महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-141
पठन सेटिंग्स
← आरण्यकपर्व-140 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-141 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-142 → |
लोमशचोदनया युधिष्ठिरेण कैलासादिगिरिप्रवेशः ।। 1 ।।
लोमश उवाच। | 3-141-1x |
उशीरबीजं मैनाकं गिरिं श्वेतं च भारत। समतीतोऽसि कौन्तेय कालशैलं च पार्थिव ।। | 3-141-1a 3-141-1b |
एषा गङ्गा सप्तविधा राजते भरतर्षभ। स्थानं विरजसं पुण्यं यत्राग्निर्नित्यमिध्यते ।। | 3-141-2a 3-141-2b |
एतद्वै मानुषेणाद्य न शक्यं द्रष्टुमद्भुतम्। समाधिं कुरुताव्यग्रास्तीर्थान्येतानि द्रक्ष्यथ ।। | 3-141-3a 3-141-3b |
एतद्द्रक्ष्यसि देवानामाक्रीडं च रणाङ्कितम्। अतिक्रान्तोसि कौन्तेय कालशैलं च पर्वतम् ।। | 3-141-4a 3-141-4b |
श्वेतं गिरिं प्रवेक्ष्यामो मन्दरं चैव पर्वतम्। यत्र माणिवरो यक्षः कुबेरश्चैव यक्षराट् ।। | 3-141-5a 3-141-5b |
अष्टाशीतिसहस्राणि गन्धर्वाः शीघ्रगामिनः। तथा किंपुरुषा राजन्यक्षाश्चैव चतुर्गुणाः ।। | 3-141-6a 3-141-6b |
अनेकरूपसंस्थाना नानाप्रहरणाश्च ते। यक्षेन्द्रं मनुजश्रेष्ठ माणिभद्रमुपासते ।। | 3-141-7a 3-141-7b |
तेषामृद्धिरतीवात्र गतौ वायुसमाश्च ते। यक्षेन्द्रं मनुजश्रेष्ठ माणिभद्रमुपासते ।। | 3-141-8a 3-141-8b |
तैस्तात बलिभिर्गुप्ता यातुधानैश्च रक्षिताः। दुर्गमाः पर्वताः पार्थ समाधिं परमं कुरु ।। | 3-141-9a 3-141-9b |
कुबेरसचिवाश्चान्ये रौद्रा मैत्राश्च राक्षसाः। तैः समेष्याम कौन्तेय यत्तो विक्रमणे भव ।। | 3-141-10a 3-141-10b |
कैलासः पर्वतो राजन्पड्योजनशतोच्छ्रितः। यत्रदेवाः समायान्ति विशाला यत्र भारत ।। | 3-141-11a 3-141-11b |
असङ्ख्येयास्तु कौन्तेय यक्षराक्षसकिन्नराः। नागाः सुपर्णा गन्धर्वाः कुबेरसदनं प्रति ।। | 3-141-12a 3-141-12b |
तान्विगाहस्व पार्थाद्य तपसा च दमेन च। रक्ष्यमाणो मया राजन्भीमसेनबलेन च ।। | 3-141-13a 3-141-13b |
स्वस्ति ते वरुणो राजा यमश्च समितिंजयः। गङ्गा च यमुना चैव पर्वताश्च दिशन्तु ते ।। | 3-141-14a 3-141-14b |
मरुतश्च सहाश्विभ्यां सरितश्च सरांसि च। स्वस्ति देवासुरेभ्यश्च वसुभ्यश् महाद्युते ।। | 3-141-15a 3-141-15b |
इन्द्रस्य जाम्बूनदपर्वताद्वै शृणोमि घोषं तव देवि गङ्गे। गोपाययेमं सुभगे गिरिभ्यः सर्वाजमीढापचितं नरेन्द्रम् ।। | 3-141-16a 3-141-16b 3-141-16c 3-141-16d |
ददस्व शर्म प्रविविक्षतोऽस्य शैलानिमाञ्छैलसुते नृपस्य। `शिवप्रदा सर्वसरित्प्रधाने स भ्रातृकस्येह युधिष्ठिरस्य'। | 3-141-17a 3-141-17b 3-141-17c 3-141-17d |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-141-18x |
अपूर्वोऽयं संभ्रमो लोमशस्य कृष्णां च सर्वे रक्षत मा प्रमादः। देशो ह्ययं दुर्गतमो मतोऽस्य तस्मात्परं शौचमिहाचरध्वम् ।। | 3-141-18a 3-141-18b 3-141-18c 3-141-18d |
वैशंपायन उवाच। | 3-141-19x |
ततोऽब्रवीद्भीममुदारवीर्यं कृष्णां यत्तः पालय भीमसेन। शून्येऽर्जुनेऽसन्निहिते च तात त्वामेव कृष्णा भजते भयेषु ।। | 3-141-19a 3-141-19b 3-141-19c 3-141-19d |
ततो महात्मां स यमौ समेत्य मूर्धन्युपाघ्राय विमृज्यगात्रे। उवाच तौ बाष्पकलं स राजा मा बैष्टमागच्छतमप्रमत्तौ ।। | 3-141-20a 3-141-20b 3-141-20c 3-141-20d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 141 ।। |
3-141-1 कैलासं चापि पर्वतम् इति क. पाठः ।। 3-141-2 यत्राग्निर्नित्यमिध्यत इति त्रियोगिनारायणाख्यं हरिद्वारात् परतः स्थानमस्ति ।। 3-141-11 विशाला वदरी ।। 3-141-16 इन्द्रस्य इन्द्रसंबन्धिनः। जाम्बूनदं सुवर्णं तन्मयात्पर्वतान्मेरोः। आजमीढवंशे अपचितं पूजितं श्रेष्ठमित्यर्थः ।। 3-141-17 ददश्व देहि ।। 3-141-18 शौचं वाङ्यनःकायशुद्धिम् ।। 3-141-20 भैष्टमिति च्छेदः ।।
आरण्यकपर्व-140 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-142 |