महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-262
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देवदूतात्स्वर्गसुखस्यास्थिरतां परिजानता मुद्गलेन स्वर्गानभिरोचनपूर्वकं देवदूतस्य स्वर्गंप्रति प्रस्थापनम् ।। 1 ।। व्यासेन युधिष्ठिरंप्रति मुद्गलोपाख्यानकथनपूर्वकं स्वाश्रमंप्रति गमनम् ।। 2 ।।
देवदूत उवाच। | 3-262-1x |
महर्षेऽकार्यबुद्धिस्त्वं यः स्वर्गसुखमुत्तमम्। संप्राप्तं प्रतिपत्तव्यं विमृशस्यबुधो यथा ।। | 3-262-1a 3-262-1b |
उपरिष्टादयं लोको योऽयं स्वरिति संज्ञितः। ऊर्ध्वगः सत्पथः शश्वद्देवयानचरो मुने ।। | 3-262-2a 3-262-2b |
नातप्ततपसः पुंसो नामहायज्ञयाजिनः। नानृता नास्तिकाश्चैव तत्रगच्छन्ति मुद्गल ।। | 3-262-3a 3-262-3b |
धर्मात्मानो जितात्मानः शान्ता दान्ता विमत्सराः। दानधर्मरताः पुंसः शूराश्चाहितलक्षणाः ।। | 3-262-4a 3-262-4b |
तत्रगच्छन्ति धर्माग्र्यं कृत्वा शमदमात्मकम्। लोकान्पुण्यकृतां ब्रह्मन्सद्भिराचरितान्नृभिः ।। | 3-262-5a 3-262-5b |
देवाः साध्यास्तथा विश्वे तथैव च महर्षयः। यामा धामाश्च मौद्गल्य गन्धर्वाप्सरसस्तथा ।। | 3-262-6a 3-262-6b |
एषां देवनिकायानां पृथक्पृथगनेकशः। भास्वन्तः कामसंपन्ना लोकास्तेजोमयाः शुभाः ।। | 3-262-7a 3-262-7b |
त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि योजनानि हिरण्मयः। मेरुः पर्वतराड्यत्रदेवोद्यानानि मुद्गल ।। | 3-262-8a 3-262-8b |
`नन्दनान्यतिरम्याणि तत्रोद्यानानि मुद्गल। सर्वकामफलैर्वृक्षैः शोभितानि समन्ततः' ।। | 3-262-9a 3-262-9b |
नन्दनादीनि पुण्यानि विहाराः पुण्यकर्मणाम्। न क्षुत्पिपासे न ग्लानिर्न शीतोष्णे भयं तथा ।। | 3-262-10a 3-262-10b |
बीभत्समशुभं वाऽपि रोगो वा तत्र कश्चन। मनोज्ञाः सर्वतो गन्धाः सुखस्पर्शाश्च सर्वशः ।। | 3-262-11a 3-262-11b |
शब्दाः श्रुतिमनोग्राह्याः सर्वतस्तत्रवै मुने। न शोको न जरा तत्र नायासपरिदेवने ।। | 3-262-12a 3-262-12b |
ईदृशः स मुने लोकः स्वकर्मफलहेतुकः। सुकृतैस्तत्रपुरुषाः संभवन्त्यात्मकर्मभिः ।। | 3-262-13a 3-262-13b |
तैजसानि शरीराणि भवन्त्य्रोपपद्यताम्। कर्मजान्येव मौद्गल्य न मातृपितृजान्युत ।। | 3-262-14a 3-262-14b |
रन संस्वेदो न दौर्गन्ध्यं पुरीषं मूत्रमेव च। तेषां न च रजोवस्त्रं बाधते तत्रवै मुने ।। | 3-262-15a 3-262-15b |
न म्लायन्ति स्रजस्तेषां दिव्यगन्धा मनोरमाः। समूह्यन्ते विमानैश्च ब्रह्मन्नेवंविधा हि ते ।। | 3-262-16a 3-262-16b |
ईर्ष्याशोकक्लमापेता मोहमात्सर्यवर्जिताः। सुखं संर्गजितस्तत्रवर्तयन्ते महामुने ।। | 3-262-17a 3-262-17b |
तेषां तथाविधानां तु लोकानां मुनिपुङ्गव। उपर्युपरि शक्रस् लोका दिव्या गुणान्विताः ।। | 3-262-18a 3-262-18b |
