महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-247
दिखावट
← आरण्यकपर्व-246 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-247 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-248 → |
चित्रसेनेनार्जुनंप्रति दुर्योधनबन्धने कारणाभिधानपूर्वकं युधिष्ठिरसमीपगमनम् ।। 1 ।। युधिष्ठिरेण गन्धर्वैर्दुर्योधनादीनां बन्धाद्विमोचनम् ।। 2 ।। ततो दुर्योधनेन स्वपुरंप्रति प्रस्थानम् ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-247-1x |
ततोऽर्जुनश्चित्रसेनं प्रहसन्निदमब्रवीत्। मध्ये गन्धर्वसैन्यानां महेष्वासो महाद्युतिः ।। | 3-247-1a 3-247-1b |
किं ते व्यवसितं वीर कौरवाणां विनिग्रहे। किमर्थं च सदारोऽयं निगृहीतः सुयोधनः ।। | 3-247-2a 3-247-2b |
चित्रसेन उवाच। | 3-247-3x |
विदितोऽयमभिप्रायस्तत्रस्थेन दुरात्मनः। इन्द्रेण धार्तराष्ट्रस्य सकर्णस्य धनंजय ।। | 3-247-3a 3-247-3b |
वनस्थान्भवतो ज्ञात्वा क्लिश्यमानाननर्हवत्। समस्थो विषमस्थांस्तान्द्रक्ष्यामीत्यनवस्थितान् ।। | 3-247-4a 3-247-4b |
इमेऽवहसितुं प्राप्ता द्रौपदीं च यशस्विनीम्। ज्ञात्वा चिकीर्षितं चैषां मामुवाच सुरेश्वरः ।। | 3-247-5a 3-247-5b |
गच्छ दुर्योधनं बद्ध्वा सहामात्यमिहानय। धनंजयश्च ते रक्ष्यः रसह भ्रातृभिराहवे ।। | 3-247-6a 3-247-6b |
स च प्रियः सखा तुभ्यं शिष्यश् तव पाण्डवः। वचनाद्देवराजस् ततोऽस्मीहागतो द्रुतम् ।। | 3-247-7a 3-247-7b |
अयं दुरात्मा बद्धश्च गमिष्यामि सुरालयम्। नेष्याम्येनं कदुरात्मानं पाकशासनशासनात् ।। | 3-247-8a 3-247-8b |
अर्जुन उवाच। | 3-247-9x |
उत्सृज्यतां चित्रसेन भ्राताऽस्माकं सुयोधनः। धर्मराजस्य संदेशान्मम चेदिच्छसि प्रियम् ।। | 3-247-9a 3-247-9b |
चित्रसेन उवाच। | 3-247-10x |
पापोऽयं नित्यसंदुष्टो न विमोक्षणमर्हति। प्रलब्धा धर्मराजस्य कृष्णायाश्च धनंजय ।। | 3-247-10a 3-247-10b |
नेदं चिकीर्षितं तस् कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। जानाति धर्मराजो हि श्रुत्वा कुरु यथेच्छसि ।। | 3-247-11a 3-247-11b |
वैशंपायन उवाच। | 3-247-12x |
ते सर्व एव राजनमभिजग्मुर्युधिष्ठिरम्। अभिगम्य च तत्सर्वं शशंसुस्तस्य चेष्टितम् ।। | 3-247-12a 3-247-12b |
अजातशत्रुस्तच्छ्रुत्वा गन्धर्वस्य वचस्तदा। मोक्षयामास तान्सर्वान्गन्धर्वान्प्रशशंस च ।। | 3-247-13a 3-247-13b |
`चित्रसेनस्तदा वाक्यमुवाच प्रौढया गिरा। मुञ्चध्वंसानुजामात्यं सदारं च सुयोधनम् ।। | 3-247-14a 3-247-14b |
गन्धर्वास्तु वचः श्रुत्वा चित्रसेनस्य वै द्रुतम्। राजानं मोचयामासुर्बद्धं निगडबन्धनैः ।। | 3-247-15a 3-247-15b |
