महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-305
दिखावट
← आरण्यकपर्व-304 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-305 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-306 → |
कुन्त्या सावधानं परिचर्यया दुर्वाससः परितोपणम् ।। 1 ।।
कुन्त्युवाच। | 3-305-1x |
ब्राह्मणं यन्त्रिता राजन्नुपस्थास्यामि पूजया। यथाप्रतिज्ञं राजेन्द्रन च मिथ्या ब्रवीम्यहम् ।। | 3-305-1a 3-305-1b |
एष चैव स्वभावो मे पूजयेयं द्विजानिति। तव चैव प्रियं कार्यं श्रेयश्च परमं मम ।। | 3-305-2a 3-305-2b |
यद्येवैष्यति सायाह्ने यदि प्रातरथो निशि। यद्यर्धरात्रे भगवान्न मे कोपं करिष्यति ।। | 3-305-3a 3-305-3b |
लाभो ममैष राजेन्द्र यद्वैपूजयितुं द्विजान्। आदेशे तव तिष्ठन्ती हितं कुर्यां नरोत्तम ।। | 3-305-4a 3-305-4b |
विस्रब्धो भवराजेन्द्र न व्यलीकं द्विजोत्तमः। वसन्प्राप्स्यति ते गेहे सत्यमेतद्ब्रवीमि ते ।। | 3-305-5a 3-305-5b |
यत्प्रियं च द्विजस्यास्य हितं चैव तवानघ। यतिष्यामि तथा राजन्व्येतु ते मानसो ज्वरः ।। | 3-305-6a 3-305-6b |
ब्राह्मणा हि महाभागाः पूजिताः पृथिवीपते। तारणाय समर्थाः स्युर्विपरीते वधाय च ।। | 3-305-7a 3-305-7b |
रसाऽहमेतद्विजानन्ती तोषयिष्ये द्विजोत्तमम्। न मत्कृतेव्यथां राजन्प्राप्स्यसि द्विजसत्तमात् ।। | 3-305-8a 3-305-8b |
अपराधेऽपि राजेन्द्र राज्ञामश्रेयसे द्विजाः। भवन्ति च्यवनो यद्वत्सुकन्यायाः कृते पुरा ।। | 3-305-9a 3-305-9b |
नियमेन परेणाहमुपस्थास्ये द्विजोत्तमम्। यथा त्वया नरेन्द्रेदं भापितं ब्राह्मणं प्रति ।। | 3-305-10a 3-305-10b |
एवं ब्रुवन्तीं बहुशः परिष्वज्य समर्थ्य च। इतिचेति च क्रतव्यं राजा सर्वमथादिशत् ।। | 3-305-11a 3-305-11b |
एवमेतत्त्वया भद्रे कर्तव्यमविशङ्कया। मद्धितार्थं तथाऽऽत्मार्थंकुलार्थं चाप्यनिन्दिते ।। | 3-305-12a 3-305-12b |
एवमुक्त्वा तु तां कन्यां कुन्तिभोजो महायशाः। पृथां परिददौ तस्मै द्विजाय द्विजवत्सलः ।। | 3-305-13a 3-305-13b |
इयं ब्रह्मन्मम सुता बाला सुखविवर्धिता। अपराध्येत यत्किंचिन्न कार्यं हृदि तत्त्वया ।। | 3-305-14a 3-305-14b |
द्विजातयो महाभागा वृद्धबालतपस्विषु। भवन्त्यक्रोधनाः प्रायो ह्यपराद्धेषु नित्यदा ।। | 3-305-15a 3-305-15b |
सुमहत्यपराधेऽपि क्षान्तिः कार्या द्विजातिभिः। यथाशक्ति यथोत्साहं पूजा ग्राह्या द्विजोत्तम ।। | 3-305-16a 3-305-16b |
तथेति ब्राह्मणेनोक्ते स राजा प्रीतमानसः। हंसचन्द्रांशुसंकाशं गृहमस्मै न्यवेदयत् ।। | 3-305-17a 3-305-17b |
तत्राग्निशरणे क्लृप्तमासनं तस्य भानुमत्। आहारादि च सर्वं तत्तथैव प्रत्यवेदयत् ।। | 3-305-18a 3-305-18b |
निक्षिप्य राजपुत्री तु तन्द्रीं मानं तथैव च। आतस्थे परमं यत्नं ब्राह्मणस्याभिराधने ।। | 3-305-19a 3-305-19b |
तत्रसा ब्राह्मणं गत्वा पृथा शौचपरा सती। विधिवत्परिचारार्हं देववत्पर्यतोषयत् ।। | 3-305-20a 3-305-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि कुण्डलाहरणपर्वणि पञ्चाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।। 305 ।। |
3-305-1 यन्त्रिता नियमयुक्ता ।। 3-305-5 विस्रब्धो विश्वस्तः। रव्यलीकमप्रियम् ।। 3-305-18 अग्निशरणे अग्निगृहे ।। 3-305-19 तन्द्रीं आलस्यम् ।। 3-305-20 परिचारार्हं पूजार्हम् ।।
आरण्यकपर्व-304 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-306 |