परतो ब्रह्मणस्तस्य लोकस्तेजोमयः शुभः। यत्र यान्त्यृषयो ब्रह्मन्पूताः स्वैः कर्मभिः शुभैः ।। | 3-262-19a 3-262-19b |
ऋभवो नाम तत्रान्ये देवानामपि देवताः। तेषां लोकाः परतरे यान्यजन्तीह देवताः ।। | 3-262-20a 3-262-20b |
स्वयंप्रभास्ते भास्वन्तो लोकाः कामदुघाः परे। न तेषां स्त्रीकृतस्तापो न भोगैश्वर्यमत्सरः ।। | 3-262-21a 3-262-21b |
न वर्तयन्त्याहुतिभिस्ते नाप्यमृतभोजनाः। तथा दिव्यशरीरास्ते न च विग्रहमूर्तयः ।। | 3-262-22a 3-262-22b |
नासुखाः सुखकामास्ते देवदेवाः सनातनाः। न कल्पपरिवर्तेषु परिवर्तन्ति ते तथा ।। | 3-262-23a 3-262-23b |
रजरा मृत्युः कुतस्तेषां हर्षः प्रीतिः सुखं न च। न दुःखं न सुखं चापि रागद्वेषौ कुतो मुने ।। | 3-262-24a 3-262-24b |
देवानामपि मौद्गल्यकाङ्क्षिता सा गतिः परा। दुष्प्रापा परमा सिद्धिरगम्या कामगोचरैः ।। | 3-262-25a 3-262-25b |
त्रयस्त्रिंशदिमे लोकाः शेषा लोका मनीषिभिः। गम्यन्ते नियमैः श्रेष्ठैर्दानैर्वा विधिपूर्वकैः ।। | 3-262-26a 3-262-26b |
सेयं दानकृता व्युष्टिरनुप्राप्ता सुखं त्वया। तां रभुङ्क्ष्व सुकृतैर्लब्धां तपसा द्योतितप्रभः ।। | 3-262-27a 3-262-27b |
एतत्स्वर्गसुखं विप्र लोका नानाविधास्तथा। गुणाः स्वर्गस्य प्रोक्तास्ते दोषानपि निबोध मे ।। | 3-262-28a 3-262-28b |
कृस्य कर्मणस्तत्रभुज्यते यत्फलं दिवि। न चान्त्क्रियते कर्म मूलच्छेदेन भुज्यते ।। | 3-262-29a 3-262-29b |
सोऽत्रदोषो मम मतस्तस्यान्ते पतनं च यत्। सुखव्याप्तमनस्कानां पतनं यच्च मुद्गल ।। | 3-262-30a 3-262-30b |
असंतोषः परीतापो दृष्ट्वा दीप्ततराः श्रियः। यद्भवत्यवरे स्थाने स्थितानां तत्सुदुष्करम् ।। | 3-262-31a 3-262-31b |
संज्ञामोहश्चपततां रजसा च प्रधर्षणम्। प्रम्लानेषु च माल्येषु ततः पिपतिषोर्भयम् ।। | 3-262-32a 3-262-32b |
आब्रह्मभवनादेते दोषा मौद्गल्य दारुणाः। नाकलोकेसुकृतिनां गुणास्त्वयुतशो नृणाम् ।। | 3-262-33a 3-262-33b |
अयं त्वन्यो गुणः श्रेष्ठश्च्युतानां स्वर्गतो मुने। शुभानुशययोगेन मनुष्येषूपजायते ।। | 3-262-34a 3-262-34b |
तत्रापि स महाभागः कुले महति जायते। न चेत्संबुध्यते तत्रगच्छत्यधमतां ततः ।। | 3-262-35a 3-262-35b |
इह यत्क्रियते कर्म तत्परत्रोपभुज्यते। कर्मभूमिरियं ब्रह्मन्फलभूमिरसौ मता ।। | 3-262-36a 3-262-36b |
[मुद्गल उवाच। | 3-262-37x |
महान्तस्तु अमी दोपास्त्वया स्वर्गस्य कीर्तिताः। निर्दोष एव यस्त्यन्यो लोकं तं प्रवदस्व मे ।। | 3-262-37a 3-262-37b |
देवदूत उवाच। | 3-262-38x |
ब्रह्मणः सदनादूर्ध्वं तद्विष्णोः परमं पदम्। शुद्धं सनातनं ज्योतिः परं ब्रह्मेति यद्विदुः ।। | 3-262-38a 3-262-38b |
