महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-237
पठन सेटिंग्स
← आरण्यकपर्व-236 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-237 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-238 → |
कस्माच्चिद्ब्राह्मणात्पाण्डववृत्तान्तं श्रुतवता धृतराष्ट्रेण पाण्डवान्प्रति परिशोचनम् ।। 1 ।। तथा पाण्डवपराक्रमानुस्मरणेन स्वपुत्राणां भाविवधनिर्धारणपूर्वकं तान्प्रति परिशोचनम् ।। 2 ।।
जनसेजय उवाच। | 3-237-1x |
एवं वने वर्तमाना नराग्र्याः शीतोष्णवातातपकर्शिताङ्गाः। सरस्तदासाद्यवनं च पुण्यं ततः परंकिमकुर्वन्त पार्थाः ।। | 3-237-1a 3-237-1b 3-237-1c 3-237-1d |
वैशंपायन उवाच। | 3-237-2x |
सरस्तदासाद्य तु पाण्डुपुत्रा जनं समुत्सृज्य विधाय चेष्टम्। वनानि रम्याण्यथ पर्वतांश्च नदीप्रदेशांश्च तदा विचेरुः ।। | 3-237-2a 3-237-2b 3-237-2c 3-237-2d |
तथा वने तान्वसतः प्रवीरान् स्वाध्यायवन्तश्च तपोधनाश्च। अभ्याययुर्वेदविदः पुराणा- स्तान्पूजयामासुरथो नराग्र्याः ।। | 3-237-3a 3-237-3b 3-237-3c 3-237-3d |
ततः कदाचित्कुशलः कथासु विप्रोऽभ्यगच्छद्भुवि कौरवेयान्। स तैः समेत्याथ यदृच्छयैव वैचित्रवीर्यं नृपमभ्यगच्छत् ।। | 3-237-4a 3-237-4b 3-237-4c 3-237-4d |
अथोपविष्टः प्रतिसत्कृतश्च वृद्धेन राज्ञा कुरुसत्तमेन। प्रचोदितः संकथयांबभूव धर्मानिलेन्द्रप्रभवान्यमौ च ।। | 3-237-5a 3-237-5b 3-237-5c 3-237-5d |
कृशांश्च वातातपकर्शिताङ्गान् दुःखस्य चोग्रस् मुखे प्रपन्नान्। तां चाप्यनाथामिव वीरनाथां कृष्णां परिक्लेशगुणेन युक्ताम् ।। | 3-237-6a 3-237-6b 3-237-6c 3-237-6d |
ततः कथास्तस्य निशम्य राजा वैचित्रवीर्यः कृपयाऽभितप्तः। वने तथा पार्थिवपुत्रपौत्रा- ञ्श्रुत्वा तथा दुःखनदींप्रपन्नान् ।। | 3-237-7a 3-237-7b 3-237-7c 3-237-7d |
प्रोवाच दैन्याभिहतान्तरात्मा निश्वासवातोपहतस्तदानीम्। वाचं कथंचित्स्थिरतामुपेत्य तत्सर्वमात्मप्रभवं विचिन्त्य ।। | 3-237-8a 3-237-8b 3-237-8c 3-237-8d |
कथंनु सत्यः शुचिरार्यवृत्तः श्रेष्ठः सुतानां मम धर्मराजः। अजातशत्रुः पृथिवीतले स्म शेते पुरा राङ्कवकूटशायी ।। | 3-237-9a 3-237-9b 3-237-9c 3-237-9d |
प्रबोध्यते मागधसूतपुत्रै- र्नित्यं स्तुवद्भिः स्वयमिन्द्रकल्पः। पतत्रिसङ्घैः स जघन्यरात्रे प्रबोध्यते नूनमिलातलस्थः ।। | 3-237-10a 3-237-10b 3-237-10c 3-237-10d |
