महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-163
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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कुबेरेण युधिष्ठिरानुशासनपूर्वकं स्वभवनगमनम् ।। 1 ।। कुबेराज्ञया राक्षसपूजितैर्युधिष्ठिरादिभिस्तद्रात्रौ तद्गृहे सुखवासः ।। 2 ।।
धनद उवाच। | 3-163-1x |
युधिष्ठिर धृतिर्दाक्ष्यं देशकालपराक्रमाः। लोकतन्त्रविधानानामेष पञ्चविधो विधिः ।। | 3-163-1a 3-163-1b |
धृतिमन्तश्च दक्षाश्च स्वे स्वे कर्मणि भारत। पराक्रमविधानज्ञा नराः कृतयुगेऽभवन् ।। | 3-163-2a 3-163-2b |
धृतिमान्देशकालज्ञः सर्वधर्मविधानवित्। क्षत्रियः क्षत्रियश्रेष्ठ शास्ति वै पृथिवीमनु ।। | 3-163-3a 3-163-3b |
य एवं वर्तते पार्थ पुरुषः सर्वकर्मसु। स लोके लभते वीर यशः प्रेत्य च सद्गतिम् ।। | 3-163-4a 3-163-4b |
देशकालान्तरप्रेप्सुः कृत्वा शक्रः पराक्रमम्। संप्राप्तस्त्रिदिवे राज्यं वृत्रहा वसुभिः सह ।। | 3-163-5a 3-163-5b |
[यस्तु केवलसंरम्भात्प्रपातं न निरीक्षते।] पापात्मा पापबुद्धिर्यः पापमेवानुवर्तते। कर्मणामविभागज्ञः प्रेत्य चेह विनश्यति ।। | 3-163-6a 3-163-6b 3-163-6c |
अकालज्ञः सुदुर्मेधाः कार्याणामविशेषवित्। वृथाचारसमारम्भः प्रेत्य चेह विनश्यति ।। | 3-163-7a 3-163-7b |
साहसे वर्तमानानां निकृतीनां दुरात्मनाम्। सर्वेषामर्थलिप्सूनां पापो भवति निश्चयः ।। | 3-163-8a 3-163-8b |
अधर्मज्ञोऽवलिप्तश्च बालबुद्धिरमर्षणः। निर्भयो भीमसेनोऽयं तं शाधि पुरुषर्षभ ।। | 3-163-9a 3-163-9b |
आर्ष्टिषेणस् राजर्षेः प्राप्य भूयस्त्वमाश्रमम्। तमिस्रां प्रथमां तत्र वीतशोकभयो वस ।। | 3-163-10a 3-163-10b |
अलकां सह गन्धर्वैर्यक्षैश्च सह किन्नरैः। `गमिष्यामि महाबाहो त्वं चापि बदरीं व्रज' ।। | 3-163-11a 3-163-11b |
मन्नियुक्ता मनुष्येन्द्र सर्वे च गिरिवासिनः। रक्षन्तु त्वां महाबाहो सहितं द्विजसत्तमैः ।। | 3-163-12a 3-163-12b |
साहसेषु च संतिष्ठंस्त्वया शैले वृकोदरः। वार्यतां साध्वयं राजंस्त्वया धर्मभृतांवर ।। | 3-163-13a 3-163-13b |
इतः परं च वो राजन्द्रक्ष्यन्ति वनगोचराः। उपश्थास्यन्ति वो राजन्रक्षिष्यन्ते च वः सदा ।। | 3-163-14a 3-163-14b |
तथैव चान्नपानानि स्वादूनि च बबूनि च। आहरिष्यन्ति मत्प्रेष्याः सदा वः पुरुषर्षभाः ।। | 3-163-15a 3-163-15b |
यथा जिष्णुर्महेन्द्रस्य यथा वायोर्वृकोदरः। धर्मस्य त्वं यथा तात योगोत्पन्नो निजः सुतः ।। | 3-163-16a 3-163-16b |
आत्मजावात्मसंपन्नौ यमौ चोभौ यथाश्विनोः। रक्ष्यास्तद्वन्ममापीह यूयं सर्वे युधिष्ठिर ।। | 3-163-17a 3-163-17b |
अर्थतत्त्वविधानज्ञः सर्वधर्मविधानवित्। भीमसेनादवरजः पल्गुनः कुशली दिवि ।। | 3-163-18a 3-163-18b |
याः काश्चन मता लोके स्वर्ग्याः परमसंपदः। जनमप्रभृति ताः सर्वाः स्थितास्तात धनंजये ।। | 3-163-19a 3-163-19b |
द्रमो दानं बलं बुद्धिर्ह्रीर्धृतिस्तेज उत्तमम्। एतान्यपि महासत्वे स्थितान्यमिततेजसि ।। | 3-163-20a 3-163-20b |
न मोहात्कुरुते जिष्णुः कर्म पाण्डव गर्हितम्। न पार्थस् मृषोक्तानि कथयन्ति नरा नृषु ।। | 3-163-21a 3-163-21b |
स देवपितृगन्धर्वैः कुरूणआं कीर्तिवर्धनः। आनीतः कुरुतेऽस्त्राणि शक्रसद्मनि भारत ।। | 3-163-22a 3-163-22b |
योऽसौ सर्वान्महीपालान्धर्मेण वशमानयत्। स शन्तनुर्महातेजाः पितुस्तव पितामहः ।। | 3-163-23a 3-163-23b |
