महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-183
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स्वप्रश्नस्योत्तरदानतुष्टेनाजगररूपिणा नहुषेण युधिष्ठिरंप्रति स्वस्याजगरभावसंभवहेतुकथनपूर्वकं भीमं विमुच्य पुनः स्वर्गं प्रति गमनम् ।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 3-183-1x |
भवानेतादृशो लोके वेदवेदाङ्गपारगः। ब्रूहि किं कुर्वतः कर्म भवेद्गतिरनुत्तमा ।। 1 ।। | 3-183-1a 3-183-1b |
सर्प उवाच। | 3-183-2x |
पात्रे दत्त्वा प्रियाण्युक्त्वा सत्यमुक्त्वा च भारत। अहिंसानिरतः स्वर्गं गच्छेदिति मतिर्मम ।। | 3-183-2a 3-183-2b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-183-3x |
दानाद्वा सर्प सत्याद्वा किमतो गुरु दृश्यते। अहिंसाप्रिययोश्चैव गुरुलाघवमुच्यताम् ।। | 3-183-3a 3-183-3b |
सर्प उवाच। | 3-183-4x |
दानं च सत्यं तत्त्वं वा अहिंसा प्रियमेव च। एषां कार्यगरीयस्त्वाद्दृश्यते गुरुलाघवम् ।। | 3-183-4a 3-183-4b |
क्वचिद्दानप्रयोगाद्धि सत्यमेव विशिष्यते। सत्यवाक्याच्च राजेनद्र क्वचिद्दानं विशिष्यते ।। | 3-183-5a 3-183-5b |
एवमेव महेष्वास प्रियवाक्यान्महीपते। अहिंसा दृश्यते गुर्वी ततश्च प्रियमिष्यते ।। | 3-183-6a 3-183-6b |
एवमेतद्भवेद्राजन्कार्यापेक्षमनन्तरम्। यदभिप्रेतमन्यत्ते ब्रूहि यावद्ब्रवीम्यहम् ।। | 3-183-7a 3-183-7b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-183-8x |
कथं स्वर्गे गतिः सर्प कर्मणां च फलं ध्रुवम्। अशरीरस्य दृश्येत प्रब्रूहि विषयांश्च मे ।। | 3-183-8a 3-183-8b |
सर्प उवाच। | 3-183-9x |
तिस्रो वै गतयो राजन्परिदृष्टाः स्वकर्मभिः। मानुषं स्वर्गवासश्च तिर्यग्योनिश्च तत्रिधा ।। | 3-183-9a 3-183-9b |
तत्र वै मानुषाल्लोकाद्दानादिभिरनादिभिः। अहिंसार्थसमायुक्तैः कारणैः स्वर्गमश्नुते ।। | 3-183-10a 3-183-10b |
विपरीतैश्च राजेन्द्र कारणैर्मानुषो भवेत्। तिर्यग्योनिस्तथा तात विशेषश्चात्र वक्ष्यते ।। | 3-183-11a 3-183-11b |
क्रामक्रोधसमायुक्तो हिंसालोभसमनवितः। मनुष्यत्वात्परिब्रष्टस्तिर्यग्योनौ प्रसूयते ।। | 3-183-12a 3-183-12b |
तिर्यग्योन्याः पृथग्भावो मनुष्यार्थे विधीयते। गवादिभ्यस्तथाऽश्वेभ्यो देवत्वमपि दृश्यते ।। | 3-183-13a 3-183-13b |
सोयमेता गतीस्तात जन्तुश्चरति कार्यवान्। निम्ने महति चात्मानमवस्थाप्य च वै नृप ।। | 3-183-14a 3-183-14b |
जातो जातश्च बलवान्भुङ्क्ते नाम्नाऽथ देहवान्। फलार्थस्तात निष्पृक्तः प्रजालक्षणभावनः ।। | 3-183-15a 3-183-15b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-183-16x |