न तत्रविप्र गच्छन्ति पुरुषा विषयात्मकाः। दम्भलोभमहाक्रोधमोहद्रोहैरभिद्रुताः ।। | 3-262-39a 3-262-39b |
निर्ममा निरहंकारा निर्द्विन्द्वाः संयतेन्द्रियाः। ध्यानयोगपराश्चैव तत्रगच्छन्ति मानवाः ।।] | 3-262-40a 3-262-40b |
एतत्ते सर्वमाख्यतं यन्मां पृच्छसि मुद्गल। तवानुकम्पया साधो साधु गच्छाम माचिरम् ।। | 3-262-41a 3-262-41b |
व्यास उवाच। | 3-262-42x |
एतच्छ्रुत्वा तु मौद्गल्यो वाक्यं विममृशे धिया। विमृश्य च मुनिश्रेष्ठो देवदूतमुवाचह ।। | 3-262-42a 3-262-42b |
देवदूत नमस्तेऽम्तु गच्छ तात यथासुखम्। महादोषेण मे कार्यं न स्वर्गेण सुखेन चा ।। | 3-262-43a 3-262-43b |
पतनान्ते महादुःखं परितापः सुदारुणः। स्वर्गभाजः पतन्तीह तस्मात्स्वर्गं न कामये ।। | 3-262-44a 3-262-44b |
यत्रगत्वान शोचन्ति न व्यथन्तिचलन्ति वा। तदहं स्थानमत्यन्तं मार्गयिष्यामि केवलम् ।। | 3-262-45a 3-262-45b |
इत्युक्त्वा स मुनिर्वाक्यं देवदूतंविसृज्य तम्। शिलोञ्छवृत्तिमुत्सृज्य शममातिष्ठदुत्तमम् ।। | 3-262-46a 3-262-46b |
तुल्यनिन्दास्तुतिर्भूत्वासमलोष्टाश्मकाञ्चनः। ज्ञानयोगेन शुद्धेन ध्याननित्यो बभूव ह ।। | 3-262-47a 3-262-47b |
`निगृहीतेन्द्रियग्रामः समयोजयदात्मनि। युक्तचित्तं यथाऽऽत्मानं युयोज परमेश्वरे' ।। | 3-262-48a 3-262-48b |
ध्यानयोगाद्बलं लब्ध्वा प्राप्य बुद्धिमनुत्तमाम्। जगाम शाश्वतीं सिद्धिं परां निर्वाणलक्षणाम् ।। | 3-262-49a 3-262-49b |
तस्मात्त्वमपिकौन्तेय न शोकं कर्तुमर्हसि। राज्यात्स्फीतात्परिभ्रष्टस्तपसा तदवाप्स्यसि ।। | 3-262-50a 3-262-50b |
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम्। पर्यायेणोपसर्पन्ते नरं नेमिमरा इव ।। | 3-262-51a 3-262-51b |
पितृपैतामहं राज्यंप्राप्स्यस्यमितविक्रम। वर्षात्रयोदशादूर्ध्वंव्येतु ते मानसो ज्वरः ।। | 3-262-52a 3-262-52b |
वैशंपायन उवाच। | 3-262-53x |
स एवमुक्त्वाभगवान्व्यासः पाण्डवनन्दनम्। जगाम तपसे धीमान्पुनरेवाश्रमं प्रति ।। | 3-262-53a 3-262-53b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि ब्रीहिद्रौणिकपर्वणि द्विषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 262 ।। |
3-262-2 उपरिष्टाच्च स्वर्लोकः इति ख. झ. पाठः ।। 3-262-3 पुसः पुमांसः ।। 3-262-4 शूराश्चाहबलक्षणाः इति ख. झ. पाठः ।। 3-262-6 यामा धामाश्च गणविशेषाः ।। 3-262-7 देवानां निकाया आलया येषु तेषां देवनिकायानाम् ।। 3-262-14 उपपद्यतामुपगच्छताम् ।। 3-262-26 त्रयस्त्रिशदिमे देवा येषां लोका इति ख. झ. पाठः ।। 3-262-27 व्युष्टिः संपत्तिः .। 3-262-51 नेमि चक्रधाराम्। अराः नामिनेमिसंधानदारूणि ।।
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