प्रीयते पार्थ पार्थेन दिवि गाण्डीवधन्वना। सम्यक्वासौ महावीर्यः कुलधुर्य इव स्थितः ।। | 3-163-24a 3-163-24b |
पितॄन्देवानृषीन्विप्रान्पूजयित्वा महायशाः। सप्त मुख्यान्महामेधानाहरद्यमुनां प्रति ।। | 3-163-25a 3-163-25b |
अधिराजः स राजंस्त्वां शन्तनुः प्रपितामहः। स्वर्गजिच्छक्रलोकस्थः कुशलं परिपृच्छति ।। | 3-163-26a 3-163-26b |
वैशंपायन उवाच। | 3-163-27x |
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं धनदेन प्रभाषितम्। पाण्डवाश्च ततस्तेन बभूवः संप्रहर्षिताः ।। | 3-163-27a 3-163-27b |
ततः शक्तिं गदां खङ्गं धनुश्च भरतर्षभः। प्राध्वंकृत्वा नमश्चक्रे कुबेराय वृकोदरः ।। | 3-163-28a 3-163-28b |
ततोऽब्रवीद्धनाध्यक्षः शरण्यः शरणागतम्। मानहा भव शत्रूणां सुहृदां नन्दिवर्धनः ।। | 3-163-29a 3-163-29b |
`विभयस्ताप शैलाग्रे वसानः सह बन्धुभिः। सुपर्णपितृदेवानां सततं मानकृद्भव ।। | 3-163-30a 3-163-30b |
ऋजुं पश्यत मा वक्रं सत्यं वदत माऽनृतम्। दीर्घं पश्यत मा ह्रस्वं परं पश्यत माऽपरम्' ।। | 3-163-31a 3-163-31b |
स्वेषु वेश्मसु रम्येषु वसतामित्रतापनाः। कामान्न परिहास्यन्ति यक्षा वोभरतर्षभाः ।। | 3-163-32a 3-163-32b |
शीघ्रमेव गुडाकेशः कृतास्त्रः पुरुषर्षभः। साक्षान्मघवतोत्सृष्टः संप्राप्स्यति धनंजयः ।। | 3-163-33a 3-163-33b |
एवमुत्तमकर्माणमनुशिष्य युधिष्ठिरम्। अस्तं गिरिमिवादित्यः प्रययौ गुह्यकाधिपः ।। | 3-163-34a 3-163-34b |
तं परिस्तोमसंकीर्णैर्नानारत्नविभूषितैः। यानैरनुययुर्यक्षा राक्षसाश्च सहस्रशः ।। | 3-163-35a 3-163-35b |
पक्षिणामिव कनिर्घोषः कुबेरसदनं प्रति। बभूव परमाश्वानामैरावतपथे यथा ।। | 3-163-36a 3-163-36b |
ते जग्मुस्तूर्णमाकाशं धनाधिपतिवाजिनः। प्रकर्षन्त इवाभ्राणि पिबन्त इवमारुतम् ।। | 3-163-37a 3-163-37b |
ततस्तानि शरीराणि गतसत्वानि रक्षसाम्। अपाकृष्यन्त शैलाग्राद्धनाधिपतिशासनात् ।। | 3-163-38a 3-163-38b |
तेषां हि शापकालः स कृतोऽगस्त्येन धीमता। समरे निहतास्तस्माच्छापस्यान्तोऽभवत्तदा ।। | 3-163-39a 3-163-39b |
पाण्डवाश्महात्मानस्तेषु वेश्मसु तां क्षपाम्। सुखमूषुर्गतोद्वेगाः पूजिताः सह राक्षसैः ।। | 3-163-40a 3-163-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि यक्षयुद्धपर्वणि त्रिषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 163 ।। |
3-163-1 दाक्ष्यं यत्नशीलता। पराक्रमः शत्रूणामभिभावनहेतुः क्रिया। विधानानां कार्याणां विधिरभ्युदयहेतुः। अदेशे अकाले च कृतं धृत्यादिकमभिभवहेतुरित्यर्थः ।। 3-163-6 संरम्भात् कोपात् ।। 3-163-8 निकृतीनां वञ्जनापराणाम् ।। 3-163-9 अवलिप्तो गर्वितः ।। 3-163-18 तत्त्वं याथात्म्यम्। विधानं प्राप्त्युपायम् ।। 3-163-19 स्वर्ग्याः स्वर्गाय हिताः संपदः ।। 3-163-22 कुरुते अभ्यस्यति ।। 3-163-25 महामेधानश्वमेधान् ।। 3-163-28 प्राध्वंकृत्वा बह्वा। उपसंहृत्येत्यर्थः ।। 3-163-29 नन्दिः समृद्धिः ।। 3-163-32 स्वेषु वेश्मसु अस्मदीयेषु। कामान् काम्यमानानर्थान् न परिहास्यन्ति किंतु साधयिष्यन्त्येवेत्यर्थः ।। 3-163-35 परिस्तोमाश्रित्रकम्बला हस्त्यादीनां पल्याणभूताः ।। 3-163-36 ऐरावतपथे इनद्रपुरीप्रदेशे ।। 3-163-38 अपाकृष्यन्त अपाकृतानि ।।
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