कथंनु वातातपकर्शिताङ्गो वृकोदरः कोपपरिप्लुताङ्गः। शेते पृथिव्यामतथोचिताङ्गः कृष्णासमक्षं वसुधातलस्थः ।। | 3-237-11a 3-237-11b 3-237-11c 3-237-11d |
तथाऽर्जुनः सुकुमारो मनस्वी वशे स्थितो धर्मसुतस्य राज्ञः। विदूयमानैरिव सर्वगात्रै- र्ध्रुवं न शेते वसतीरमर्षात् ।। | 3-237-12a 3-237-12b 3-237-12c 3-237-12d |
यमौ च कृष्णां च युधिष्ठिरं च भीमं च दृष्ट्वा सुखविप्रयुक्तान्। विनिःश्वसन्सर्प इवोग्रतेजा ध्रुवं न शेते वसतीरमर्षात् ।। | 3-237-13a 3-237-13b 3-237-13c 3-237-13d |
तथा यमौ चाप्यसुखौ सुखार्हौ समृद्धरीपावमरौ दिवीव। प्रजागरस्थौ ध्रुवमप्रशान्तौ क्रोधेन सत्येन च वार्यमाणौ ।। | 3-237-14a 3-237-14b 3-237-14c 3-237-14d |
समीरणेनाथ समो बलेन समीरणस्यैवसुतो बलीयान्। स धर्मपासेन सितोऽग्रजेन ध्रुवं विनिःश्वस्य सहत्यमर्षम् ।। | 3-237-15a 3-237-15b 3-237-15c 3-237-15d |
स चापिभूमौ परिवर्तमानो वधं सुतानां मम काङ्क्षमाणः। सत्येन धर्मेण च वार्यमाणः कालंप्रतीक्षत्यधिको रणेऽन्यैः ।। | 3-237-16a 3-237-16b 3-237-16c 3-237-16d |
अजातशत्रौ तु जिते निकृत्या दुःशासनो यत्परुषाण्यवोचत्। तानि प्रविष्टानि वृकोदराङ्गं दहन्ति कक्षाग्निरिवेन्धनानि ।। | 3-237-17a 3-237-17b 3-237-17c 3-237-17d |
न पापकं ध्यास्यति धर्मपुत्रो धनंजयश्चाप्यनुवर्त्स्यते तम्। अरण्यवासेन विवर्धते तु भीमस्य कोपोऽग्निरिवानिलेन ।। | 3-237-18a 3-237-18b 3-237-18c 3-237-18d |
स तेन कोपेन विदीर्यमाणः करं करेणाभिनिपीड्यवीरः। विनिःश्वसत्युष्णमतीव घोरं दहन्निवेमां मम पुत्रसेनाम् ।। | 3-237-19a 3-237-19b 3-237-19c 3-237-19d |
गाण्डीवधन्वा च वृकोदरश्च संरम्भिणावन्तककालकल्पौ। न शेषयेतां युधि शत्रुसेनां शरान्किरन्तावनिप्रकाशान् ।। | 3-237-20a 3-237-20b 3-237-20c 3-237-20d |
दुर्योधनः शकुनिः सूतपुत्रो दुःशासनश्चापि सुमन्दचेताः। मधु प्रपश्यन्ति न तु प्रपातं वृकोदरं चैव धनंजयं च ।। | 3-237-21a 3-237-21b 3-237-21c 3-237-21d |
शुभाशुभं कर्म नरोहि कृत्वा प्रतीक्षतेचेत्स फलंविपाके। सतेन युज्यत्यवशः फलेन मोक्षः कथं स्यात्पुरुषस्य तस्मात् ।। | 3-237-22a 3-237-22b 3-237-22c 3-237-22d |
क्षेत्रे सुकृष्टे ह्युपिते च बीजे देवेच वर्षत्यृतुकालयुक्तम्। न स्यात्फलंतस्य कुतः प्रसिद्धि- रन्यत्रदैवादिति नास्ति हेतुः ।। | 3-237-23a 3-237-23b 3-237-23c 3-237-23d |
