महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-258
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दुर्योधनसभायां कर्णेनार्जुवधप्रतिज्ञानम् ।। 1 ।। चारमुखात्पाण्डवैस्तच्छ्रवणम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-258-1x |
प्रविशन्तं महाराज सूतास्तुष्टुवुरच्युतम्। जनाश्चापि महेष्वासं तुष्टुवू राजसत्तमम् ।। | 3-258-1a 3-258-1b |
लाजैश्चन्दनचूर्णैश्च विकीर्य च जनास्ततः। ऊटुर्दिष्ट्या नृपाविघ्नः समाप्तोयं क्रतुस्तव ।। | 3-258-2a 3-258-2b |
अपरे त्वब्रुवंस्तत्रवादिकास्तं महीपतिम्। यौधिष्ठिरस्य यज्ञस्य न समो ह्येष ते क्रतुः ।। | 3-258-3a 3-258-3b |
नैव तस्य क्रतोरेष कलामर्हति षोडशीम्। एवं तत्राब्रुवन्केचिद्वातिकास्तं जनेश्वरम् ।। | 3-258-4a 3-258-4b |
सुहृदस्त्वब्रुवंस्तत्र अति सर्वानयं क्रतुः। `प्रवर्तितो ह्ययं राज्ञा धार्तराष्ट्रेण धीमता' ।। | 3-258-5a 3-258-5b |
ययातिर्नहुषश्चापि मान्धाता भरतस्तथा। क्रतुमेनं समाहृत्य पूताः सर्वे दिवं गताः ।। | 3-258-6a 3-258-6b |
एता वाचः शुभाः शृण्वन्सुहृदां भरतर्षभ। प्रविवेश पुरं हृष्टः स्ववेश्म च नराधिपः ।। | 3-258-7a 3-258-7b |
अभिवाद्य ततः पादान्मतापित्रोर्विशांपते। भीष्मद्रोणकृपादीनां विदुरस्य च धीमतः ।। | 3-258-8a 3-258-8b |
अभिवादितः कनीयोभिर्भ्रातृभिर्भ्रातृनन्दनः। निषसादासने मुख्ये भ्रातृभिः परिवारितः ।। | 3-258-9a 3-258-9b |
तमुत्थाय महाराजं सूतपुत्रोऽब्रवीद्वचः। दिष्ट्या ते भरतश्रेष्ठ समाप्तोऽयं महाक्रतुः ।। | 3-258-10a 3-258-10b |
हतेषु युधि पार्थेषु राजसूये तथा त्वया। आहृतेऽहं नरश्रेष्ठ त्वां सभाजयिता पुनः ।। | 3-258-11a 3-258-11b |
तमब्रवीन्महाराजो धार्तराष्ट्रो महायशाः। | 3-258-12a |
सत्यमेतत्त्वयोक्तं हि पाण्डवेषु दुरात्मसु। निहतेषु नरश्रेष्ठ प्राप्ते चापि महाक्रतौ। राजसूये पुनर्वीर त्वमेवं वर्धयिष्यसि ।। | 3-258-13a 3-258-13b 3-258-13c |
एवमुक्त्वा महाराज कर्णमाश्लिष्य भारत। राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं चिन्तयामास कौरवः ।। | 3-258-14a 3-258-14b |
सोऽब्रवीत्कौरवांश्चापि पार्श्वस्थान्नृपसत्तमः। `राधेयसौबलादीन्वै धार्तराष्ट्रो महीपतिः' ।। | 3-258-15a 3-258-15b |
कदा तु तं क्रतुवरं राजसूयं महाधनम्। निहत्य पाण्डवान्सर्वानाहरिष्यामि कौरवाः ।। | 3-258-16a 3-258-16b |
तमब्रवीत्तदा कर्णः शृणु मे राजकुञ्जर। पादौ न धावये तावद्यावन्न निहतोऽर्जुनः ।। | 3-258-17a 3-258-17b |