शब्दे स्पर्शे च रूपे च तथैव रसगन्धयोः। तस्याधिष्ठानमव्यग्रो ब्रूहि सर्प यथातथम् ।। | 3-183-16a 3-183-16b |
किं न गृह्णासि विषयान्युगपत्त्वं महामते। एतावदुच्यतां चोक्तं सर्वं पन्नगसत्तम ।। | 3-183-17a 3-183-17b |
सर्प उवाच। | 3-183-18x |
तदात्मद्रव्यमायुष्मन्देहसंश्रयणान्वितम्। करणाधिष्ठितं भोगानुपभुङ्क्ते यथाविथि ।। | 3-183-18a 3-183-18b |
ज्ञानं चैवात्र बुद्धिश्च कमश्च भरतर्षभ। तस्य भोगाधिकरणे करणानि निबोध मे ।। | 3-183-19a 3-183-19b |
मनसा तात पर्येति क्रमशो विषयानिमान्। विषयायतनत्वेन भूतात्मा क्षेत्रविष्ठितः ।। | 3-183-20a 3-183-20b |
तत्रचापि नरव्याघ्र मनो जन्तोर्विधीयते। तस्माद्युगपदत्रास्य ग्रहणं नोपपद्यते ।। | 3-183-21a 3-183-21b |
स आत्मा पुरुषव्याघ्र भ्रुवोरन्तरमाश्रितः। बुद्धिं द्रव्येषु सृजति विविधेषु परावराम् ।। | 3-183-22a 3-183-22b |
बुद्धेरुत्तरकालं च वेदना दृश्यते बुधैः। एष वै राजशार्दूल विधिः क्षेत्रज्ञभावनः ।। | 3-183-23a 3-183-23b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-183-24x |
मनसश्चापि बुद्धेश्च ब्रूहि मे लक्षणं परम्। एतदध्यात्मविदुषां परं कार्यं विधीयते ।। | 3-183-24a 3-183-24b |
सर्प उवाच। | 3-183-25x |
बुद्धिरात्मानुगाऽतीव उत्पातेन विधीयते। तदाश्रिता हि सा ज्ञेया बुद्धिस्तस्यैषिणी भवेत् ।। | 3-183-25a 3-183-25b |
बुद्धिरुत्पद्यते कार्यान्मनस्तूत्पन्नमेव हि। बुद्धेर्गुणविधानेन मनस्तद्गुणवद्भवेत् ।। | 3-183-26a 3-183-26b |
एतद्विशेषणं तात मनोबुद्ध्योर्मयेरितम्। त्वमप्यत्राभिसंबुद्धः कथं वा मन्यसे स्वयम् ।। | 3-183-27a 3-183-27b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-183-28x |
अहो बुद्धिमतांश्रेष्ठ शुभा बुद्धिरियं तव। विदितं वेदितव्यं ते कस्मान्नहुष पृच्छसि ।। | 3-183-28a 3-183-28b |
सर्वज्ञं त्वां कथं मोह आविशत्स्वर्गवासिनम्। एवमद्भुतकर्माणमिति मे संशयो महान् ।। | 3-183-29a 3-183-29b |
सर्प उवाच। | 3-183-30x |
सुप्रज्ञमपि चेच्छूरमृद्धिर्मोहयते नरम्। वर्तमानः सुखे सर्वो नावैतीति मतिर्मम ।। | 3-183-30a 3-183-30b |
सोहमैश्वर्यमोहेन मदाविष्टो युधिष्ठिर। पतितः प्रतिसंबुद्धस्त्वां तु संबोधयाम्यहम् ।। | 3-183-31a 3-183-31b |
कृतंकार्यं महाराज त्वया मम परंतप। क्षीणः शाप सुकृच्छ्रो मे त्वया संभाष्य साधुना ।। | 3-183-32a 3-183-32b |
अहं हि दिवि दिव्येन विमानन चरन्पुरा। अभिमानेन मत्तः सन्कंचिन्नान्यमचिन्तयम् ।। | 3-183-33a 3-183-33b |