सदारं सानुगामात्यं बालजालमयेन ये। लुछन्तश्चापि ते सर्वे युधिष्ठिरसमीपतः ।। | 3-247-16a 3-247-16b |
पतिता लज्जिताश्चैव तस्थुश्चाधोमुखास्तदा। युधिष्ठिरोपि दयया तान्समीक्ष्य तथागतान् ।। | 3-247-17a 3-247-17b |
दिष्ट्या भवद्भिर्बलिभिः शक्तैः सर्वैर्न हिंसितः। दुर्वृत्तो धार्तराष्ट्रोऽयं सामात्यज्ञातिबान्धवः ।। | 3-247-18a 3-247-18b |
उपकारो मसांस्तात कृतोऽयं मम खेचर। कुलं न परिभूतं मे मोक्षेणास्य दुरात्मनः ।। | 3-247-19a 3-247-19b |
आज्ञापयध्वमिष्टानि प्रीतं मां दर्शनेन वः। प्राप्य सर्वानभिप्रायांस्ततो व्रजत मा चिरम् ।। | 3-247-20a 3-247-20b |
अनुज्ञातास्तु गन्धर्वाः पाण्डुपुत्रेण धीमता। सहाप्सरोभिः संहृष्टाश्चित्रसेनमुखा ययुः ।। | 3-247-21a 3-247-21b |
`देवलोकं ततो गत्वा गन्धर्वैः सहितस्तदा। न्यवेदयच्च तत्सर्वं चित्रसेनः शतक्रतोः' ।। | 3-247-22a 3-247-22b |
देवराडपि गन्धर्वान्मृतांस्तान्समजीवयत्। दिव्येनामृतवर्षेण ये हताः कौरवैर्युधि ।। | 3-247-23a 3-247-23b |
ज्ञातींस्तानवमुच्याथ राजदारांश्च सर्वशः। कृत्वा च रदुष्करं कर्म प्रीतियुक्ताश्च पाण्डवाः ।। | 3-247-24a 3-247-24b |
सस्त्रीकुमारैः कुरुभिः पूज्यमाना महारथाः। बभ्राजिरे महात्मानः क्रतुमध्ये यथाऽग्नयः ।। | 3-247-25a 3-247-25b |
ततो दुर्योधनं मुक्तं भ्रातृभिः सहितस्तदा। युधिष्ठिरस्तु प्रणयादिदं वचनमब्रवीत् ।। | 3-247-26a 3-247-26b |
रमा स्म तात पुनः कार्षीरीदृशं साहसं क्वचित्। न हि साहसकर्तारः सुखमेघन्ति भारत ।। | 3-247-27a 3-247-27b |
स्वस्तिमान्सहितः सर्वैर्ब्रातृभिः कुरुनन्दन। गृहान्व्रज यथाकामं वैमनस्यं च मा कृथाः ।। | 3-247-28a 3-247-28b |
वैशंपायन उवाच। | 3-247-29x |
पाण्डवेनाभ्यनुज्ञानो राजा दुर्योधनस्तदा। अभिवाद्य धर्मपुत्रं गतेन्द्रिय इवातुरः। विदीर्यमाणो व्रीडावाञ्जगाम नगरं प्रति ।। | 3-247-29a 3-247-29b 3-247-29c |
तस्मिन्गते कौरवेये कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। भ्रातृभिः सहितो वीरः पूज्यमानो द्विजातिभिः ।। | 3-247-30a 3-247-30b |
तपोधनैश्च तैः सर्वैर्वृतः शक्र इवामरैः। तथा द्वैतवने तस्मिन्विजहार मुदा युतः ।। | 3-247-31a 3-247-31b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि घोषयात्रापर्वणि सप्तचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 247 ।। |
3-247-10 प्रलब्धा वञ्चकः ।। 3-247-11 इदं मदुक्तं समस्थो विषमस्थांस्तान् द्रक्ष्यामीति ।। 3-247-17 युधिष्ठिरोपीति। गन्धर्वान्प्रत्युवाचेति शेषः ।। 3-247-28 वैमनस्यं वैरं केनचित्सह मा कृथाः मा कुरु ।।
आरण्यकपर्व-246 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-248 |