कीलालजं न खादेयं करिष्ये चासुरव्रतम्। नास्तीति नैव वक्ष्यामि याचितो येन केचनित् ।। | 3-258-18a 3-258-18b |
अथोत्क्रुष्टं महेष्वासैर्धार्तराष्ट्रैर्महारथैः। प्रतिज्ञाते फल्गुनस्य वधे कर्णेन संयुगे ।। | 3-258-19a 3-258-19b |
विजितांश्चाप्यमन्यन्त पाण्डवान्धृतराष्ट्रजाः। `तदा प्रतिज्ञामारुह्य सूतपुत्रेण भाषिते' ।। | 3-258-20a 3-258-20b |
दूर्योधनोऽपि राजेन्द्र विसृज्यनरपुङ्गवान्। प्रविवेश गृहंश्रीमान्यथा चैत्ररथं प्रभुः ।। | 3-258-21a 3-258-21b |
तेऽपिसर्वे महेष्वासा जग्मुर्वेश्मानि भारत। `स्वानिस्वनि महाराज भीष्मद्रोणादयो नृपा' ।। | 3-258-22a 3-258-22b |
पाण्डवाश्च महेष्वासा दूतवाक्यप्रचोदिताः। चिन्तयन्तस्तमेवार्थं नालभन्त सुखं क्वचित् ।। | 3-258-23a 3-258-23b |
भूयश्च चारै राजेन्द्र प्रवृत्तिरुपपादिता। प्रतिज्ञा सूतपुतर्स्य विजयस्य वधं प्रति ।। | 3-258-24a 3-258-24b |
एतच्छ्रुत्वा धर्मसुतः समुद्विग्नो नराधिप। `अधोमुखश्चिरं तस्थौ किं कार्यमिति चिन्तयन्' ।। | 3-258-25a 3-258-25b |
अभेद्यकवचं मत्वा कर्णमद्भुतविक्रमम्। अनुस्मरंश् संक्लेशान्न शान्तिमुपजग्मिवान् ।। | 3-258-26a 3-258-26b |
तस्य चिन्तापरीतस्य बुद्धिर्जज्ञे महात्मनः। बहुव्यालमृगाकीर्णं त्यक्तुं द्वैतवनं वनम् ।। | 3-258-27a 3-258-27b |
धार्तराष्ट्रोऽपि नृपतिः प्रशशास वसुंधराम्। भ्रातृभिः सहितो वीरैर्भीष्मद्रोणकृपैस्तथा ।। | 3-258-28a 3-258-28b |
संगम्य सूतपुत्रेण कर्णेनाहवशोभिना। `सततं प्रीयमाणो वै देविना सौबलेन च' ।। | 3-258-29a 3-258-29b |
दुर्योधनः प्रिये नित्यं वर्तमानो महीभृताम्। पूजयामास विप्रेन्द्रान्क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।। | 3-258-30a 3-258-30b |
भ्रातॄणां च प्रियं राजन्स चकार परंतपः। निश्चित्य मनसा वीरो दत्तभुक्तफलं धनम् ।। | 3-258-31a 3-258-31b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि घोषयात्रापर्वणि अष्टपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 258 ।। |
3-258-1 मागधाश्च महेष्वासं नागराश्च सहस्रशः। इति क. थ. पाठः ।। 3-258-3 वादिकाः कृतानुवादिनो भूतविशेषाः। वातिकास्तमिति झ. पाठः। वातिकाः वातरोगोपहतचेतस उचितभाषणानभिज्ञः ।। 3-258-11 सभाजयिता पूजयिष्यामि ।। 3-258-17 धावये परेणति शेषः ।। 3-258-18 कीलालजं मांसम्। असुरं सुरारहितं च व्रतं स्वनियमं करिष्ये। मद्यं मांसं च त्यक्ष्ये इत्यर्थः ।। 3-258-19 उत्कुष्टं उच्चैः शब्दः कृतः ।।
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