महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-152
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हनुमता भीमाय समुद्रतरणकालिकपृथुतरनिजरूपप्रदर्शनपूर्वकं चतुर्वर्णधर्मनिरूपणम् ।। 1 ।।
भीमसेन उवाच। | 3-152-1x |
पूर्वरूपमदृष्ट्वा ते न यास्यामि कथंचन। यदि तेऽहमनुग्राह्यो दर्शयात्मानमात्मना ।। | 3-152-1a 3-152-1b |
वैशंपायन उवाच। | 3-152-2x |
एवमुक्तस्तु भीमेन स्मितं कृत्वा प्लवंगमः। तद्रूपं दर्शयामास यद्वै सागरलङ्घने ।। | 3-152-2a 3-152-2b |
भ्रातुः प्रियमभीप्सन्वै चकार सुमहद्वपुः। `तद्रूपं यत्पुरा तस्य बभूवोदधिलङ्घने' ।। | 3-152-3a 3-152-3b |
देहस्तस्य ततोऽतीव वर्धत्यायामविस्तरैः। सद्रुमं कदलीषण्डं छादयन्नमितद्युतिः ।। | 3-152-4a 3-152-4b |
गिरिश्चोच्छ्रयमाक्रम्य तस्थौ तत्र च वानरः। समुच्छ्रितमहाकायो द्वितीय इव पर्वतः ।। | 3-152-5a 3-152-5b |
ताम्रेक्षणस्तीक्ष्णदंष्ट्रो भृकुटीकृतलोचनः। दीर्घं लाङ्गूलमाविध्य दिशो व्याप्य स्थितः कपिः ।। | 3-152-6a 3-152-6b |
तद्रूपं महदालक्ष्यभ्रातुः कौरवनन्दनः। विसिष्मिये तदा भीमो जहृषे च पुनः पुनः ।। | 3-152-7a 3-152-7b |
तमर्कमिव तेजोभिः सौवर्णमिव पर्वतम्। प्रदीप्तमिव चाकाशं दृष्ट्वा भीमो न्यमीलयत् ।। | 3-152-8a 3-152-8b |
आबभाषे च हनुमान्भीमसेनं स्मयन्निव। एतावदिह शक्तस्त्वं द्रुष्टुं रूपं ममानघ ।। | 3-152-9a 3-152-9b |
वर्धेऽहं चाप्यतो भूयो यावन्मे मनसेप्सितम्। भीम शत्रुषु चात्यर्थं वर्धते मूर्तिरोजसा ।। | 3-152-10a 3-152-10b |
वैशंपायन उवाच। | 3-152-11x |
तदद्भुतं महारौद्रं विन्ध्यपर्वतसन्निभम्। दृष्ट्वा हनूमतो वर्ष्म संभ्रान्तः पवनात्मजः ।। | 3-152-11a 3-152-11b |
प्रत्युवाच ततो भीमः संप्रहृष्टतनूरुहः। कृताञ्जलिरदीनात्मा हनूमन्तमवस्थितम् ।। | 3-152-12a 3-152-12b |
दृष्टं प्रमाणं विपुलं शरीरस्यास्य ते विभो। संहरस्व महावीर्य स्वयमात्मानमात्मना ।। | 3-152-13a 3-152-13b |
न हि शक्नोमि त्वां द्रष्टुं दिवाकरमिवोदितम्। अप्रमेयमनाधृष्यं मैनाकमिव पर्वतम् ।। | 3-152-14a 3-152-14b |
विस्मयश्चैव मे वीर सुमहान्मनसोऽद्य वै। यद्रामस्त्वयि पार्श्वश्थे स्वयं रावणमभ्यगात् ।। | 3-152-15a 3-152-15b |
त्वमेव शक्तस्तां लङ्कां सयोधां सहरावणाम्। स्वबाहुबलमाश्रित् विनाशयितुमञ्जसा ।। | 3-152-16a 3-152-16b |
न हि ते किंचिदप्राप्यं मारुतात्मज विद्यते। न चैव तव पर्याप्तो रावयणः सगणो युधि ।। | 3-152-17a 3-152-17b |
एवमुक्तस्तु भीमेन हनूमान्प्लवगोत्तमः। प्रत्युवाच ततो वाक्यं स्निग्धगम्भीरया गिरा ।। | 3-152-18a 3-152-18b |
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत। भीमसेन न पर्याप्तो ममासौ राक्षसाधमः ।। | 3-152-19a 3-152-19b |
मया तु निहते तस्मिन्रावणे लोककण्टके। कीर्तिर्नश्येद्राघवस्य तत एतदुपेक्षितम् ।। | 3-152-20a 3-152-20b |
