महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-214
पठन सेटिंग्स
← आरण्यकपर्व-213 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-214 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-215 → |
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
धर्मव्याधेन कौशिकंप्रति प्राणिभिर्दुष्कृतसुकृतकरणप्रकारादिकधनपूर्वकं ब्राह्मणमाहात्म्यादिकथनम् ।। 1 ।।
मार्कण्येय उवाच। | 3-214-1x |
एवमुक्तस्तु विप्रेण धर्मव्याधो युधिष्ठिर। प्रत्युवाच यथा विप्रं तच्छृणुष्व नराधिप ।। | 3-214-1a 3-214-1b |
व्याध उवाच। | 3-214-2x |
विज्ञानार्थं मनुष्याणां मनः पूर्वं प्रवर्तते। तत्प्राप्य कामं भजतेक्रोधं च द्विजसत्तम ।। | 3-214-2a 3-214-2b |
ततस्तदर्थं यतते कर्म चारभते महत्। इष्टानां रूपगन्धानामभ्यासं च निषेवते ।। | 3-214-3a 3-214-3b |
ततो रागः प्रभवति द्वेषश्च तदनन्तरम्। ततो लोभः प्रभवति मोहश्च तदनन्तरम् ।। | 3-214-4a 3-214-4b |
तस् लोभाभिभूतस्य रागद्वेषहतस्य च। न धर्मे जायते बुद्धिर्व्याजाद्धर्मं करोति च ।। | 3-214-5a 3-214-5b |
व्याजेन चरते धर्ममर्थं व्याजेन रोचते। व्याजेन सिध्यमानेषु धनेषु द्विजसत्तम ।। | 3-214-6a 3-214-6b |
तत्रैव रमते बुद्धिस्ततः पापं चिकीर्षति। सुहृद्भिर्वार्यमाणश्च पण्डितैश्च द्विजोत्तम ।। | 3-214-7a 3-214-7b |
उत्तरं श्रुतिसंबद्धं ब्रवीत्यश्रुतियोजितम्। अधर्मस्त्रिविधस्तस्य वर्तते रागदोषजः ।। | 3-214-8a 3-214-8b |
पापं चिन्तयते चैव ब्रवीति च करोति च। तस्याधर्मप्रवृत्तस्य गुणा नश्यन्ति साधवः ।। | 3-214-9a 3-214-9b |
एकशीलाश्च मित्रत्वं भजन्ते पापकर्मिणः। स तेन दुःखमाप्नोति परत्र च विपद्यते ।। | 3-214-10a 3-214-10b |
पापात्मा भवति ह्येवं धर्मलाभं तु मे शृणु। यस्त्वेतान्प्रज्ञाया दोषान्पूर्वमेवानुपश्यति ।। | 3-214-11a 3-214-11b |
कुशलः सुखदुःखेषु सांधूंश्चाप्युपसेवते। तस्य साधुसमारम्भाद्बुद्ध्रिधर्मेषु राजते ।। | 3-214-12a 3-214-12b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-214-13x |
ब्रवीषि सूनृतंधर्मं यस्य वक्ता न विद्यते। दिव्यप्रभावः सुमहानृषिरेव मतोसि मे ।। | 3-214-13a 3-214-13b |
व्याध उवाच। | 3-214-14x |
ब्राह्मणा वै महाभागाः पितरोऽग्रभुजः सदा। तेषां सर्वात्मना कार्यं प्रियं लोके मनीषिणा ।। | 3-214-14a 3-214-14b |
यत्तेषां च प्रियं तत्ते वक्ष्यामि द्विजसत्तम। नमस्कृत्वा ब्राह्मणेभ्यो ब्राह्मीं विद्यां निबोध मे ।। | 3-214-15a 3-214-15b |
इदं विश्वं जगत्सर्वमजगच्चापि सर्वशः। महाभूतात्मकं ब्रह्मन्नातः परतरं भवेत् ।। | 3-214-16a 3-214-16b |
महाभूतानि खं वायुरग्निरापस्तथा च भूः। शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश् तद्गुणाः ।। | 3-214-17a 3-214-17b |
तेषामपि गुणाः सर्वे गुणवृत्तिः परस्परम्। पूर्वपूर्वगुणाः सर्वे क्रमशो गुणिषु त्रिषु ।। | 3-214-18a 3-214-18b |
षष्ठी तु चेतना नाम मन इत्यभिधीयते। सप्तमी तु भवेद्बुद्धिरहंकारस्ततः परम् ।। | 3-214-19a 3-214-19b |
इन्द्रियाणि च पञ्चात्मा रजः सत्वं तमस्तथा। इत्येष सप्तदशको राशिरव्यक्तसंज्ञकः ।। | 3-214-20a 3-214-20b |
सर्वैरिहेन्द्रियार्थैस्तु व्यक्ताव्यक्तैः सुसंवृतैः। चतुर्विंसक इत्येष व्यकत्वाव्यक्तमयो गुणः। एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। | 3-214-21a 3-214-21b 3-214-21c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 214 ।। |
आरण्यकपर्व-213 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-215 |