ब्रह्मर्षिदेघगन्धर्वयक्षराक्षसपन्नगाः। वरं मम प्रयच्छन्ति सर्वे त्रैलोक्यवासिनः ।। | 3-183-34a 3-183-34b |
चक्षुषा यं प्रपश्यामि प्राणिनं पृथिवीपते। तस्य तेजो हराम्याशु तद्धि दृष्टेर्बलं मम ।। | 3-183-35a 3-183-35b |
ब्रह्मर्षीणां सरस्रं हि उवाह शिबिकां मम। कस मामपनयो राजन्भ्रंशयामास वै श्रियः ।। | 3-183-36a 3-183-36b |
तत्र ह्यगस्त्यः पादेन वहन्स्पृष्टो महामुनिः। अगस्त्येन ततोस्म्युक्तो ध्वंस सर्पेति वैरुषा ।। | 3-183-37a 3-183-37b |
ततस्तस्माद्विमानाग्र्यात्प्रच्युतश्च्युतलक्षणः। प्रपतन्बुबुधेऽऽत्मानं व्यालीभूतमधोमुखम् ।। | 3-183-38a 3-183-38b |
अयाचं तमहं विप्रं शापस्यान्तो भवेदिति। प्रमादात्संप्रमूढस्य भगवन्क्षन्तुमर्हसि ।। | 3-183-39a 3-183-39b |
ततः स मामुवाचेदं प्रपतन्तं कृपानवितः। युधिष्ठिरो धर्मराजः शापात्त्वां मोक्षयिष्यति ।। | 3-183-40a 3-183-40b |
अभिमानस्य वै तस्य बलस्य च नराधिप। फले क्षीणे महाराज फलं पुण्यमवाप्स्यसि ।। | 3-183-41a 3-183-41b |
ततो मे विस्मयो जातस्तद्दृष्ट्वा तपसो बलम्। ब्रह्म च ब्राह्मणत्वं च येन त्वाऽहमचूचुदम् ।। | 3-183-42a 3-183-42b |
सत्यं दमस्तपो योगमहिंसा ज्ञाननित्यता। साधकानि सतां पुंसां न जातिर्नकुलं नृप ।। | 3-183-43a 3-183-43b |
अरिष्ट कएष ते भ्राता मुक्तो बीमो महाभुज। स्वस्ति तेऽस्तु महाराज गमिष्यामि दिवं पुनः ।। | 3-183-44a 3-183-44b |
`स चायं पुरुषव्याघ्र कालः पुण्य उपागतः। तदस्मात्कारणात्पार्थ कार्यं तन्मे महत्कृतम्' ।। | 3-183-45a 3-183-45b |
वैशंपायन उवाच। | 3-183-46x |
`ततस्तस्मिन्मुहूर्ते तु विमानं कामगामि वै। अवपातेन महता तत्रावाप तदुत्तमम्' ।। | 3-183-46a 3-183-46b |
इत्युक्त्वाऽऽजगरं देहं मुक्त्वा स नहुषो नृपः। दिव्यं वपुः समास्थाय गतस्त्रिदिवमेव ह ।। | 3-183-47a 3-183-47b |
युधिष्ठिरोपि धर्मात्मा भ्रात्रा भीमेन संगतः। धौम्येन सहितः श्रीमानाश्रमं पुनरागमत् ।। | 3-183-48a 3-183-48b |
ततो द्विजेभ्यः सर्वेभ्यः समेतेभ्यो यथातथम्। कथयामास तत्सर्वं धर्मराजो युधिष्ठिरः ।। | 3-183-49a 3-183-49b |
तच्छ्रुत्वा ते द्विजाः सर्वे भ्रातरश्चास्य ते त्रयः। आसन्सुव्रीडिता राजन्द्रौपदी च यशस्विनी ।। | 3-183-50a 3-183-50b |
ते तु सर्वेद्विजश्रेष्ठाः पाण्डवानां हितेप्सया। मैवमित्यब्रुवन्भीमं गर्हयन्तोऽस् साहसम् ।। | 3-183-51a 3-183-51b |
पाण्डवास्तु भयान्पुक्तं प्रेक्ष्य भीमं महाबलम्। हर्षमाहारयांचक्रुर्विजह्रुश्च मुदा युताः ।। | 3-183-52a 3-183-52b |
3-183-4 गुरुलाघवं गौरवं लाघवं चेत्यर्थः ।।
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