तेन वीरेण तं हत्वा सगणं राक्षसाधमम्। आनीता स्वपुरं सीता कीर्तिश्च स्थापिता नृषु ।। | 3-152-21a 3-152-21b |
तद्गच्छ विपुलप्रज्ञ भ्रातुः प्रियहिते रतः। अरिष्टं क्षेममध्वानं वायुना परिरक्षितः ।। | 3-152-22a 3-152-22b |
एष पन्थाः कुरुश्रेष्ठ सौगन्धिकवनाय ते। द्रक्ष्यसे धनदोद्यानं रक्षितं यक्षराक्षसैः ।। | 3-152-23a 3-152-23b |
न च ते तरसा कार्यः कुसुमापचयः स्वयम्। दैवतानि हि मान्यानि पुरुषेण विशेषतः ।। | 3-152-24a 3-152-24b |
बलिहोमनमस्कारैर्मन्त्रैश्च भरतर्षभ। दैवतानि प्रसादं हि भक्त्या कुर्वन्ति भारत ।। | 3-152-25a 3-152-25b |
मा तात साहसं कार्षीः स्वधर्मं परिपालय। स्वधर्मस्थापनं धर्मं बुध्यस्वागमयस्व च ।। | 3-152-26a 3-152-26b |
न हि धर्ममविज्ञाय वृद्धाननुपसेव्य च। धर्मो वै वेदितुं शक्यो बृहस्पतिसमैरपि ।। | 3-152-27a 3-152-27b |
अधर्मो यत्र धर्माख्यो धर्मश्चाधर्मसंज्ञितः। स विज्ञेयो विभागेन यत्रमुह्यन्त्यबुद्धयः ।। | 3-152-28a 3-152-28b |
आचारसंभवो धर्मो धर्माद्वेदाः समुत्थिताः। वेदैर्यज्ञाः समुत्पन्ना यज्ञैर्देवाः प्रतिष्ठिताः ।। | 3-152-29a 3-152-29b |
वेदाचारविधानोक्तैर्यज्ञैर्धार्यन्ति देवताः। बृहस्पत्युशनःप्रोक्तैर्नयैर्धार्यन्ति मानवाः ।। | 3-152-20a 3-152-30b |
बल्याकरवणिज्याभिः कृष्यर्थैर्योनिपोषणैः। वार्तया धार्यते सर्वं धर्मैरेतैर्द्विजातिभिः ।। | 3-152-31a 3-152-31b |
त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तिस्रो विद्या विजानताम्। ताभिः सम्यक्प्रवृत्ताभिर्लोकयात्रा विधीयते ।। | 3-152-32a 3-152-32b |
सा चेद्धर्मकृता न स्यात्रयीधर्ममृते भुवि। दण्डनीतिमृतेचापि निर्मर्यादमिदं भवेत् ।। | 3-152-33a 3-152-33b |
वार्ताधर्मे ह्यवर्तिन्यो विनश्येयुरिमाः प्रजाः। सुप्रवृत्तैस्त्रिभिर्ह्येतैर्धर्मैः सूयन्ति वै प्रजाः ।। | 3-152-34a 3-152-34b |
द्विजानाममृतं धर्मो ह्येकश्चैवैकवर्णकः। यज्ञाध्ययनदानानि त्रयः साधारणाः स्मृताः ।। | 3-152-35a 3-152-35b |
याजनाध्यापने चोभे ब्राह्मणानां परिग्रहः। पालनं क्षत्रियाणां वै वैश्यधर्मश्च पोषणम् ।। | 3-152-36a 3-152-36b |
शुश्रूषा च द्विजातीनां शूद्राणआं धर्म उच्यते। भैक्षहोमव्रतैर्हीनास्तथैव गुरुवासिताः ।। | 3-152-37a 3-152-37b |
क्षत्रधर्मोऽत्रकौन्तेय तव धर्मोऽत्र रक्षणम्। स्वधर्मं प्रतिपद्यस्व विनीतो नियतेन्द्रियः ।। | 3-152-38a 3-152-38b |
वृद्धैः संमन्त्र्य सद्भिश्च बुद्धिमद्भिः श्रुतान्वितैः। आस्थितः शास्तिदण्डेन व्यसनी परिभूयते ।। | 3-152-39a 3-152-39b |
निग्रहानुग्रहैः सम्यग्यदा नेता प्रवर्तते। तदा भवन्ति लोकस्य मर्यादाः सुव्यवस्थिताः ।। | 3-152-40a 3-152-40b |
तस्माद्देशे च दुर्गे च शत्रुमित्रबलेषु च। नित्यं चारेण बोद्धव्यं स्थानं वृद्धिः क्षयस्तथा ।। | 3-152-41a 3-152-41b |
