पाठः ।। 3-69-36 अन्ततः निर्णयेन ।।
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