कृतं मताक्षेण यथा न साधु साधुप्रवृत्तेन च पाण्डवेन। मया च दुष्पुत्रवशानुगेन कृतः कुरूणामयमन्तकालः ।। | 3-237-24a 3-237-24b 3-237-24c 3-237-24d |
ध्रुवं प्रशाम्यत्यसमीरितोऽग्नि- र्ध्रुवं प्रजास्यत्युत गर्भिणी या। ध्रुवं दिनादौ रजनीप्रणाश- स्तथा क्षपादौ च दिनप्रणाशः ।। | 3-237-25a 3-237-25b 3-237-25c 3-237-25d |
कृतेच कस्मान्न परेच कुर्यु- र्दत्ते च दद्युः पुरुषाः कथंस्वित्। प्राप्यार्थकालं च भवेदनर्थः कथंचन स्यादितितत्कुतः स्यात् ।। | 3-237-26a 3-237-26b 3-237-26c 3-237-26d |
कथं न भिद्येत न च स्रवेत न च प्रसिच्येदितिरक्षितव्यम्। अरक्ष्यमाणं शतधा प्रकीर्ये- द्भ्रुवं न नाशोऽस्ति कृतस्य लोके ।। | 3-237-27a 3-237-27b 3-237-27c 3-237-27d |
गतो ह्यरण्यादपिशक्रलोकं धनंजयः पशय्त वीर्यमस्य। अस्त्राणि दिव्यानि चतुर्विधानि ज्ञात्वा पुनर्लोकमिमं प्रपन्नः ।। | 3-237-28a 3-237-28b 3-237-28c 3-237-28d |
स्वर्गं हि गत्वा सशरीर एव को मानुषः पुनरागन्तुमिच्छेत्। अन्यत्रकालोपहताननेका- न्समीक्षमाणस्तुकुरून्मुमूर्षून् ।। | 3-237-29a 3-237-29b 3-237-29c 3-237-29d |
धनुर्ग्राहश्चार्जुनः सव्यसाची धनुश्च तद्गाण्डिवं भीमवेगम्। अस्त्राणि दिव्यानि च तानि तस्य त्रयस्य तेजः प्रसहेत कोऽत्र ।। | 3-237-30a 3-237-30b 3-237-30c 3-237-30d |
निशम्य तद्वचनं पार्थिवस्य दुर्योधनं रहिते सौबलोऽथ। अबोधयत्कर्णमुपेत्य सर्वं स चाप्यहृष्टोऽभवदल्पचेताः ।। | 3-237-31a 3-237-31b 3-237-31c 3-237-31d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि घोषयात्रापर्वणि सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 237 ।। |
3-237-1 सरो द्वैतवनस्थम् ।। 3-237-2 जनं समुदायम् ।। 3-237-3 वने द्वैतवने ।। 3-237-4 नृप धृतराष्ट्रम् ।। 3-237-9 रङ्कोर्मृगविशेषस्य लोमराशिमयीतूलिका राङ्कवकूटम् ।। 3-237-13 उग्रतेजा अर्जुनः ।। 3-237-14 प्रजागरस्थौ भुवि शयाते इति शेषः ।। 3-237-16 अन्यैः अन्येभ्यः अधिकः ।। 3-237-23 उपिते न्युप्ते। एवं मच्चित्ते दुर्योधनादीनां च चित्ते वृद्धहितोपदेशो वृथा भवतीति भावः ।। 3-237-24 मताक्षेण शकुनिना पाण्डवेन च तदानीमेव तान् अविघ्नता ।। 3-237-25 प्रजास्यति अपत्यं अनयिष्यति। क्षपादौ रात्र्यादौ। एतस् पापस्य फलं अपरिहार्यमिति भावः ।।
आरण्यकपर्व-236 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-238 |