राज्ञामुपायश्चारश्च बुद्धिमन्त्रपराक्रमाः। निग्रहप्रग्रहौ चैव दाक्ष्यं वै कार्यसाधकम् ।। | 3-152-42a 3-152-42b |
साम्ना दानेन भेदेन दण्डेनोपेक्षणेन च। साधनीयानि कार्याणि समासव्यासयोगतः ।। | 3-152-43a 3-152-43b |
मन्त्रमूला नयाः सर्वेचाराश्च भरतर्षभ। सुमन्त्रितनयैः सद्भिस्तद्विधैः सह मन्त्रयेत् ।। | 3-152-44a 3-152-44b |
स्त्रिया मूढेन बालेन लुब्धेन लघुनाऽपि वा। न मन्त्रयीत गुह्यानि येषु चास्पनदलक्षणम् ।। | 3-152-45a 3-152-45b |
मन्त्रयेत्सह विद्वद्भिः शक्तैः कर्माणि कारयेत्। स्निग्धैश्च नीतिविन्यासैर्मूर्खान्सर्वत्र वर्जयेत् ।। | 3-152-46a 3-152-46b |
धार्मिकान्धर्मकार्येषु अर्थकार्येषु पण्डितान्। स्त्रीषु क्लीबान्नियुञ्जीत क्रूरान्क्रूरेषु कर्मसु ।। | 3-152-47a 3-152-47b |
स्वेभ्यश्चैव परेभ्यश्च कार्याकार्यसमुद्भवा। बुद्धिः कर्मसु विज्ञेया रिपूणां च बलाबलम् ।। | 3-152-48a 3-152-48b |
बुद्ध्या स्वप्रतिपन्नेषु कुर्यात्साधुष्वनुग्रहम्। निग्रहं चाप्यशिष्टेषु निर्मर्यादेषु कारयेत् ।। | 3-152-49a 3-152-49b |
निग्रहे प्रग्रहे सम्यग्यदा राजा प्रवर्तते। तदा भवति लोकस्य मर्यादा सुव्यवस्थिता ।। | 3-152-50a 3-152-50b |
एष तेऽभिहितः पार्थ घोरो धर्मो दुरन्वयः। तं स्वधर्मविभागेन विनयस्थोऽनुपालय ।। | 3-152-51a 3-152-51b |
तपोधर्मदमेज्याभिर्विप्रा यान्ति यथा दिवम्। दानातिथ्यक्रियाधर्मैर्यान्ति वैश्याश्च सद्गतिम् ।। | 3-152-52a 3-152-52b |
`द्विजशुश्रूषया शूद्रा लभन्ते गतिमुत्तमाम्'। क्षत्रं याति तथा स्वर्गं भुवि निग्रहपालनैः ।। | 3-152-53a 3-152-53b |
सम्यक्प्रणीतदण्डा हि कामद्वेपविवर्जिताः। अलुब्धा विगतक्रोधाः सतां यान्ति सलोकतां ।। | 3-152-54a 3-152-54b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि द्विपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ।। |
3-152-5 गिरिश्च विन्ध्यगिरिरिव। इवार्थे चः ।। 3-152-17 पर्याप्तः समर्थः ।। 3-152-22 अरिष्टं निर्विघ्नम् ।। 3-152-24 पुरुषेण मर्त्येन ।। 3-152-26 आगमयस्व मात्वरिष्ठाः ।। 3-152-28 दुर्जनवधोऽधर्मोपि धर्मएव। परोपघातकं सत्यं धर्मोपि अधर्मएव ।। 3-152-30 यज्ञैर्देवानां नीत्या मनुष्याणां च स्थितिरित्यर्थः ।। 3-152-31 वार्ता जीविकार्थावृत्तिः ।। 3-152-32 साच क्रमेण ब्राह्मणस्य त्रयीयाजनाध्यापनादिः। वैश्यस् वार्तापण्यादिः। क्षत्रियस्य दण्डादिः ।। 3-152-33 सा लोकयात्रा ।। 3-152-37 गुरौ त्रिवर्णे वासितं वासो येषां ते ।। 3-152-39 आस्थितोऽनुगृहीतः ।। 3-152-41 स्थानं सिद्धसंरक्षणम् ।। 3-152-48 स्वेभ्यश्चारेभ्यः परेभ्य उत्कोचादिना लोभितेभ्यः ।। 3-152-49 बुद्ध्या जीवनाशया।प्रतिपन्नेषु शरणागतेषु ।। 3-152-51 घोरो धर्मो राजधर्मः ।।
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