महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-138
पठन सेटिंग्स
← आरण्यकपर्व-137 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-138 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-139 → |
रैभ्याश्रमे तत्स्नुषायाः परावसुभार्याया दर्शनाज्जातकामेन यवक्रीतेन एकान्ते बलात्कारेण तदुपभोगः ।। 1 ।। रुदत्यातया निवेदितवृत्तान्तेन रौभ्येण यवक्रीतहननाय ज्जटाभ्यां कृत्यारक्षसोः सर्ज्जनम् ।। 2 ।। कृत्यया रूपसंपदा संमोह्य कमण्डलुहरणए रात्रसाभिद्रावितेन यवक्रीतेन स्वपितुरग्निहोत्रगृहप्रवेशः ।। 3 ।। तदाऽन्धेन द्वारकशूद्रेण निवारितस्य यवक्रीतस्य राक्षसेन हननम् ।। 4 ।।
लोमश उवाच। | 3-138-1x |
चङ्क्रम्यमाणः स तदा यवक्रीरकुतोभयः। जगाम माधवे मासि रैभ्याश्रमपदं प्रति ।। | 3-138-1a 3-138-1b |
स ददर्शाश्रमे रम्ये पुष्पतद्रुमभूषिते। विचरन्तीं स्नुषां तस्य किन्नरीमिव भारत ।। | 3-138-2a 3-138-2b |
यवक्रीस्तामुवाचेदमुपतिष्ठस्व मामिनि। निर्लज्जो लज्जया युक्तां कामेन हृतचेतनः ।। | 3-138-3a 3-138-3b |
सा तस्य शीलमाज्ञाय तस्माच्छापाच्च बिभ्यती। तेजस्वितां च रैभ्यस् तथेत्युक्त्वा जगाम ह ।। | 3-138-4a 3-138-4b |
तत एकान्तमानीय लज्जयामास भारत। आजगाम तदा रैभ्यः स्वमाश्रममरिंदम ।। | 3-138-5a 3-138-5b |
रुदतीं च स्नुषां दृष्ट्वा भार्यामार्ता परावसोः। सान्त्वयञ्श्लक्ष्णया वाचा पर्यपृच्छद्युधिष्ठिर ।। | 3-138-6a 3-138-6b |
सा तस्मै सर्वमाचष्ट यवक्रीभाषितं शुभा। प्रत्युक्तं च यवक्रीतं प्रेक्षापूर्वं तथाऽऽत्मना ।। | 3-138-7a 3-138-7b |
शृण्वानस्यैव रैभ्यस्य यवक्रेस्तद्विचेष्टनम्। दहन्निव तदा चेतः क्रोधः समभवन्महान् ।। | 3-138-8a 3-138-8b |
स तदा मन्युनाऽऽविष्टस्तपस्वी कोपनो भृशम्। अवलुप्य जटामेकां जुहावाग्नौ सुसंस्कृते ।। | 3-138-9a 3-138-9b |
ततः समभवन्नारी तस्या रूपेण संमिता। अवलुप्यापरां चापि जुहावाग्नौ जटां पुनः ।। | 3-138-10a 3-138-10b |
ततः समभवद्रक्षो दीप्तास्यं घोरदर्शनम्। अब्रूतां तौ तदा रैभ्यं किं कार्यं करवामहे ।। | 3-138-11a 3-138-11b |
तावब्रवीदृषिः क्रुद्धो यवक्रीर्वध्यतामिति। जग्मतृस्तौ तथेत्युक्त्वा यवक्रीतजिघांसया ।। | 3-138-12a 3-138-12b |
ततस्तं समुपास्थाय कृत्या सृष्टा महात्मना। कमण्डलुं जहारास्य मोहयित्वा तु भारत ।। | 3-138-13a 3-138-13b |
उच्छिष्टं तु यवक्रीतमपकृष्टकमण्डलुम्। तत उद्यतशूलः स राक्षसः समुपाद्रवत् ।। | 3-138-14a 3-138-14b |
तमाद्रवन्तं संप्रेक्ष्य शूलहस्तं जिघांसया। यवक्रीः सहसोत्थाय प्राद्रवद्यत्रवै सरः ।। | 3-138-15a 3-138-15b |
जलहीनं सरो दृष्ट्वा यवक्रीस्त्वरितः पुनः। जगाम सरितः सर्वास्ताश्चाप्यासन्विशोषिताः ।। | 3-138-16a 3-138-16b |
स काल्यमानो घोरेण शूलहस्तेन रक्षसा। अग्निहोत्रे पितुर्भीतः सहसा प्रविवेश ह ।। | 3-138-17a 3-138-17b |
स वै प्रविशमानस्तु शुद्रेणान्धेन रक्षिणा। निगृहीतो बलाद्द्वारि सोऽवातिष्ठत पार्थिव ।। | 3-138-18a 3-138-18b |
निगृहीतं तु शूद्रेण यवक्रीतं स राक्षसः। ताडयामास शूलेन स भिन्नहृदयोऽपतत् ।। | 3-138-19a 3-138-19b |
यवक्रीतं स हत्वा तु राक्षसो रैभ्यमागमत्। अनुज्ञातस्तु रैभ्येण तया नार्या सहावसत् ।। | 3-138-20a 3-138-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि अष्टत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 138 ।। |
3-138-5 एकान्तमुन्नीय मज्जयामासेति झ. पाठः। तत्र एकान्तं उन्नीय एकान्ते कार्यं रतं समाप्य मज्जयामास संमुद्रे इत्यर्थः ।। 3-138-7 प्रत्युक्तं प्रत्याख्यातम्। मदुपरि बलात्कारं कृतवानित्युक्तवतीत्यर्थः ।। 3-138-10 नारी कृत्या ।। 3-138-17 काल्यमानः सर्वतो निषिध्यमानः अग्निहोत्रे अग्निहोत्रशालायाम् ।। 3-138-18 अवातिष्ठत बहिरेव ।।
आरण्यकपर्व-137 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-139 |